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Monday 25th of November 2024
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क़ुरबानी का फ़लसफ़ा और उसके प्रभाव

सारी उम्मतों के लिये क़ुरबानी को जाएज़ करने का मक़सद यह था कि वह केवल अल्लाह तआला (जो एक है और उसका कोई सहयोगी नहीं है) के सामने सर झुकाएं और जो कुछ वह हुक्म दे उसी पर अमल करें दूसरे शब्दों में यह कहा जाए कि क़ुरबानी के क़ानून को लागू करने की एक वजह उबूदियत (दासता और आज्ञाकारिता), ईमान और उसके सामने सर झुकाने को आज़माना है।
क़ुरबानी का फ़लसफ़ा और उसके प्रभाव

 सारी उम्मतों के लिये क़ुरबानी को जाएज़ करने का मक़सद यह था कि वह केवल अल्लाह तआला (जो एक है और उसका कोई सहयोगी नहीं है) के सामने सर झुकाएं और जो कुछ वह हुक्म दे उसी पर अमल करें दूसरे शब्दों में यह कहा जाए कि क़ुरबानी के क़ानून को लागू करने की एक वजह उबूदियत (दासता और आज्ञाकारिता), ईमान और उसके सामने सर झुकाने को आज़माना है।


विलायत पोर्टलः सारी उम्मतों के लिये क़ुरबानी को जाएज़ करने का मक़सद यह था कि वह केवल अल्लाह तआला (जो एक है और उसका कोई सहयोगी नहीं है) के सामने सर झुकाएं और जो कुछ वह हुक्म दे उसी पर अमल करें दूसरे शब्दों में यह कहा जाए कि क़ुरबानी के क़ानून को लागू करने की एक वजह उबूदियत (दासता और आज्ञाकारिता), ईमान और उसके सामने सर झुकाने को आज़माना है। हज इस्लाम का एक रुक्न (स्तम्भ) है इसी वजह से इबादत और समाज में उसका रोल और उस पर अमल बहुत ज़्यादा है, समाजी और दुनियावी मुद्दों में हज का रोल इतना अधिक महत्वपूर्ण और प्रभावी है, जैसे आंतरिक सुधार में इबादत का रोल बहुत ज़्यादा प्रभावी है। हज के मनासिक (आमाल) बहुत अधिक हैं जिनमें से एक क़ुरबानी है, जैसा कि क़ुरबानी के नाम से मालूम होता है कि क़ुरबानी, अल्लाह तआला से नज़दीक होने और निकटता हासिल करने के लिये की जाती है। इस लेख में क़ुरबानी के बारे में क़ुरआने करीम की शिक्षाओं को बयान किया गया है ताकि क़ुरबानी के फ़लसफ़े और प्रभाव को क़ुरआन की रौशनी में बयान किया जा सके। अरबी ज़बान में क़ुरबानी को, अज़ीहा कहते हैं, इसलिए दसवीं ज़िलहिज्जा को जिसमें क़ुरबानी की जाती है, ईदुल अज़हा के नाम से याद किया जाता है, फ़िक़ही (धर्मशास्त्र) परिभाषा में क़ुरबानी उस जानवर को कहते हैं जिसको ईदुल अज़हा (बक़रीद के दिन) या बारहवीं या तेरहवीं ज़िलहिज्जा तक मुस्तहेब या वाजिब होने के हिसाब से ज़िबह या नह्र करते हैं। अगरचे कुछ उल्मा नें क़ुरबानी के मानी में मुस्तहेब होने की क़ैद को भी बयान किया है, ताकि वाजिब क़ुरबानी को शामिल न हो सके। क़ुरआनी इस्तेमाल में जब क़ुरबानी की बात आती है तो उसके अर्थ उस अर्थ से बहुत ज़्यादा व्यापक हो जाते हैं जो अर्थ हमने बयान किये हैं और उससे मुराद हर वह जानवर है जो वाजिब या मुस्तहेब होने की सूरत में हर ज़माने में ज़िबह किया जाता है, उसी तरह हज के ज़माने, मिना और दूसरे दिनों में अल्लाह की मर्ज़ी और अल्लाह तआला से निकटता हासिल करने के लिये जो जानवर ज़िबह किया जाता है वह सब इस तारीफ़ (परिभाषा) में शामिल हैं। क़ुरआने करीम में इन सारे अर्थों को बदन, बहीमतुल अनाम, क़लाएद, मनासिक, हुदा और नहर जैसे शब्दों में बयान किया गया हैं। क़ुरबानी