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इस्लामी संस्कृति व इतिहास-3

इस्लामी संस्कृति व इतिहास-3

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का एक महत्वपूर्ण क़दम, इस्लामी शासन के प्रशासनिक केंद्र के रूप में मस्जिद का निर्माण था। वस्तुतः इस बात की आवश्यकता थी कि एक ऐसे केंद्र का निर्माण किया जाए जो मुसलमानों का उपासना स्थल भी हो और साथ ही वहां उनके राजनैतिक, न्यायिक, शैक्षिक यहां तक कि सामरिक मामलों को भी तैयार किया जाए। आरंभ में मस्जिद को, जनकोष, युद्धों से प्राप्त होने वाले धन-संपत्ति यहां तक कि बंदियों और युद्ध बंदियों की देख-भाल का स्थान समझा जाता था। वस्तुतः मस्जिद के कार्यक्षेत्र में सभी राजनैतिक व सामाजिक इकाइयां आती थीं, इसी आधार पर मदीना नगर में नवगठित इस्लामी शासन की स्थिरता एवं सुदृढ़ता में मस्जिद की विशेष भूमिका थी।

मस्जिद की भूमिका और क्रियाकलाप के बारे में यह कहना उचित होगा कि इस्लाम के आरंभिक काल में ज्ञान व ईमान के बीच सबसे गहरे संबंध मस्जिद में ही स्थापित होते थे। सभी इस्लामी शिक्षाओं व आदेशों का वर्णन मस्जिद में ही किया जाता था और धार्मिक शिक्षाओं बल्कि लिखने-पढ़ने से संबंधित सभी मामले भी मस्जिद में अंजाम दिए जाते थे। बाद में जब धीरे-धीरे प्रशासनिक और न्यायिक मामलों की इकाइयां मस्जिद से अलग हुईं तब भी ज्ञान प्राप्ति के केंद्र मस्जिद के पड़ोस में ही बने रहे। इस आधार पर पिछली कुछ शताब्दियों तक इस्लामी देशों में बड़े मदरसे और विश्वविद्यालय नगर की जामा मस्जिदों के पास ही बनाए जाते थे।

धार्मिक आस्थाओं की रक्षा व उनके प्रचलन के लिए, जो पैग़म्बरे इस्लाम का मुख्य लक्ष्य था, निश्चित रूप से राजनैतिक, प्रशासनिक और सामरिक सहारे की आवश्यकता थी। उन्होंने सरकार के आधारों को सुदृढ़ बनाने तथा प्रशासनिक व्यवस्था के गठन के लिए सक्षम लोगों का चयन किया और उनमें से प्रत्येक को कुछ दायित्व सौंपे। उनमें से कुछ लोगों ने ज़कात और दान-दक्षिणा एकत्रित करने का काम आरंभ किया जबकि कुछ अन्य ने सामाजिक मामलों को सुव्यवस्थित करने का दायित्व संभाला। मदीना नगर की सरकार की प्रशासनिक व्यवस्था अत्यंत सरल व सादा किंतु व्यापक थी। कुछ लोगों को समझौतों, संधियों और सहमति पत्रों को पंजीकृत करने, करों के मानक निर्धारित करने, युद्ध से प्राप्त होने वाले धन और संपत्ति का रिकार्ड रखने यहां तक कि क़ुरआने मजीद की आयतों को लिखने का दायित्व सौंप गया।

पैग़म्बरे सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने कुछ लोगों को इस बात के लिए भी नियुक्त किया था कि वे लोगों अथवा क़बीलों को दी जाने वाली भूमियों या जल स्रोतों की सूचि तैयार करें और उन लोगों अथवा क़बीलों के लिए स्वामित्व के दस्तावेज़ तैयार करें। यह अरबों की बीच पूर्ण रूप से नई शैली थी क्योंकि अरबों के बीच प्राचीन काल से चले आ रहे मतभेदों का एक कारण, भूमि व विभिन्न संपत्तियों विशेष कर कुओं और नहरों जैसे जल स्रोतों पर स्वामित्व हुआ करता था।

