13 रजब को अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम का शुभ जन्म हुआ, आप पैगम्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम के चचाज़ाद भाई हैं और वह इसी नुबूव्वत की छाया में पले बढ़े और ख़ुद पैग़म्बर की देखरेख में आपका प्रशिक्षण हुआ। हज़रत अली अलैहिस्सलाम पहले आदमी थे जिन्होंने इस्लाम क़ुबूल किया बल्कि यूं कहा जाये कि अली अलैहिस्सलाम इस्लाम पर पैदा हुए, यह कहना बहुत बड़ा अत्याचार है कि अली अ.ह बच्चों में सबसे पहले इस्लाम लाये।
हम इस बात के लिए ख़ुश और अल्लाह के आभारी हैं कि इस दिन क़ाबे की दीवार में दरार पड़ी और इंसाफ़ में निखार आया। कायनात ने दोबारा बसंत का अनुभव किया और थकी हुई दुनिया का भाग्य जाग उठा। इतिहास के तपते हुए रेगिस्तान पर इंसाफ़ की हरी-भरी छाव फैल गई। और सभी इलाही पैग़म्बरों की विशेषताओं का उत्तराधिकारी आ पहुंचा। इस तरह पैग़म्बरे इस्लाम के वास्तविक उत्तराधिकारी ने दुनिया में क़दम रखा। आज १३ रजब हज़रत अली अलैहिस्सलाम का शुभ जन्म दिवस है।
इस्लामी समाज में एकता को ख़ास अहमियत हासिल है और यह, इस्लामी समाज के महत्वपूर्ण एवं मौलिक विषयों में से एक है। इस्लामी एकता मुसलमानों के ईमान, तौहीद पर यक़ीन, पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी और पाक क़ुरआन पर ईमान की छाया में वुजूद में आई है। पाक क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम (स) तथा उनके पाक अहलेबैत अ. की हदीसों में इस्लामी समाज में एकता पर बहुत ज़्यादा ज़ोर दिया गया है। इस्लामी शिक्षाओं मे साफ़ तौर पर मुसलमानों को एकजुट रहने का हुक्म दिया गया है तथा मतभेदों से बचने की सिफ़ारिश की गई है। पाक क़ुरआन की आयतों के अनुसार मतभेदों से बचने का रास्ता, दीन और अल्लाह के सीधे रास्ते का अनुसरण यानि अल्लाह का आज्ञापालन करना है। सूरए अनआम की आयत नम्बर १५३ में इस विषय का बयान इस तरह किया गया हैः- यह मेरा सीधा रास्ता है तुम उस पर चलो और गुमराह रास्तों का अनुसरण न करो कि वह तुम्हें सच्चाई के रास्ता से दूर कर देता है।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम इस्लामी दुनिया में एकता को ख़ास अहमियत देते थे। इसको वह अल्लाह की अनुकंपा और उसकी रहमत मानते थे। हज़रत अली का कहना था कि समाज की भलाई संगठित रहने में ही है। इस बारे में उनका कहना है कि इस बात के मद्देनज़र कि अल्लाह भी संगठन या एकता के साथ है मुसलमानों को एकजुट रहते हुए अपनी एकता की सुरक्षा करनी चाहिए। हज़रत अली अलैहिस्सलाम समाज या क़ौम में मतभेदों से होने वाले नुक़सान को स्पष्ट करते हुए इसकी उपमा उस भेड़ से देते हैं जो अपने रेवड़ से अलग हो गई है और अब वह चरवाहे से दूर हो चुकी है। इस आधार पर आदमी को संगठित समाज से अलग नहीं होना चाहिए ताकि विदेशी दुश्मनों की साज़िशों से बचा जा सके और आपस में एकजुट रहकर एकता का फ़ायदा उठाना चाहिये।
इस्लामी समाज को एकजुट रखने के लिए हज़रत अली अलैहिस्सलाम की लाइफ़ स्टाइल, सबसे अच्छी है। पाक क़ुरआन की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम के पाक अहलेबैत की हदीसों से यह बात साबित हो जाती है कि हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वआलेही वसल्लम के बाद लोगों के इलाही हिदायत की ज़िम्मेदारी, अल्लाह की तरफ़ से इमाम अली अलैहिस्सलाम के लिए निर्धारित की गई थी। इसका एक सबूत यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वआलेही वसल्लम ने अपने ज़िंदगी में हज़रत अली की इलाही लीडरशिप पर कई बार ज़ोर देने के बावजूद अपने इस दुनिया से कूच करने से कुछ समय पहले ग़दीरे ख़ुम में स्पष्ट शब्दों में अल्लाह की तरफ़ से हज़रत अली अलैहिस्सलाम के ख़लीफ़ा होने यानि इलाही हिदायत और उन्हें अपनी उत्तराधिकारी बनाने का ऐलान किया था। इस अवसर पर पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने कहा था कि जिसका मैं मौला यानि अभिभावक हूं मेरे बाद अली उसके मौला हैं।
