कुरआन मजीद अल्लाह तआला की आखिरी वही (पैगाम) अपने आखिरी पैगम्बर मुहम्मद रसुल अल्लाह सल्लल लाहोअलैहे वा आलेहिवसल्लम पर नाज़िल की थी। कुरआन मजीद सारी दुनिया मे सबसे बेहतरीन किताब है, वो इन्सानियत के लिये हिदायत है, कुरआन मजीद हिकमत का झरना है और जो लोग नही मानते उन्के लिये चेतावनी है, उन्के लिये सख्ती है और जो लोग भटके हुए है उन्हे सीधी राह दिखाती है कुरआन मजीद। जिन लोगो को शक है कुरआन मजीद उन्के लिये यकीन है और जो मुश्किलात मे है उन्के लिये राहत है लेकिन ये कुरआन मजीद की सारी खुबियां कोई इन्सान तब तक हासिल नही कर सकता है जब की वो कुरआन मजीद को नही पढे, कुरआन मजीद को नही समझे, और कुरआन मजीद पर अमल न करे। कुरआन मजीद की ये सारी खुबियां हम तब ही हासिल कर सकते है जब कुरआन मजीद को पढे, उसकॊ समझें और उस पर अमल करें। कुरआन मजीद सारे जहां मे सबसे ज़्यादा पढी जाने वाली किताब है लेकिन अफ़्सोस की बात है की कुरआन मजीद वो ही किताब है जो सबसे ज़्यादा बिना समझे पढी जाती है, ये वो किताब है जो लोग बिना समझे पढते है यही वजह की हम मुस्लमानॊं और कुरआन के बीच जो रिश्ता है, जो बंधन है वो कमज़ोर होता जा रहा है।
कितने अफ़्सोस की बात है की एक शख्स कुरआन के करीब आता है, कुरआन पढता है, लेकिन उसके ज़िन्दगी जीने का तरीका बिल्कुल भी नही बदलता, उसका रहन-सहन ज़रा भी नही बदलता, उसका दिल ज़रा भी नही पिघलता, बहुत अफ़्सोस की बात है। अल्लाह तआला फ़र्माता है कुरआन मजीद में सुरह: आले इमरान सु. ३ : आ. ११० मे अल्लाह तआला सारे मुसलामानॊं से फ़र्माता है "की आप सारे जहां मे सबसे बेहतरीन उम्मा (उम्मत) है"। जब भी कोई तारिफ़ की जाती है या ओहदा दिया जाता है तो उसके साथ ज़िम्मेदारी होना ज़रुरी है कोई भी ओहदे के साथ ज़िम्मेदारी होना ज़रुरी है। जब अल्लाह तआला हमे सारे जहां मे सबसे बेहतरीन उम्मा कहता है तो क्या हमारे उपर कोई ज़िम्मेदारी नही है? इसी आयत मे अल्लाह तआला हमें हमारी ज़िम्मेदारी भी बताता है "अल्लाह तआला फ़र्माता है क्यौंकी हम लोगों को अच्छाई की तरफ़ बुलाता है और बुराई से रोकता है"। अगर हम लोगो को अच्छाई की तरफ़ बुलाना चाहता है और बुराई से बचाना चाहता है तो ज़रुरी है की हम कुरआन को समझ कर पढे। अगर हम कुरआन को समझ कर नही पढेंगें तो लोगो को अच्छाई की तरफ़ कैसे बुलायेंगें? और अगर हम लोगो को अच्छाई की तरफ़ नही बुलायेंगे तो हम "खैरा-उम्मा " (बसे बेह्तरीन उम्मा) कहलाने के लायक नही है। हम मुसलमान कहलाने के लायक नही है।
आज हम गौर करते हैं की हम मुसलमान कुरआन को समझ कर क्यौं नही पढतें? हम मुस्लमान क्यौं बहाने बनाते है कुरआन मजीद को समझ कर नही पढने के?