पैग़म्बरे सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने इसी प्रकार यहूदी व ईसाई क़बीलों सहित विभिन्न क़बीलों के साथ कई संधियां व समझौते किए। इन समझौतों की विषयवस्तु, समय व स्थान और इसी प्रकार मुस्लिम सेना की कमज़ोरी व मज़बूती के दृष्टिगत भिन्न हुआ करती थी, इस प्रकार से कि कभी कभी उन लोगों को बहुत आश्चर्य होता था जिन्हें परिस्थितियों का पूरा ज्ञान नहीं था। उदाहरण स्वरूप पैग़म्बरे सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने मक्के के अनेकेश्वरवादियों से हुदैबिया नामक जो संधि की थी उसके अनुच्छेदों से कुछ लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ जबकि कुछ अन्य ने उस पर अपनी अप्रसन्नता व विरोध की घोषणा की। आगे चल कर इतिहास ने यह दर्शा दिया कि किस प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम ने किस प्रकार मदीने में नवगठित सरकार की रक्षा व उसे सुदृढ़ बनाने तथा उसके लक्ष्यों व नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए अत्यंत दूरदर्शितापूर्ण कूटनीति का प्रयोग किया और मामलों को सुव्यवस्थित किया।

इन प्रशासनिक कार्यों के साथ ही पैग़म्बरे सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने ईरान, रोम, मिस्र, यमन और ईथोपिया सहित विभिन्न पड़ोसी देशों के शासकों को पत्र लिखे। इन पत्रों का मुख्य विषय, उन शासकों को इस्लाम और एकेश्वरवाद का निमंत्रण देना था। अधिकांश इतिहासकारों का मानना है कि इन पत्रों में लिखी गई बातें, पैग़म्बरे इस्लाम की विदेश नीति का भाग थीं। उन्होंने विभिन्न अवसरों पर टकराव और युद्ध पर निमंत्रण और कूटनीति को प्राथमिकता देने के अपने विश्वास का उल्लेख किया है। यदि उनके साथी किसी को भी इस्लाम स्वीकार करने का निमंत्रण दिए बिना बनाते थे तो आप उस व्यक्ति को स्वतंत्र कर देते थे।

पैग़म्बरे सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की एक अन्य कार्यवाही, इस्लामी शासन के विस्तार और इस्लामी शासन की सीमाओं के भीतर शांति व सुरक्षा की स्थापना पर आधारित थी। इसके लिए उन्होंने आवश्यकता पड़ने पर युद्ध भी किया। वे कभी स्वयं युद्ध में सम्मिलित होते और कभी किसी अन्य को सेना की कमान सौंप देते थे। इसी प्रकार उन्होंने विभिन्न पड़ोसी क़बीलों के साथ संधियां कीं। उनकी इस प्रकार की कार्यवाहियां, उस समय के अरब जगत के राजनैतिक मंच से बाहर इस्लाम के प्रचार और उसके वैश्विक संदेश के प्रसार के लिए थीं।

अमरीकी इतिहासकारी वेल डोरेन्ट इस्लामी व्यवस्था की रूपरेखा तैयार करने में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की तत्वदर्शितापूर्ण भूमिका की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि उस काल में पैग़म्बर न केवल मुसलमानों के नेता थे अपितु मदीना नगर का राजनैतिक नेतृत्व भी उन्हीं के पास था तथा वे उस नगर के मुख्य न्यायाधीश भी समझे जाते थे। एक ईरानी इतिहासकार व अध्ययनकर्ता अब्दुल हुसैन ज़र्रीनकूब ने लिखा है कि विशेष रूप से मदीना नगर में इस्लामी आदेशों का मुख्य भाग निर्धारित हुआ। क़िबले के परिवर्तन के कुछ ही समय बाद, रमज़ान के महीने में रोज़े रखने और नमाज़ पढ़ने व ज़कात अदा करने के आदेश भी व्यवहारिक हो गए। उनके अनुसार जेहाद, युद्ध से प्राप्त होने वाले माल के बंटवारे, मीरास, शराब पर प्रतिबंध, हज और इसी प्रकार के कुछ अन्य आदेशों ने अरबों के जीवन के पूर्ण रूप से परिवर्तित करके उनके बीचए एकता उत्पन्न कर दी।

मदीना नगर पर पैग़म्बरे सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के दस वर्षीय शासन के दौरान उन्होंने लगभग 80 छोटे-बड़े युद्धों का नेतृत्व किया। या तो वे स्वयं युद्ध में उपस्थित हो कर इस्लामी सेना का नेतृत्व करते थे या फिर स्वयं नगर में रहते और अपने किसी साथी को सेना का कमांडर निर्धारित कर देते थे। युद्धों में सेना के नेतृत्व की पैग़म्बरे इस्लाम की बौद्धिक युक्तियों और सामरिक मामलों में अन्य लोगों से परामर्श करने की उनकी शैली पर सभी इतिहासकारों ने विशेष ध्यान दिया है। यद्यपि युद्ध अथवा संधि के बारे में अंतिम निर्णय वे स्वंय लेते थे किंतु युद्ध व प्रतिरक्षा की शैली व रणनीतियों के बारे में वे अपने साथियों से अवश्य परामर्श करते थे। महत्वपूर्ण युद्धों से पूर्व वे प्रायः युद्ध परिषद का गठन करते थे और अन्य लोगों के विचार भी सुना करते थे। उदाहरण स्वरूप उहुद नामक युद्ध में, यद्यपि उनका विचार भिन्न था किंतु उन्होंने एक विचार पर अधिकांश लोगों के सहमत होने के कारण उस विचार को ही स्वीकार किया।

