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Friday 29th of November 2024
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हज़रत इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम की जिंदगी

आपका पाक नाम मोहम्मद, अबू जाफर कुन्नियत (उपाधि) और तक़ी अलैहिस्सलाम और जवाद अलैहिस्सलाम दोनों मशहूर उपनाम थे इसलिए आपको इमाम मुहम्मद तकी अलैहिस्सलाम के नाम से याद किया जाता है. चूंकि आप से पहले इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम की कुन्नीयत अबू जाफर चुकी थी इसलिए किताबों में आपको अबू जाफर सानी (दूसरा) और दूसरे उपनामों को सामने रख कर हज़रत जवाद भी कहा जाता है।
हज़रत इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम की जिंदगी

 आपका पाक नाम मोहम्मद, अबू जाफर कुन्नियत (उपाधि) और तक़ी अलैहिस्सलाम और जवाद अलैहिस्सलाम दोनों मशहूर उपनाम थे इसलिए आपको इमाम मुहम्मद तकी अलैहिस्सलाम के नाम से याद किया जाता है. चूंकि आप से पहले इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम की कुन्नीयत अबू जाफर चुकी थी इसलिए किताबों में आपको अबू जाफर सानी (दूसरा) और दूसरे उपनामों को सामने रख कर हज़रत जवाद भी कहा जाता है।

नवें इमाम और इस्मत (अल्लाह तआला की ओर से प्रमाणित निर्दोषिता) के ग्यारहवें चमकते सितारे हज़रत इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम 29 ज़ीकादह सन 220 हिजरी क़मरी को उस समय की हुकूमत के ज़ुल्म व अत्याचार के नतीजे में शहीद हो गए और इमामत की गंभीर जिम्मेदारी आपके बेटे हज़रत इमाम अली नकी अलैहिस्सलाम के कंधों पर आ गई।