का अतीत अल्लाह तआला नें हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के बेटों के क़िस्से में क़ुरबानी की तरफ़ इशारा किया है और इस क़िस्से से हमें बहुत से इबरत आमेज़, फ़ायदे मंद सबक़ हासिल होते हैं और पैग़म्बर अ. आप उनको आदम अ. के दोनों बेटों का सच्चा क़िस्सा पढ़ कर सुनाइये कि जब दोनों नें क़ुरबानी दी और एक की क़ुरबानी क़ुबूल हो गई और दूसरे की नहीं हुई तो उसनें कहा कि मैं तुझे क़त्ल कर दूँगा तो दूसरे नें जवाब दिया कि मेरा क्या दोष है अल्लाह केवल सदाचारियों के आमाल को क़ुबूल करता है।
 وَ اتْلُ عَلَيْهِمْ نَبَأَ ابْنَيْ آدَمَ بِالْحَقِّ إِذْ قَرَّبا قُرْباناً فَتُقُبِّلَ مِنْ أَحَدِهِما وَ لَمْ يُتَقَبَّلْ مِنَ الْآخَرِ قالَ لَأَقْتُلَنَّکَ قالَ إِنَّما يَتَقَبَّلُ اللَّهُ مِنَ الْمُتَّقينَ (सूरए माएदा आयत 27)
अल्लाह तआला नें पैग़म्बर को हुक्म दिया कि इस क़िस्से को सही तौर पर नक़्ल करें, इस क़िस्से में बयान हुआ है कि हज़रत आदम अ. के बेटों नें अल्लाह तआला से नज़दीक होने के लिये उसकी बारगाह में क़ुरबानी पेश की। इस क़िस्से से मालूम होता है कि यह घटना घटित हुई है और हज़रत आदम अ. के बेटों की क़ुरबानी कोई अफ़साना नहीं है। हज़रत आदम के बेटों के क़ुरबानी करने का क़िस्सा पूरी इंसानी हिस्टरी में पहला क़िस्सा है, इस वजह से अल्लाह तआला नें इस आयत और दूसरी आयत में उसको बयान किया है, क़िस्से में बयान हुआ है कि क़ुरबानी करने के बाद उन दोनों क़ुरबानियों में से एक क़ुरबानी क़ुबूल हुई और दूसरी क़ुबूल नहीं हुई है कि जिसकी क़ुरबानी क़ुबूल हुई वह हाबील थे और जिसकी क़ुरबानी क़ुबूल नहीं हुई वह क़ाबील थे। अल्लाह तआला नें क़ाबील की क़ुरबानी के क़ुबूल न होने की वजह यह बयान की है कि क़ाबील ग़लत इंसान था और वह सदाचारी नहीं था, जैसा कि हाबील की क़ुरबानी के कुबूल होने की वजह उनका तक़वा व सदाचार था। क़ुरबानी के क़ुबूल होने और रद्द होने के बाद इंसानी हिस्टरी में सबसे पहली जंग घटित हुई और क़ाबील नें अपने भाई को धमकी दी कि मैं तुम्हे क़त्ल कर दूँगा, आख़िर कार तक़वा और सदाचार न होने तथा कामवासनाओं के बंदी होने की वजह से उसनें अपनें भाई को क़त्ल कर दिया, फिर उसके नफ़्स नें उसे भाई के क़त्ल पर आमादा कर दिया और उसनें उसे क़त्ल कर दिया और वह घाटा उठाने वालों में शामिल हो गया।
 فَطَوَّعَتْ لَهُ نَفْسُهُ قَتْلَ أَخيهِ فَقَتَلَهُ فَأَصْبَحَ مِنَ الْخاسِرينَ (सूरए माएदा, आयत 30)
अगरचे क़ुरबानी करना हज़रत आदम अ. के बेटों से शुरू हुआ लेकिन उन पर ख़त्म न हुआ, क्योंकि क़ुरआने करीम के बयान से मालूम होता है कि सारी उम्मतों में क़ुरबानी करने को शरीयत के क़ानून और आमाल में गिना जाता था और वह इसको अंजाम देते थे, मिसाल के तौर पर यह आयत जिनको पिछली उम्मतों में आमाल के तौर पर अंजाम दिया जाता था, क़ुरआने करीम नें सूरए हज की 34वीं और 67वीं आयत में बयान किया है और हमनें हर क़ौम के लिये क़ुरबानी का तरीक़ा निर्धारित कर दिया है ताकि जिन जानवरों का रिज़्क़ (आहार) हमनें अता किया है उन पर नामे ख़ुदा का ज़िक्र करें फिर तुम्हारा ख़ुदा केवल ख़ुदाए वाहिद (एक) है तो उसी का आज्ञापालन करो और हमारे गिड़गिड़ाने वाले बंदों को बशारत दे दो। وَ لِکُلِّ أُمَّةٍ جَعَلْنا مَنْسَکاً لِيَذْکُرُوا اسْمَ اللَّهِ عَلى‌ ما رَزَقَهُمْ مِنْ بَهيمَةِ الْأَنْعامِ فَإِلهُکُمْ إِلهٌ واحِدٌ فَلَهُ أَسْلِمُوا وَ بَشِّرِ الْمُخْبِتينَ (सूरए हज, आयत 34)