अरब के निकटवर्ती देशों व क्षेत्रों पर विजय प्राप्ति के पश्चात इस्लामी शासन का क्षेत्र फल बढ़ता चला गया। मुसलमान, विभिन्न राष्ट्रों की भिन्न-भिन्न संस्कृतियां से परिचित हुए जो स्वाभाविक रूप से एक समान न थीं। यह परिचय इस बात का कारण बना कि इन संस्कृतियों की कुछ परंपराएं, मुसलमानों के सरल एवं सादा जीवन में भी प्रविष्ट हो जाएं। इस्लामी संस्कृति को अचानक ही विभिन्न प्रकार की परंपराओं, संस्कारों एवं आचरणों का सामना हुआ किंतु इस्लामी शिक्षाओं के आधार पर जो परंपरा और जो संस्कार धर्म से विरोधाभास नहीं रखता था, वह धर्म में सम्मिलित हो गया। यह स्थिति इस सीमा तक जारी रही कि दूसरे ख़लीफ़ा के शासन काल की समाप्ति पर मदीन के सामाजिक वातावरण का ढांचा पूर्ण रूप से परिवर्तित हो गया।

दूसरी ओर जीते गए क्षेत्रों की रक्षा और वहां के मामलों के सही संचालन के लिए विशेष प्रकार के ज्ञान व अनुभव की आवश्यकता थी जिससे आरंभ में मुसलमान अनभिज्ञ थे किंतु जब उन्होंने निरंतर विजय प्राप्त करनी आरंभ की तो विभिन्न प्रकार की कलाओं, राजनैतिक युक्तियों और संचालन की शैली सीखने का अधिक आभास होने लगा और उन्होंने इन क्षेत्रों में दक्षता प्राप्त करने के प्रयास आरंभ कर दिए। इसी समय से धीरे-धीरे नवगठित मुस्लिम समाज में राजनैतिक तंत्र को सुव्यवस्थित करने हेतु संचालन संस्थाएं अस्तित्व में आने लगीं। शायद कहा जा सकता है कि ये संस्थाएं, मदीने में जनकोष की स्थापना के साथ अस्तित्व में आना आरंभ हुईं और उमवी व अब्बासी शासनकाल में प्रशासन व संचालन की विभिन्न संस्थाएं गठित हो गईं।

इस्लामी शासन द्वारा प्राप्त की गई विजयों के बारे में इस महत्वपूर्ण बिंदु की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए कि युद्धों से प्राप्त होने वाले धन और संपत्ति ने अनचाहे में ही इस्लामी समाज में ऐश्वर्य और हित प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इन समस्याओं ने बाद के काल में इस्लाम की शासन व्यवस्था पर बड़े बुरे प्रभाव डाले और विभिन्न प्रकार की पथभ्रष्टताओं का कारण बनीं। यहां तक कि अरबों ने अपने सांसारिक हितों को अधिक से अधिक प्राप्त करने के लिए पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के परिजनों तक के अधिकारों की अनदेखी कर दी। अल्बत्ता इसी के साथ यह भी कहना चाहिए कि इस्लामी शासन की विजयों के काल में होने वाले परिवर्तनों के चलते ही अन्य क्षेत्रों विशेष कर ईरानी मुसलमानों के माध्यम से आने वाले विभिन्न ज्ञानों ने इस्लामी सभ्यता की रूपरेखा तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस्लामी शासन की आरंभिक विजयों के बाद ही अनेक प्रचारकों का प्रशिक्षण किया गया जो दूरवर्ती क्षेत्रों में इस्लाम का प्रसार भी करते थे और इस्लामी सभ्यता के क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के ज्ञान भी स्थानांतरित करते थे। यह बात इस्लामी सभ्यता की रूपरेखा तैयार करने में अत्यधिक  सहायक सिद्ध हुई।


source : irib.ir
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