सबसे पहला जो बहाना है वो है की हम अरबी ज़बान नही जानते। ये हकीकत है की सारी दुनिया मे बीस प्रतिशत से ज़्यादा मुसलमान है, सारी दुनिया मे १२५ करोडं से ज़्यादा मुसलमान है लेकिन इसमे से लगभग १५ प्रतिशत मुसलमान अरब है जिनकी मार्त भाषा अरबी है और इन्के अलावा चन्द मुस्लमान अरबी ज़बान जानते है इसका मतलब है की ८० प्रतिशत मुसलमान अरबी ज़बान नही जानते है। जब भी कोई बच्चा पैदा होता है और इस दुनिया मे आता है तो वो कोई ज़बान नही जानता है वो सबसे पहले अपनी मां की ज़बान सीखता है ताकि वो घरवालॊं से बात कर सके, उसके बाद वो अपने मुह्ल्ले की ज़बान सीखता है ताकि मुह्ल्लेवालों से बातचीत कर सके, फिर वो तालिम हासिल करता है जिस स्कुल या कांलेज मे जिस ज़बान मे तालिम हासिल करता है उस ज़बान को सीखता है। हर इन्सान कम से कम दो या तीन ज़बान समझ सकता है, कुछ लोग चार या पांच ज़बान समझ सकते है और लोगो को बहुत सी ज़बानॊ मे महारत हासिल होती है लेकिन आम तौर से एक इन्सान दो या तीन ज़बान समझ सकता है। क्या हमे ज़रुरी नही की हम वो ज़बान समझे जिस ज़बान मे अल्लाह तआला ने आखिरी पैगाम इंसानियत के लिये पेश किया? क्या हमे ज़रुरी नही की हम अरबी ज़बान को जानें और सीखें? और उम्र कभी भी, कोई भी अच्छे काम के लिये रुकावट नही है।
मैं आपकॊं मिसाल पेश करना चाहता हु डां. मौरिस बुकेल की, डां. मौरिस बुकेल एक ईसाई थे, उन्हे फ़्रैचं अक्डेमी अवार्ड मिला था मेडिसिन के श्रेत्र मे, और उनको चुना गया था की "फ़िरौन की लाश" जो बच गयी थी, जिसे लोगों ने ढुढां था १९वीं सदी में, उसे मिस्त्र के अजायबघर रखा गया है। उन्हे चुना गया था की आप इस लाश पर तह्कीक (रिसर्च) करने को और डां. मौरिस बुकेल क्यौंकी ईसाई थे इसलिये जानते थे की "बाईबिल" मे लिखा हुआ था "की जब फ़िरौन मुसा अलैह्स्सलाम का पिछा कर रहा था तो वो दरिया मे डुब जाता है, ये उन्हे पता था। लेकिन डां. मौरिस बुकेल जब अरब का दौरा कर रहे थे तो एक अरब के आदमी ने कहा की कोई नयी बात नही है की आपने "फ़िरौन" कि लाश को ढुढं निकाला क्यौंकी कुरआन मजीद मे सुरह: युनुस सु. १० : आ. ९२ :- "अल्लाह तआला फ़र्माता है की हम फ़िरौन की लाश को हिफ़ाज़त से रखेंगें, महफुज़ रखेंगें ताकि सारी दुनिया के लिये वो एक निशानी बनें"। डां. मौरिस बुकेल हैरान हुए की ये जो किताब आज से १४०० साल पुरानी है उसमे कैसे लिखा गया है की "फ़िरौन की लाश को हिफ़ाज़त से रखा जायेगा"। इसीलिये डां. मौरिस बुकेल ने कुरआन मजीद का तर्जुमा पढां और तर्जुमा पढने के बाद इतने मुतासिर हुए की कुरआन को और अच्छी तरह समझने के पचास साल की उम्र मे उन्होने अरबी ज़बान सीखी और कुरआन का मुताला (समझ कर पढा) किया। और उसके बाद एक किताब लिखी " Bible. Quran And Science" और ये किताब काफ़ी मशहुर है और काफ़ी ज़बानॊ मे इसका तर्जुमा हो चुका है।
मैनें ये मिसाल आपकॊ दी ये समझाने के लिये की एक गैर-मुसलमान, एक ईसाई, कुरआन को अच्छी तरह समझने के लिये पचास साल की उम्र मे अरबी ज़बान सीखता है। मै जानता हूँ की हम सब डां. मौरिस बुकेल की तरह जज़्बा नही रखते है लेकिन कम से कम हम कुरआन का तर्जुमा तो पढ सकते है। मौलाना अब्दुल मजीद दरियाबादी फ़र्माते है की सारी दुनिया मे सबसे मुश्किल किताब जिस्का तर्जुमा हो सकता है वो है कुरआन मजीद। क्यौंकी कुरआन मजीद की ज़बान अल्लाह तआला की तरह से है और एक बेहतरीन ज़बान है, एक करिश्मा है। कुरआन की एक आयत एक ज़हीन और पढे - लिखे आदमी को मुत्तासिर (Impress) करती है और वही आयत एक आम आदमी कॊ मुत्तासिर करती है यह खुबी है कुरआन मजीद की और कई अरबी अल्फ़ाज़ (शब्द) उसके पचास से ज़्यादा माईने (मतलब/अर्थ) होते हैं और कुरआन मजीद की एक आयत के कई माईने होते है इसीलिये ये अल्लाह तआला की आखिरी किताब सबसे मुश्किल किताब है जिस्का तर्जुमा (अनुवाद) हो सकता है लेकिन इसके बावजुद कई उलमा ने कुरआन मजीद का तर्जुमा दुनिया की कई ज़बानॊ मे किया, जितनी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली ज़बानें (भाषायें) है उसके अंदर कुरआन मजीद का तर्जुमा (अनुवाद) हो चुका है तो अगर आपकॊ अरबी ज़बान मे महारत हासिल नही है तो आप कुरआन का तर्जुमा उस ज़बान (भाषा) मे पढे जिसमे आपको महारत हासिल है।
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