और हर उम्मत के लिये एक इबादत का तरीक़ा है जिस पर वह अमल कर रही है इसलिए इस बात में उन लोगों को आपसे झगड़ा नहीं करना चाहिये और आप उन्हे अपने पालनहार की तरफ़ बुलाएं कि आप बिल्कुल सीधी हिदायत के रास्ते पर हैं। لِکُلِّ أُمَّةٍ جَعَلْنا مَنْسَکاً هُمْ ناسِکُوهُ فَلا يُنازِعُنَّکَ فِي الْأَمْرِ وَ ادْعُ إِلى‌ رَبِّکَ إِنَّکَ لَعَلى‌ هُدىً مُسْتَقيمٍ (सूरे हज, आयत 67)
जैसा कि मुफ़स्सेरीन (टीकाकारों) नें कहा है कि इन आयतों में, मनसक से मुराद क़ुरबानी है। (मजमउल बयान) 34वीं आयत भी इसी अर्थ को बयान करती है कि जानवरों की क़ुरबानी का चलन पिछली उम्मतों में भी था और हज में क़ुरबानी की शर्तों में गिनी जाती थी। क़ुरआने करीम के अनुसार कुछ क़ौमें अपने बच्चों को ज़िब्ह और क़ुरबान किया करते थे और हज़रत इब्राहीम अ. इस अमल को मंसूख़ (अप्रचलित) करने के लिये अपने बेटे इस्माईल अ. को ज़िब्ह करने के लिये बढ़े और फिर हज़रत इस्माईल के बजाए दुम्बे (भेड़) को ज़िब्ह कर देते हैं, “फिर जब वह जब बेटों के साथ दौड़ धूप करने के योग्य हो गया तो उन्होंनें कहा कि बेटा मैं सपने में देख रहा हूँ कि मैं तुम्हे ज़िब्ह कर रहा हूँ अब तुम बताओ कि तुम्हारा क्या ख़्याल है? बेटे नें जवाब दिया कि बाबा (पिता) जो आपको हुक्म दिया जा रहा है उस पर अमल करें इन्शाल्लाह आप मुझे सब्र करने वालों में से पाएंगे, फिर जब दोनों नें (अल्लाह के हुक्म के आगे) सर झुका दिए और बाप नें बेटे को माथे के बल लिटा दिया और हमनें आवाज़ दी कि ऐ इब्राहीम अ. तुमनें अपना सपना सच कर दिखाया हम इसी तरह अच्छे काम करने वालों को इनाम देते हैं, बेशक यह बहुत खुला हुआ इम्तेहान है और हमनें इसका बदला एक महान क़ुरबानी को क़रार दे दिया है। अगरचे हज़रत इब्राहीम नें पूरी तरह से इस रस्म को बदलने के लिये पहले अल्लाह तआला से हुक्म हासिल किया ताकि अपने बेटे इस्माईल को ज़िब्ह करें (सूरए साफ़ात, आयत 101, 102) और हज़रत इस्माईल ने भी क़ुरबानी के हुक्म में मंज़ूरी दे दी और अपनी मंज़ूरी का ऐलान किया। और यहाँ तक कि हज़रत इस्माईल अ. नें क़ुरबान होने के लिये अपनी पेशानी को ज़मीन पर रख दिया।
 فَلَمَّا بَلَغَ مَعَهُ السَّعْيَ قالَ يا بُنَيَّ إِنِّي أَرى‌ فِي الْمَنامِ أَنِّي أَذْبَحُکَ فَانْظُرْ ما ذا تَرى‌ قالَ يا أَبَتِ افْعَلْ ما تُؤْمَرُ سَتَجِدُني‌ إِنْ شاءَ اللَّهُ مِنَ الصَّابِرينَ102فَلَمَّا أَسْلَما وَ تَلَّهُ لِلْجَبينِ103وَ نادَيْناهُ أَنْ يا إِبْراهيمُ104قَدْ صَدَّقْتَ الرُّؤْيا إِنَّا کَذلِکَ نَجْزِي الْمُحْسِنينَ105 (सूरए साफ़ात, आयत 102 से 105)
