पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के परिजनों की गिनती उन लोगों में होती है कि जो सत्यता के मोर्चे पर अटल एवं अग्रणी रहे। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के अनुसार मुसलमानों के बीच वे हज़रत नूह के जहाज़ के समान हैं कि जिस पर सवार होकर वे समय के थपेड़ों तथा जीवन में विचलन एवं पथभ्रष्टता से बच सकते हैं। इन्हीं महान हस्तियों में से एक, इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की शहादत की वर्षगांठ है कि जिनका व्यक्तित्व समस्त सदगुणों का संगम था। उन्होंने एक ऐसे काल में जीवन व्यतीत किया कि जब इस्लामी समाज में ईश्वरीय मूल्य फीके पड़ चुके थे तथा शासक, जिन्हें जनता का सेवक होना चाहिए था, भ्रष्टाचार, धन एकत्रित करने और जनता की संपत्ति को बर्बाद करने में व्यस्त थे। अब्बासी वंश का शासक हारून रशीद विदित रूप से तो धर्म का समर्थक था परन्तु उसका और उसके साथियों का व्यवहार तनिक भी धार्मिक सिद्धांतों के अनुरूप नहीं था। स्वार्थी हारून रशीद छल-कपट करके स्वयं को पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का उत्तराधिकारी घोषित करता था तथा कुछ लोगों ने भय एवं प्रलोभन के कारण उसके समक्ष समर्पण कर दिया था और बिल्कुल भी उसका विरोध नहीं करते थे। ऐसी परिस्थितियों में इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने अथक प्रयास किया कि उद्दंडी एवं अत्याचारी अब्बासी शासकों विशेषकर हारून रशीद के चेहरे से नक़ाब खींचकर तथ्यों एवं साक्ष्यों के आधार पर उसकी वास्तविकता को सबके सामने उजागर करें। न्याय एवं इस्लाम के मार्ग से विचलित शासन के संबंध में इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की स्पष्ट नीति के कारण सरकारी कारिंदे उनकी कड़ी निगरानी रखते थे। यहां तक कि इमाम मूसा काज़िम को उनके पैतृक नगर मदीना को छोड़ने पर बाध्य किया गया और अब्बासी शासन की राजधानी बग़दाद ले जाया गया। वर्षों तक निर्वासन और क़ैद की कठिनाइयां सहन करने के बाद अंततः 25 रजब वर्ष 183 हिजरी क़मरी को इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम को शहीद कर दिया गया। इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम को क़ैद के दौरान सिन्दी बिन शाहक ने हारून रशीद के आदेशानुसार विषाक्त किया और क़ैदख़ाने में ही इमाम की शहादत हो गयी। प्रिय श्रोताओ इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की शहादत की बरसी पर पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के चाहने वालों एवं समस्त न्याय प्रेमियों की सेवा में हम संवेदना प्रकट करते हैं। यद्यपि अत्याचारी शासकों द्वारा इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम को लम्बे समय तक विभिन्न क़ैदख़ानों में बंदी बनाकर रखा गया तथा अत्यधिक निर्दयी एवं क्रूर अधिकारियों ने इमाम अलैहिस्सलाम को कड़ी से कड़ी यातनाएं दी गईं लेकिन इसके बावजूद आप एक क्षण भी सच बात कहने एवं ईश्वरीय तथ्यों का प्रचार करने से नहीं चूके। आपने हर उचित अवसर पर जागृत करने वाले उपदेश, लोभी शासकों के कानों तक पहुंचाये तथा इस्लामी समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इमाम अलैहिस्सलाम ने बंदीगृह से एक चेतावनी भरा पत्र हारून रशीद के महल भेजा और यह उल्लेख किया कि मेरी कठिनाईयों का जैसे एक दिन बीतता है वैसे ही तेरी ख़ुशियों का एक दिन भी समाप्त हो जाता है, इसी प्रकार एक दिन ऐसा आयेगा कि मैं और तू एक ही स्थान पर उपस्थित होंगे, ऐसी जगह जहां स्वार्थियों एवं अत्याचारियों को उनके कृत्यों की सज़ा मिलेगी।इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का चरित्र ऐसा था कि जान की बाज़ी लगाकर आप धर्म की रक्षा करते थे और इसमें किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं करते थे। इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम अत्यंत उदार एवं सहनशील थे जिसके कारण आपको काज़िम अर्थात क्रोध पर नियंत्रण रखने वाला कहा जाता था। यह विशेषता आपके व्यक्तिगत जीवन से संबंधित थी क्योंकि आप लोगों के प्रति कृपालु एवं त्यागी थे। इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम का आकर्षक व्यवहार एवं नैतिकतापूर्ण आचरण ऐसा था कि बंदीगृह के अधिकारी तक, जो अत्यधिक क्रूर एवं कठोर थे, उनसे प्रभावित हो जाते थे। बसरा के कारापाल ईसा बिन जाफ़र का कहना है कि मैंने अथक प्रयत्न किया कि मूसा काज़िम को जिस तरह भी संभव हो कड़ी निगरानी में रखूं। यहां तक कि मैं छिप कर उनकी प्रार्थना और दुआओं को सुनता था। किन्तु वे अत्यधिक धैर्यवान थे और जेल की कठिनाईयों पर बड़े धैर्य से विजय प्राप्त कर लिया करते थे तथा ईश्वर से कृपा एवं मुक्ति की दुआ मांगते थे। इमाम काज़िम इस लिए धैर्य एवं संयम से काम लेते थे क्योंकि उनकी दृष्टि में मानवीय एवं नैतिक गुणों के प्रचार को हर वस्तु पर वरीयता प्राप्त थी। उनका विश्वास था कि लोगों के साथ दोस्ती और भाईचारा जीवन को सुंदर और आकर्षक बनाता है, संबंधों को मज़बूत करता है, हृदयों को आशान्वित करता है और समाज में सौहार्दपूर्ण वातावरण उत्पन्न करता है। आपकी दृष्टि में लोगों के साथ भलाई और दोस्ती मानवता की पहचान है।इसके बावजूद इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने हारून रशीद जैसे अत्याचारी शासक के समक्ष कभी भी उदारता एवं विनम्रता का प्रदर्शन नहीं किया। हारून एक अंहकारी शासक था और स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानता था तथा अपने विशाल शासन पर घमंड करता था और कहता था कि हे मेघो बरसो, क्योंकि जहां भी तुम्हारी बारिश की बूंदे गिरेंगी, चाहे वह पूरब हो या पश्चिम, वे मेरे शासन के भूभाग में ही गिरेंगी और उस भूमि का लगान मेरे ही पास लाया जायेगा। हारून ने इमाम काज़िम की उपस्थिति में कि जिन्हें दरबार में आने के लिए बाध्य किया गया था, ये बातें दोहराईं और इमाम से पूछा कि यह संसार क्या है? इमाम ने उत्तर दिया कि यह संसार अवज्ञाकिरयों का ठिकाना है। उसके बाद आपने क़ुरआने मजीद के सूरऐ आराफ़ की 146वीं आयत की तिलावत की जिसमें ईश्वर कहता है कि शीघ्र ही हम ऐसे लोगों को जो धरती में बड़े बड़े दावे करते हैं, अपनी निशानियों से दूर कर देंगे और यदि वे किसी निशानी को देखें भी तो उस पर ईमान नहीं लाएंगे और यदि परिपूर्णता एवं विकास के पथ को देखें भी तो उसकी ओर नहीं बढ़ेंगे किन्तु यदि विनाश एवं बर्बादी के मार्ग को देख लें तो उसकी ओर अवश्य चल देंगे। हारून ने पूछा क्या हम काफ़िर हैं? इमाम ने उत्तर दिया नहीं, लेकिन वैसे हो जैसा कि ईश्वर ने सूरए इब्राहीम की 28वीं आयत में कहा है कि वे लोग कि जिन्होंने ईश्वर की अनुकंपा को कुफ़्र में परिवर्तित कर दिया और अपनी जाति को तबाही के घाट उतार दिया।हारून के मुक़ाबले में इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की दृढ़ता, साहस और स्पष्ट नीति इस प्रकार थी कि एक दिन काबे के पास हारून रशीद की इमाम से भेंट हो गयी तो उसने कहा कि क्या तुम वही हो जिससे लोग, छिपकर वफ़ादारी का वचन देते हैं और तुम्हें अपना नेता एवं मार्गदर्शक मानते हैं? आपने बड़े ही साहस से उत्तर दिया कि मैं लोगों के हृदयों पर शासन करता हूं और तू उनके शरीर पर। इमाम काज़िम के काल में इस्लाम के सिद्धांतों पर आधारित शासन की स्थापना के लिए व्यापक अभियान के लिए भूमि प्रशस्त नहीं थी। किन्तु समाज में तानाशाहों के विरुद्ध असहयोग आंदोलन अथवा नकारात्मक अभियान के लिए परिस्थितियां अनुकूल थीं। यही कारण है कि इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने अत्याचारी अब्बासी शासन के साथ हर प्रकार के सहयोग पर प्रतिबंध लगा रखा था, इस लिए कि इससे अत्याचारियों के आधार सुदृढ़ होते थे परन्तु कुछ ऐसे आसाधारण अवसर भी थे कि जब इमाम ने अपने साथियों द्वारा सरकारी पदों पर आसीन होने का विरोध नहीं किया। इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम ने अपने योग्य एवं प्रतिभाशाली साथियों को प्रशिक्षण दिया था कि वे प्रशासनिक अधिकारियों पर सकारात्मक प्रभाव डालें, इस प्रकार इमाम ईश्वरीय उद्देश्यों को आगे बढ़ाने मंा उनकी उपस्थिति से लाभ उठाते थे। हारून के शासन में एक अधिकारी अली बिन यक़तीन, इमाम के साथियों में से एक थे कि जिन्होंने प्रधान मंत्री का पदभार भी संभाला था। ईश्वर की