आपका पाक नाम मोहम्मद, अबू जाफर कुन्नियत (उपाधि) और तक़ी अलैहिस्सलाम और जवाद अलैहिस्सलाम दोनों मशहूर उपनाम थे इसलिए आपको इमाम मुहम्मद तकी अलैहिस्सलाम के नाम से याद किया जाता है. चूंकि आप से पहले इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम की कुन्नीयत अबू जाफर चुकी थी इसलिए किताबों में आपको अबू जाफर सानी (दूसरा) और दूसरे उपनामों को सामने रख कर हज़रत जवाद भी कहा जाता है। आपके वालिद (पिता) हज़रत इमाम रेज़ा (अ.) थे और मां का नाम जनाब सबीका या सकीना अलैहस्सलाम था।
हज़रत इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम को बचपन ही में पीड़ा और परेशानियों का सामना करने के लिए तैयार हो जाना पड़ा। आपको बहुत कम ही कम समय के लिए संतुष्टि और आराम के क्षणों में बाप के प्यार, मोहब्बत और प्रशिक्षण के साए में जीने का अवसर मिला। आपका केवल पांचवां साल था, जब हज़रत इमाम रेज़ा (अ) मदीने से ख़ुरासान का सफ़र करने पर मजबूर हुए तो फिर आपको ज़िंदगी में मुलाकात का मौका नहीं मिला। इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम से अलग होने के तीसरे साल इमाम रेज़ा (अ) की शहादत हो गई।
दुनिया समझती होगी कि इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के लिए इल्म की बुलंदियों तक पहुंचने का कोई साधन नहीं रहा इसलिए अब इमाम जाफर सादिक (अ) की इल्मी मसनद (सिंघहासन) शायद खाली नज़र आए मगर लोगों की हैरत व आश्चर्य की कोई हद नहीं रही जब बचपने में इस बच्चे को थोड़े दिन बाद मामून के बग़ल में बैठ कर बड़े बड़े उल्मा से फ़िक़्ह, हदीस तफसीर और इल्मे कलाम पर मुनाज़रे (वाद - विवाद) करते देखा और सबको उनकी बात से सहमत हो जाते भी देखा, उन सबका आश्चर्य तब तक दूर होना सम्भव नहीं था, जब तक वह भौतिक कारणों के आगे एक ख़ास इलाही शिक्षा को स्वीकार न करते, जिसको क़ुबूल किए बिना यह मुद्दा न हल हुआ और न कभी हल हो सकता है।
जब इमाम रज़ा (अ) को मामून ने अपना उत्तराधिकारी (वली अहेद) बनाया और सियासत की मांग यह हुई कि बनी अब्बास को छोड़कर बनी फ़ातिमी से संपर्क स्थापित किए जाएँ और इस तरह अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम के शियों को अपनी ओर आकर्षित किया जाए तो उसने ज़रूरत महसूस की कि प्यार व एकता एंव गठबंधन के प्रदर्शन के लिए उस पुराने रिश्ते के अलावा जो हाशमी परिवार से होने की वजह से है, कुछ नये रिश्तों की बुनियाद भी डाल दी जाए इसलिए उस प्रोग्राम में जहां विलायत अहदी (उत्तराधिकार) की रस्म अदा की गई. उसने अपनी बहन उम्मे हबीबा का निकाह इमाम रेज़ा (अ) के साथ पढ़ दिया और अपनी बेटी उम्मे फ़ज़्ल से इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम की मंगनी का ऐलान कर दिया।
शायद उसका ख्याल था कि इस तरह इमाम रेज़ा (अ) बिल्कुल अपने बनाए जा सकते हैं लेकिन जब उसने महसूस किया कि यह अपनी उन ज़िम्मेदारियों को छ़ोड़ने के लिए तैयार नहीं है जो रसूल के वारिस होने के आधार पर उनके लिए है, और वह उसे किसी भी कीमत पर छोड़ने के लिए तैयार नहीं हो सकते इस लिए उसने सोचा कि अब्बासी हुकूमत के साथ उन सिद्धांतों पर कायम रहना, मदीने के बनी हाशिम मुहल्ले में अकेले में जिंदगी बिताने से कहीं अधिक ख़तरनाक है।
तो उसे अपने हित और हुकूमत की रक्षा लिए इसकी जरूरत महसूस हुई कि जहर देकर हज़रत इमाम रेज़ा अलैहिस्सलाम का ज़िंदगी को ख़त्म कर दे मगर वह सियासत जो उसने इमाम रेज़ा अलैहिस्सलाम को वली अहेद बनाने की थी यानी ईरानी क़ौम और शियों को अपने कब्जे में रखना वह अब भी बाकी थी इसलिए एक ओर तो इमाम रेज़ा (अ) के शहादत पर उसने बहुत ज़्यादा शोक और दुख व्यक्त किया ताकि वह अपने दामन को हज़रत (अ) के नाहक़ खून से अलग साबित कर सके और दूसरी ओर उसने अपने ऐलान को पूरा करना ज़रूरी समझा जिसमें उसने इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के साथ अपनी लड़की की मंगनी की थी, उसने इस मक़सद से इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम को मदीने से इराक़ की ओर बुलवाया, इसलिए कि इमाम रेज़ा (अ) की शहादत के बाद ख़ुरासान से अब अपने परिवार की पुरानी राजधानी बगदाद में आ चुका था और उसने संकल्प लिया कि वह उम्मे फ़ज़्ल का निकाह आपके साथ बहुत जल्दी कर दे।