इसलिए हज़रत इब्राहीम अ. और हज़रत इस्माईल अ. के ईमान व ख़ुलूस (प्यूरिटी) के ज़ाहिर होने के बाद अल्लाह तआला नें हज़रत इस्माईल की जगह दुम्बा (भेड़) भेज दिया। क़ुरआने करीम हमें बताता है कि हज़रत इब्राहीम अ. के बाद जाहेलीयत के ज़माने में भी क़ुरबानी प्रचलित थी और यह लोग अपनी क़ुरबानियों को बुतों के सामनें पेश किया करते थे। (सूरा-ए-हज आयत नं 40) जबकि हज़रत इब्राहीम अ. नें हज के आमाल में जो क़ुरबानी की थी वह अल्लाह तआला के लिये थी “और उस वक़्त को याद दिलायें कि जब हमनें इब्राहीम अ. के लिये बैतुल्लाह की जगह मोहय्या की कि ख़बरदार हमारे बारे में किसी तरह का शिर्क न होने पाये और तुम हमारे घर को तवाफ़ करने वाले, क़याम करने वाले और रुकू व सजदा करने वालों के लिये पाक व पाकीज़ा बना दो और लोगों के बीच हज का एलान कर दो कि लोग तुम्हारी तरफ़ पैदल और कमज़ोर सवारियों पर दूर दूर के इलाक़ों से सवार हो कर आएंगे, ताकि अपने हितों को देखें और कुछ निर्धारित दिनों में उन चौपायों पर जो अल्लाह तआला नें रिज्क़ के तौर पर उन्हें दिये हैं, ख़ुदा का नाम लें और फिर तुम उसमें से खाओ और भूखे मोहताज अफ़राद को खिलाओ।
 وَ إِذْ بَوَّأْنا لِإِبْراهيمَ مَکانَ الْبَيْتِ أَنْ لا تُشْرِکْ بي‌ شَيْئاً وَ طَهِّرْ بَيْتِيَ لِلطَّائِفينَ وَ الْقائِمينَ وَ الرُّکَّعِ السُّجُودِ26وَ أَذِّنْ فِي النَّاسِ بِالْحَجِّ يَأْتُوکَ رِجالاً وَ عَلى‌ کُلِّ ضامِرٍ يَأْتينَ مِنْ کُلِّ فَجٍّ عَميقٍ27لِيَشْهَدُوا مَنافِعَ لَهُمْ وَ يَذْکُرُوا اسْمَ اللَّهِ في‌ أَيَّامٍ مَعْلُوماتٍ عَلى‌ ما رَزَقَهُمْ مِنْ بَهيمَةِ الْأَنْعامِ فَکُلُوا مِنْها وَ أَطْعِمُوا الْبائِسَ الْفَقيرَ28 (सूरए हज, आयत 26 से 28)
जाहेलियत और सद्रे इस्लाम (इस्लाम के आरम्भिक दिनों में) में क़ुरबानी के जानवर के गले में एक निशानी डालते थे जो उस ज़माने की रस्म थी। ईमान वालों! ख़बरदार अल्लाह तआला की निशानियों के सम्मान को नष्ट न करना और मोहतरम (सम्मानित) महीनों, क़ुरबानी के जानवरों और जिन जानवरों के गले में पट्टे बाँध दिये गये हैं और जो लोग अल्लाह के घर का इरादा करने वाले हैं और अल्लाह की मर्ज़ी के तलबगार हैं उनके सम्मान की अनदेखी न करना।
 يا أَيُّهَا الَّذينَ آمَنُوا لا تُحِلُّوا شَعائِرَ اللَّهِ وَ لاَ الشَّهْرَ الْحَرامَ وَ لاَ الْهَدْيَ وَ لاَ الْقَلائِدَ وَ لاَ آمِّينَ الْبَيْتَ الْحَرامَ يَبْتَغُونَ فَضْلاً مِنْ رَبِّهِمْ وَ رِضْواناً وَ إِذا حَلَلْتُمْ فَاصْطادُوا وَ لا يَجْرِمَنَّکُمْ شَنَآنُ قَوْمٍ أَنْ صَدُّوکُمْ عَنِ الْمَسْجِدِ الْحَرامِ أَنْ تَعْتَدُوا وَ تَعاوَنُوا عَلَى الْبِرِّ وَ التَّقْوى‌ وَ لا تَعاوَنُوا عَلَى الْإِثْمِ وَ الْعُدْوانِ وَ اتَّقُوا اللَّهَ إِنَّ اللَّهَ شَديدُ الْعِقابِ (सूरए माएदा, आयत 2 व 87)
इस तरह अपनी क़ुरबानी पर निशानी लगाते थे ताकि दूसरों को मालूम हो जाए। उनकी समाजी ज़िंदगी में इस अमल का रोल इस हद तक ज़्यादा था कि जिस जानवर के गले में क़ुरबानी की निशानी होती थी उसका बहुत ज़्यादा सम्मान करते थे और अपने आप को इस बात की इजाज़त नहीं देते थे कि उस जानवर का अपमान करें। (सूरए माएदा, आयत 2) और यह कठोरता इस हद तक थी कि जिस जानवर के गले में क़ुरबानी की निशानी डाल देते थे उस जानवर को अपने फ़ायदों के लिये इस्तेमाल नहीं करते थे, तुम्हारे लिये इन क़ुरबानी के जानवरों में एक निर्धारित अवधि तक फ़ायदे ही फ़ायदे हैं उसके बाद उनकी जगह ख़ानए काबा के पास है और हमनें हर क़ौम के लिये क़ुरबानी का तरीक़ा निर्धारितर कर दिया है ताकि जिन जानवरों का रिज़्क़ हमनें अता किया है उन पर नामें ख़ुदा का ज़िक्र करें फिर हमारा अल्ह केवल ख़ुदाए वाहिद (एक) है तुम उसी के आज्ञापालक बनों और हमारे गिड़गिड़ाने वाले बंदों को बशारत दे दो।