बड़े अफ़सोस की बात है कि पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम की वफ़ात के बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम के इस इलाही अधिकार की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने शुरू में तो अपने इलाही अधिकार की मांग की लेकिन इस इलाही पद के लिए कई दावेदारों के सामने आने और इस कारण इस्लामी समाज में उत्पन्न होने वाले मतभेदों के मद्देनज़र और इस्लामी समाज में एकता और अखण्डता बनाए रखने और सार्वजनिक हितों की रक्षा के मक़सद से हज़रत अली (अ) ने ख़ामोशी इख़्तियार कर ली। इसका मुख्य कारण यह था कि एसी हालत में इस्लाम के आधारों के कमज़ोर होने का ख़तरा पाया जाता था। इस ख़तरे को इस तरह से समझा जा सकता है कि पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम की वफ़ात के बाद मदीने के बाहर एक गुट अबूबक्र की ख़िलाफ़त का प्रबल विरोधी था। दूसरी ओर पैग़म्बरे इस्लाम की वफ़ात की सूचना मिलने के बाद एक गुट ने दीन छोड़ दिया था। एक अन्य समस्या यह थी कि "मुसैलमा" तथा "सजाह" जैसे लोगों ने स्वयं को पैग़म्बर घोषित करके एक गुट को अपने इर्दगिर्द इकट्ठा कर लिया था। दूसरी ओर मदीने पर हमले का ख़तरा बहुत ज़्यादा हो गया था। इस संदर्भ में हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने एक पत्र में मिस्र वासियों को संबोधित करते हुए कहते हैं कि अल्लाह की क़सम मैने कभी सोचा भी नहीं था कि अरब, ख़िलाफ़त यानि इलाही हिदायत की ज़िम्मेदारी को पैग़म्बरे इस्लाम के अहलेबैत से अलग कर देंगे या मुझको उससे रोक देंगे। यह देखकर मुझको बहुत आश्चर्य हुआ कि लोग फ़लाँ आदमी की बैअत यानि आज्ञापालन के लिए दौड़ पड़े। इन हालात में मैंने अपना हाथ खींच लिया। मैंने देखा कि कुछ लोग इस्लाम छोड़ चुके हैं और वह मुहम्मद (स) के दीन को ख़त्म करना चाहते हैं। ऐसे में मुझको इस बात का डर सताने लगा कि अगर मैं इस्लाम और मुसलमानों की सहायता करने के लिए आगे न बढूं तो मुसलमानों के बीच गंभीर मतभेद उत्पन्न हो जाएंगे। मेरी नज़र में चार दिनों की हुकूमत के मुक़ाबले में यह ख़तरा ज़्यादा हानिकारक था। एसी हालत में इन घटनाओं का मुक़ाबला करने और मुसलमानों की सहायता के लिए मैं उठ खड़ा हुआ। इस तरह बातिल (असत्य) मिट गया और इस्लामी समाज में शांति दोबारा वापस आ गई।
हज़रत अली इब्ने अबी तालिब अ. ने अपने इल्म, महानता और बहुत सी दूसरी योग्यताओं व विशेषताओं के बावजूद, अपने उस क़ानूनी अधिकार को अनदेखा कर दिया, जिनकी ओर पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने कई बार इशारा किया था, और जानते हुए उन्होंने एसे रास्ता का चयन किया जो उनके तथा उनके परिवार के लिए घाटे का कारण बना। ऐसे सख़्त हालात में हज़रत अली अलैहिस्सलाम की महान सीरत ज़्यादा स्पष्ट हुई। ऐसी स्थिति में बहुत से लोग जिनकी नियत ठीक नहीं थी हज़रत अली को अपने वैध अधिकारों के लिए जंग करने पर प्रेरित कर रहे थे। एसे में अबूलहब के एक बेटे ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम की प्रशंसा और उनके विरोधियों की निंदा में कविता पढ़ना शुरू की जो एक तरह से लोगों को उकसाने की चाल थी। इस परिस्थिति को देखकर हज़रत अली ने कहा था कि मेरे लिए यह बात सबसे महत्वपूर्ण है कि इस्लाम के आधार सुरक्षित रहें।
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