कृपा, इमाम अलैहिस्सलाम के मार्गदर्शन और अपनी समझदारी से उन्होंने इमाम के ईश्वरीय उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु महत्वपूर्ण योगदान दिया। एक दिन अली बिन यक़तीन अपने स्वामी इमाम काज़िम के पास आये और शासन के साथ सहयोग बंद करने की इच्छा प्रकट की, किन्तु इमाम ने उन्हें इसकी अनुमति नहीं दी और कहा कि ख़लीफ़ा के दरबार में तुम्हारी उपस्थिति से तुम्हारे धार्मिक भाईयों को आसानी है। आशा है कि ईश्वर तुम्हारे माध्यम से समस्याओं का निवारण करेगा तथा शत्रुओं के षडयंत्रों पर पानी फेर देगा। अली बिन यक़तीन! जान लो कि अत्याचारियों के दरबार में सेवा का प्रायश्चित पीड़ितों को उनके अधिकार दिलवाना है। वचन दो कि जब कभी भी कोई धर्म में निष्ठा रखने वाला तुम्हारे पास आयेगा तो उसकी आवश्यकता को पूरा करोगे, उसका अधिकार को स्वीकार करोगे तथा उसका सम्मान करोगे। जान लो कि जो भी पीड़ित का अधिकार उसे दिलाता है और उसके मन को शान्ति पहुंचाता है तो वह सबसे पहले ईश्वर को, फिर पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को और उसके बाद हमें प्रसन्न करता है।इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की ज्ञान-विज्ञान संबंधी गतिविधियां भी उनके राजनीतिक मार्गदर्शन के समानांतर जारी थीं। उन्होंने इस्लामी शिक्षाओं और विश्वासों का वर्णन करने का अथक प्रयास किया तथा विद्वानों का एक बड़ा समूह संगठित किया। अपने पिता इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के परलोकगमन के पश्चात इमाम काज़िम अपने समय के सबसे अधिक ज्ञाता थे। इसी परिदृश्य में इमाम उन विद्वानों की आलोचना करते थे कि जिन्होंने अपने ज्ञान को अब्बासी शासन की सेवा में समर्पित कर दिया था इस लिए कि शासन में इन लोगों की भागीदारी से अत्याचारी एवं अवैध शासन को एक प्रकार की वैधता प्राप्त होती थी। ऐसे लोगो के बारे में इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम पैग़म्बरे इस्लाम की एक हदीस बयान करते हैं और कहते हैं कि जब तक धर्मशास्त्री स्वयं को नहीं बेचते, वे पैग़म्बर के विश्वासपात्र हैं। उनसे प्रश्न किया गया कि विद्वान किस प्रकार स्वयं को बेचते हैं? आपने उत्तर दियाः जब वे अत्याचारी शासकों का अनुसरण करते हैं। उस समय से डरो कि कहीं वे तुम्हारे धर्म की रक्षा न करें।ईश्वर की उपासना से इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम को इतना प्रेम था कि जब तत्कालीन तानाशाह हारून रशीद ने उन्हें अंधेरे क़ैदख़ाने में डाल दिया तो उन्होंने हाथों को आसमान की ओर उठाया और बड़ी ही निष्ठा के साथ प्रार्थना की कि हे ईश्वरः वास्तव में मैंने सदैव तूझसे यही प्राथना की है कि उपासना के लिए मुझे एकांत प्रदान कर, प्रभुवर! तूने मेरी प्राथना सुन ली, अतः प्रशंसा केवल तेरे लिए ही है। इतिहास में वर्णित है क़ुरआने मजीद, इमाम काज़िम के एकान्त का साथी था। आप बहुत ही मोहक आवाज़ में क़ुरआन की तिलावत किया करते थे। जब भी आप क़ुरआन की तिलावत करते थे, श्रोता भावुक हो जाते थे।इमामे काज़िम अलैहिस्सलाम ईश्वर की उपासना और आराधना पर बहुत बल दिया करते थे, एक दिन आपने अपने एक पुत्र से कहाः हे मेरे प्रिय पुत्र! ऐसा न हो कि कहीं ईश्वर तुम्हें कोई ऐसा पाप करते देखे कि जिसकी उसने मनाही की है और कहीं ऐसा न हो कि तुम्हें उस आराधना में न पाये कि जिसका उसने आदेश दिया हो, तुम्हें प्रयास करते रहने चाहिए, और सदैव यह सोचना चाहिए कि तुमने ईश्वर की उपासना में कमी की है क्योंकि जिस प्रकार ईश्वर की उपासना होनी चाहिए उस प्रकार हो नहीं पाती है।इसी प्रकार धर्म के बारे में सही जानकारी एवं जागरुकता के संबंध में उन्होंने कहा कि धर्म के बारे में गहन चिंता करो और सही जानकारी प्राप्त करो क्योंकि धर्म के बारे में सही जानकारी प्रवीणता एवं जागरूकता की कुंजी है, तथा धर्म और विश्व में ऊंचाईयों के शिखर पर पहुंचने का रास्ता है और उपासक पर धर्मशास्त्री को वही वरीयता एवं प्राथमिकता प्राप्त है कि जो सूर्य को सितारों पर और जिस किसी ने भी धर्म को समझने और जानने का प्रयास न किया, ईश्वर उससे प्रसन्न नहीं हुआ।
source : hindi.irib.ir