 ذلِکَ وَ مَنْ يُعَظِّمْ شَعائِرَ اللَّهِ فَإِنَّها مِنْ تَقْوَى الْقُلُوبِ32لَکُمْ فيها مَنافِعُ إِلى‌ أَجَلٍ مُسَمًّى ثُمَّ مَحِلُّها إِلَى الْبَيْتِ الْعَتيقِ (सूरे हज, आयत 32 व 33)
अगरचे पैग़म्बरे अकरम स. की बेअसत के बाद यह पाबंदी ख़त्म हो गई और अल्लाह तआला नें क़ुरबानी के लिये निर्धारित जानवरों से ज़िब्ह के वक़्त तक लाभांवित होने की इजाज़त दे दी।
 وَ أَذِّنْ فِي النَّاسِ بِالْحَجِّ يَأْتُوکَ رِجالاً وَ عَلى‌ کُلِّ ضامِرٍ يَأْتينَ مِنْ کُلِّ فَجٍّ عَميقٍ27لِيَشْهَدُوا مَنافِعَ لَهُمْ وَ يَذْکُرُوا اسْمَ اللَّهِ في‌ أَيَّامٍ مَعْلُوماتٍ عَلى‌ ما رَزَقَهُمْ مِنْ بَهيمَةِ الْأَنْعامِ فَکُلُوا مِنْها وَ أَطْعِمُوا الْبائِسَ الْفَقيرَ28ثُمَّ لْيَقْضُوا تَفَثَهُمْ وَ لْيُوفُوا نُذُورَهُمْ وَ لْيَطَّوَّفُوا بِالْبَيْتِ الْعَتيقِ29ذلِکَ وَ مَنْ يُعَظِّمْ حُرُماتِ اللَّهِ فَهُوَ خَيْرٌ لَهُ عِنْدَ رَبِّهِ وَ أُحِلَّتْ لَکُمُ الْأَنْعامُ إِلاَّ ما يُتْلى‌ عَلَيْکُمْ فَاجْتَنِبُوا الرِّجْسَ مِنَ الْأَوْثانِ وَ اجْتَنِبُوا قَوْلَ الزُّورِ30حُنَفاءَ لِلَّهِ غَيْرَ مُشْرِکينَ بِهِ وَ مَنْ يُشْرِکْ بِاللَّهِ فَکَأَنَّما خَرَّ مِنَ السَّماءِ فَتَخْطَفُهُ الطَّيْرُ أَوْ تَهْوي بِهِ الرِّيحُ في‌ مَکانٍ سَحيقٍ31ذلِکَ وَ مَنْ يُعَظِّمْ شَعائِرَ اللَّهِ فَإِنَّها مِنْ تَقْوَى الْقُلُوبِ (सूरए हज, आयत 27 से 32)
इस आधार पर हाजियों को क़ुरबानी के लिये निर्धारित जानवरों से सामान उठाने, उन पर सवार होने और उनका दूध इस्तेमाल करने की इजाज़त मिल गई। (पिछला हवाला) अलबत्ता उनसे फ़ायदा उठाने का मतलब यह नहीं थे कि उनका अपमान किया जाए बल्कि निर्धारित जानवरों का सम्मान क़ुरबानी के वक़्त तक करना ज़रूरी था। (सूरए हज, आयत 32 से 34, सूरए माएदा, आयत 2) जाहेलियत के ज़माने में कुछ दूसरे ग़लत विश्वास व विचार भी थे जैसे क़ुरबानी का गोश्त हज करने वालों के लिये हराम था जिसको अल्लाह तआला नें केवल जाएज़ (वैध) ही क़रार नहीं दिया बल्कि उसको मुस्तहब बताया है कि क़ुरबानी के गोश्त के एक हिस्से को अपने से मख़सूस कर लें और खाएं। अल्लाह तआला नें कुछ आयतों में इन्साफ़ (सूरए माएदा, आयत 3 व 90), और बुतों (सूरए इनआम, आयत 137) के लिये क़ुरबानी को ज़िब्ह करने की तरफ़ इशारा किया है और इसको ग़लत और ना जाएज़ व्यवहार के रूप में बयान किया है। यह लोग इस ग़लत और नाजाएज़ सुन्नत को अंजाम देने के लिये इस हद तक आगे बढ़ जाते थे कि अपने बच्चों को बुतों के लिये क़ुरबान कर देते थे और इस अमल को बुतों से क़रीब होना बताते थे। (अलमीज़ान, जिल्द 7, पेज 361)। बनी इस्राईल की क़ुरबानी के आमाल में यह अर्थ बयान हुए हैं कि वह अल्लाह तआला की तरफ़ से क़ुबूल क़ुरबानी की निशानी, क़ुरबानी में आग लगाना समझते थे, इस क़िस्से से मालूम होता है कि बनी इस्राईल की क़ुरबानी में ऐसा होता था।
 الَّذينَ قالُوا إِنَّ اللَّهَ عَهِدَ إِلَيْنا أَلاَّ نُؤْمِنَ لِرَسُولٍ حَتَّى يَأْتِيَنا بِقُرْبانٍ تَأْکُلُهُ النَّارُ قُلْ قَدْ جاءَکُمْ رُسُلٌ مِنْ قَبْلي‌ بِالْبَيِّناتِ وَ بِالَّذي قُلْتُمْ فَلِمَ قَتَلْتُمُوهُمْ إِنْ کُنْتُمْ صادِقينَ (सूरए आले इमरान, आयत 183)
शायद इसी वजह से ख़्याल किया किया जाता है कि जिस वक़्त हाबील की क़ुरबानी क़ुबूल हुई तो उसमें आग लग गई थी, जैसा कि कुछ रिवायतों में इस अर्थ की तरफ़ इशारा और ताकीद की गई है। शायद आसमानी आग से क़ुरबानी का जलना बनी इस्राईल के कुछ अम्बिया का मोजिज़ा (चमत्कार) रहा हो। (ज़मख़शरी, जिल्द 1 पेज 448) और रिसालत का दावा करने वाले की क़ुरबानी का आसमान की आग में जलना यहूदियों की नज़र में उसकी वास्तविकता और सच्चाई की दलील हो, इस आधार पर यहूदी क़ौम में हर क़ुरबानी के जलने को क़ुबूल नहीं किया जा सकता। आश्चर्य की बात यह है कि यही लोग जो आसमानी बिजली से क़ुरबानी के जलने को अम्बिया का चमत्कार समझते थे वही लोग अम्बिया को क़त्ल कर देते थे, क्योंकि यह लोग ज़्यादा तर शैतानी वसवसों (प्रलोभन) और नफ़सानी हवा व हवस (कामवासना) के शिकार थे और अम्बिया के चमत्कारों को क़ुबूल नहीं करते थे, इसी वजह से जब उन्होंनें पैग़म्बरे इस्लाम स. से आसमानी आग के ज़रिये क़ुरबानी के जलने की मांग की तो अल्लाह तआला नें इस ख़ास प्वाइंट पर ताकीद की कि अगर तुम उनको यह चमत्कार दिखा भी दोगे तो यह ईमान नहीं लाएंगे। (सूरए आले इमरान, आयत 183) शरीयत में क़ुरबानी के जाएज़ होने का फ़लसफ़ा जैसा कि बयान किया गया है कि तमाम उम्मतों के लिये अल्लाह तआला की तरफ़ से क़ुरबानी जाएज़ और वैध की गई थी “और हमनें हर क़ौम के लिये क़ुरबानी का तरीक़ा निर्धारित कर दिया है ताकि जिन जानवरों का रिज़्क़ हमनें अता किया है उन पर अल्लाह के नाम का जिक्र करें फिर तुम्हारा ख़ुदा केवल ख़ुदाए वाहिद है तुम उसी के आज्ञापालक बनो और हमारे गिड़गिड़ाने वाले बंदों को बशारत दे दो। (सूरए हज, आयत 34 व 76) और तमाम उम्मतों के लिये क़ुरबानी को जाएज़ करने का मक़सद यह था कि वह केवल अल्लाह वहदहू ला शरीक (जो अकेला है और उसका कोई सहयोगी नहीं है) के सामने सर झुकाए और जो कुछ वह हुक्म दे उसी पर अमल करें, दूसरे शब्दों में यह कहा जाए कि क़ुरबानी के क़ानून को लागू करने की एक वजह उबूदियत, दास्ता, ईमान और उसके सामने सर झुकाने को आज़माना है जिसको सूरए हज की 34वीं आयत में बयान किया गया है: और हमनें हर क़ौम के लिये क़ुरबानी का तरीक़ा निर्धारित कर दिया है। इसी आयत और सूरए हज की 36वीं आयत: और हमनें क़ुरबानियों के ऊँट को भी अपनी निशानियों में से क़रार दिया है इसमें तुम्हारे लिये अच्छाई है इसलिए इस पर खड़े होने की हालत ही में अल्लाह के नाम का ज़िक्र करो और उसके बाद जब उसके तमाम पहलू गिर जाएं तो उसमें से ख़ुद भी खाओ और सब्र करने वाले और मांगने वाले सब ग़रीबों को खिलाओ कि क़ुरबानी को लागू करने का एक मक़सद अल्लाह के नाम को ज़िक्र करना है, क्योंकि इस तरह के आमाल इस बात का सबब बनते हैं कि आदमी कुछ पलों के लिये अल्लाह तआला की याद में गुम हो जाए, जिसनें क़ुरबानी के हुक्म को जारी किया है। इन्ही आयात में इस अर्थ की भी ताकीद की गई है कि अल्लाह तआला की तरफ़ से केवल एक क़ुरबानी है और वह क़ुरबानी केवल ख़ुदाए वहदहू ला शरीक के लिये है, जबकि मुशरेकों का दावा था कि दूसरे आमाल और जानवर भी हैं, इन्ही में से एक क़ुरबानी बुतों के लिये है ख़ुदा से निकटता हासिल करने के लिये अंजाम दी जाती है, अल्लाह तआला नें उनके इस कथन का जवाब सूरए हज की 34वीं आयत में दिया है। ज़िब्ह के अहकाम अल्लाह तआला नें ज़िब्ह और क़ुरबानी के अहकाम बयान किये हैं, उनमें से कुछ अहकाम निम्नलिखित हैं।
 1. ज़िब्ह या नह्र करते वक़्त अल्लाह तआला के असमाए हुस्ना में से कोई एक नाम लिया जाए।
 لِیَشْہَدُوا مَنافِعَ لَہُمْ وَ یَذْکُرُوا اسْمَ اللَّہِ فی اٴَیَّامٍ مَعْلُوماتٍ عَلی ما رَزَقَہُمْ مِنْ بَہیمَةِ الْاٴَنْعامِ فَکُلُوا مِنْہا وَ اٴَطْعِمُوا الْبائِسَ الْفَقیرَ“
ताकि अपने लाभ का अवलोकन करें और कुछ निर्धारित दिनों में उन चौपायों पर जो ख़ुदा नें बतौर रिज़्क़ अता किये हैं ख़ुदा का नाम लें और फिर तुम उसमें से खाओ और भूखे मोहताज लोगों को खिलाओ।
2. क़ुरबानी करते समय हर तरह के शिर्क से बचा जाए
 ”وَ اٴَذِّنْ فِی النَّاسِ بِالْحَجِّ یَاٴْتُوکَ رِجالاً وَ عَلی کُلِّ ضامِرٍ یَاٴْتینَ مِنْ کُلِّ فَجٍّ عَمیقٍ ، لِیَشْہَدُوا مَنافِعَ لَہُمْ وَ یَذْکُرُوا اسْمَ اللَّہِ فی اٴَیَّامٍ مَعْلُوماتٍ عَلی ما رَزَقَہُمْ مِنْ بَہیمَةِ الْاٴَنْعامِ فَکُلُوا مِنْہا وَ اٴَطْعِمُوا الْبائِسَ الْفَقیرَ ، ثُمَّ لْیَقْضُوا تَفَثَہُمْ وَ لْیُوفُوا نُذُورَہُمْ وَ لْیَطَّوَّفُوا بِالْبَیْتِ الْعَتیقِ ، ذلِکَ وَ مَنْ یُعَظِّمْ حُرُماتِ اللَّہِ فَہُوَ خَیْرٌ لَہُ عِنْدَ رَبِّہِ وَ اٴُحِلَّتْ لَکُمُ الْاٴَنْعامُ إِلاَّ ما یُتْلی عَلَیْکُمْ فَاجْتَنِبُوا الرِّجْسَ مِنَ الْاٴَوْثانِ وَ اجْتَنِبُوا قَوْلَ الزُّورِ ، حُنَفاء َ لِلَّہِ غَیْرَ مُشْرِکینَ بِہِ وَ مَنْ یُشْرِکْ بِاللَّہِ فَکَاٴَنَّما خَرَّ مِنَ السَّماء ِ فَتَخْطَفُہُ الطَّیْرُ اٴَوْ تَہْوی بِہِ الرِّیحُ فی مَکانٍ سَحیقٍ “
۔ 3.क़ुरबानी करते समय अल्लाह तआला के आदर व सम्मान के लिये अल्लाहो अकबर कहना
لِتُکَبِّرُوا اللَّہَ عَلی ما ہَداکُم“۔
ख़ुदा की दी हुई हिदायत पर उसकी किबरियाई (बड़ाई) का ऐलान करो और अच्छे काम करने वालों को बशारत दे दो।
4. शिर्क के तरीक़े पर जो जानवर ज़िब्ह किये गये हैं उनके खाने को हराम क़रार दिया गया है। क़ुरआने करीम की नज़र में केवल वह क़ुरबानी स्वीकार योग्य है जो केवल अल्लाह तआला के लिये की गई हो और उस इंसान नें केवल अल्लाह तआला से निकटता हासिल करने के लिये क़ुरबानी की हो। (सूरए माएदा, आयत 27, सूरए हज आयत 36 व 37) क़ुरबानी तीन हिस्सों में विभाजित होती है, एक हिस्सा हज करने वाले के लिये, दूसरा हिस्सा मोमिनीन के लिये और तीसरा हिस्सा फ़क़ीरों को दिया जाता है। (सूरए हज, यत 36) बेहतर है कि यह क़ुरबानी खाने की सूरत में लोगों को दी जाए और क़ुरबानी करने वाला भी उसमें से खाए। (सूरए हज, आयत 36) भैंस, भेड़ व बकरी और ऊँट की क़ुर्बानी की जा सकती है। इस आधार पर भैंस और भेड़, बकरी को ज़िब्ह किया जाता है और ऊँट को नह्र किया जाता है, हज में भेड़ की क़ुरबानी को सबसे आसान और सबसे कम गिना गया है, हज और उम्रे को अल्लाह के लिये तमाम करो अब अगर गिरफ़्तार हो जाओ तो जो क़ुरबानी सम्भव हो वह दे दो और उस वक़्त तक सर न मुँडवाओ जब तक क़ुरबानी अपनी मंज़िल तक न पहुँच जाए। अब जो तुम में से मरीज़ है या उस के सर में कोई तकलीफ़ है तो वह रोज़ा या सदक़ा या क़ुरबानी दे दे फिर जब इत्मिनान हो जाए तो जिसने उमरे से हज तमत्तोअ का इरादा किया है सम्भव क़ुरबानी दे दे और क़ुरबानी न मिल सके तो तीन रोज़े हज के दौरान और सात वापस आने के बाद रखे कि इस तरह दस पूरे हो जाएं। यह हज तमत्तोअ और क़ुरबानी उन लोगों के लिये है। क़ुरबानी इस्लाम में हर अमल के लिये मुस्तहब है जैसे बच्चों का अक़ीक़ा, घर की ख़रीदारी और सफ़र पर जाने के लिये ज़्यादा ताकीद की गई है और हज के ज़माने में मुस्तहब है कि अगर इन्सान लोन ले कर भी क़ुर्बानी कर सकता हो तो क़ुर्बानी करे। अइममए मासूमीन अ. की हदीसों में मिलता है कि अगर किसी के पास क़ुर्बानी करने के लिये पैसा न हो तो वह क़र्ज़ा ले कर क़ुरबानी करे और इस सुन्नत को अंजाम दे। इमाम अली अ. नें फ़रमाया: अगर लोगों को मालूम होता कि क़ुरबानी में कितने लाभ हैं तो वह क़र्ज़ा ले कर क़ुरबानी करते। क़ुरबानी की जो पहली बूंद ज़मीन पर गिरती है उस पहली बूंद की वजह से इन्सान को क्षमा दिया जाता है। (वसाएलुश् शिया, जिल्द 14 पेज 210) ईदे क़ुरबान के दिन क़ुर्बानी की फ़ज़ीलत और श्रेष्ठता के बारे में मिलता है: इस दिन के बेहतरीन कामों में से एक क़ुर्बानी है जिसको अंजाम देने में बंदगी के क़ानूनों और अदब की रिआयत करना चाहिये .... याद रहे कि इस दिन क़ुरबानी न करना और अल्लाह की राह में थोड़ा सा माल निछावर न करना घाटे और नुक़सान के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। क़ुरबानी की बरकतें पिछली बातों में क़ुर्बानी के कुछ आसार और बरकतें बयान हुई हैं लेकिन याद रहे कि क़ुर्बानी की और दूसरी बरकतें भी हैं जिसमें से कुछ बरकतें निम्नलिखित हैं। 1. अल्लाह तआला की रहमते वासेआ (कृपादृष्टि) जिसको सूरए माएदा की 96वीं और 98वीं आयतों में बयान किया गया है, हमारे लिये दरयाई जानवर का शिकार करना और उसका खाना हलाल कर दिया गया है कि तुम्हारे लिये और क़ाफ़िलों के लिये फ़ायदे का ज़रिया है और तुम्हारे लिये ख़ुश्की का शिकार हराम कर दिया गया है जब तक एहराम की स्थिति में रहो और उस ख़ुदा से डरते रहो जिसकी बारगाह में उपस्थिति होना है, अल्लाह नें काबे को जो बैतुल हराम है और मोहतरम (सम्मानित) महीने को और क़ुर्बानी के आम जानवरों को और जिन जानवरों के गले में पट्टा डाल दिया गया है सबको लोगों के क़याम व सलाह का ज़रिया क़रार दिया है ताकि तुम्हे यह मालूम रहे कि अल्लाह ज़मीन व आसमान की हर चीज़ से अवज्ञत है और ब्रहमाण्ड की हर चीज़ का जानने वाला है। (सूरए माएदा, आयत 96,97) 2. अच्छे काम और एहसान करने वालों में शामिल होना: ख़ुदा की दी हुई हिदायत पर उसकी किबरियाई का एलान करो और अच्छे काम करने वालों को बशारत दे दो। (सूरए हज, आयत 37) 3. अल्लाह की कृपा से लाभ उठाना: ” اٴُحِلَّ لَکُمْ صَیْدُ الْبَحْرِ وَ طَعامُہُ مَتاعاً لَکُمْ وَ لِلسَّیَّارَةِ وَ حُرِّمَ عَلَیْکُمْ صَیْدُ الْبَرِّ ما دُمْتُمْ حُرُماً وَ اتَّقُوا اللَّہَ الَّذی إِلَیْہِ تُحْشَرُون“ ۔ (سورہ مائدہ ، آیت ۹۷) अल्लाह तआला नें क़ुर्बानी को समाज की एकता और गठबंधन के उनवान से पेश किया है ताकि उम्मतों और क़ौमों के बीच एकता व गठबंधन हो जाए और समाज के मिम्बर्स मुख्तलिफ़ रूपों में एक दूसरे से जुड़ जाएं। ख़ास कर तमाम लोग इस क़ुर्बानी से लाभ उठाएं और उसका गोश्त खाएं और उसके द्वारा उम्मतों और क़ौमों में प्यार व मोहब्बत ज़्यादा हो जाये।


source : wilayat.in
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