बनी अब्बास को मामून की तरफ़ से इमाम रेज़ा (अ) को वली अहेद बनाया जाना ही असहनीय था इसलिए इमाम रेज़ा (अ) की शहादत से एक हद तक उन्हें संतोष मिला था और उन्होंने मामून से अपनी मर्ज़ी के अनुसार उसके भाई मोमिन की विलायत अहदी का ऐलाम भी करवा दिया जो बाद में मोतसिम बिल्लाह के नाम से खलीफा स्वीकार किया गया। इसके अलावा इमाम रेज़ा (अ) की विलायत अहदी के ज़माने में अब्बासियों का ख़ास लिबास यानी काला लिबास बदल कर हरा लिबास बन गया था उसे रद्द कर फिर काले लिबास को ज़रूरी कर दिया गया, ताकि बनी अब्बास की पुरानी परंपराओं और सुन्नतों को ज़िंदा रखा जाए।
यह बातें अब्बासियों को विश्वास दिला रही थी कि वह मामून पर पूरा कंट्रोल पा चुके हैं मगर अब मामून का यह इरादा कि इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम को अपना दामाद बनाए उन लोगों के लिए फिर चिंता की बात बन गया। इस हद तक कि वह अपने दिल की बात को मन में नहीं रख सके और एक प्रतिनिधिमंडल के रूप में मामून के पास आकर अपनी भावनाओं को ज़ाहिर कर दिया, उन्होंने साफ साफ कहा कि इमाम रेज़ा अ. के साथ जो सियासत आपने अपनाई वही हमें नापसंद थी। मगर खैर वह कम से कम अपनी उम्र और गुण और कमालात के लिहाज से सम्मान और इज़्ज़त के लाय़क़ समझे भी जा सकते थे, लेकिन उनके बेटे मुहम्मद तक़ी (अलैहिस्सलाम) अभी बिल्कुल छोटे हैं एक बच्चे को बड़े उल्मा और समझदारों पर प्राथमिकता देना और उसकी इतनी इज़्ज़त करना कभी खलीफा के लिए उचित नहीं है और उसे शोभा नहीं देता है फिर उम्मे हबीबः का निकाह जो इमाम रेज़ा (अ) के साथ किया गया था, उससे हमें क्या लाभ पहुंचा? जो अब उम्मे फ़ज़्ल का निकाह मोहम्मद इब्ने अली अलैहिस्सलाम के साथ किया जा रहा है?
मामून ने उन सभी बातों का जवाब यह दिया कि मोहम्मद अलैहिस्सलाम का बचपना जरूर हैं, लेकिन मैंने खूब अनुमान लगाया है, गुणों और कमालों में वह अपने पिता के सच्चे उत्तराधिकारी हैं और इस्लामी दुनिया के बड़े उल्मा जिनका आप हवाला दे रहे हैं, इल्म में उनका मुकाबला नहीं कर सकते। अगर तुम चाहो तो इम्तेहान लेकर देख लो। फिर तुम्हें भी मेरे फैसले से सहमत होना पड़ेगा। यह केवल उचित जवाब ही नहीं बल्कि एक तरह की चुनौती थी जिसपर न चाहते हुए भी उन्हें मुनाज़रे की दावत क़ुबूल करनी पड़ी हालांकि खुद मामून सभी बनी अब्बास बादशाहों में यह विशेषता रखता है कि इतिहासकार उसके लिए यह शब्द लिख देते हैं कि वह बड़े फ़ुक़्हा में से था। इसलिए उसका यह फैसला खुद अपनी जगह अहमियत रखता था लेकिन उन लोगों ने उस पर बस नहीं किया बल्कि बगदाद के सबसे बड़े आलिम यहया बिन अकसम को इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम से मुनाज़रे (वाद-विवाद) के लिए चुना।
मामून ने विशाल सभा इस प्रोग्राम के लिए आयोजित की और आम ऐलान करा दिया, हर इंसान इस अजीब मुक़ाबले को देखना चाह रहा था जिसमें एक तरफ एक आठ साल का बच्चा था और दूसरी ओर एक अनुभवी और शहर का जज। इसी का नतीजा था कि हर तरफ से भीड़ एकट्ठा होनी शुरू हो गई। इतिहासकारों का बयान है कि सरकारी स्टाफ़ के अलावा इस मीटिंग में नौ सौ कुर्सियाँ केवल उल्मा के लिए लगाई गई थीं और इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है इसलिए कि वह युग अब्बासी सरकार की इल्मी तरक़्क़ी और विकास का दौर था और बगदाद राजधानी थी जहां सभी ओर के विभिन्न ज्ञान और कलाओं के विशेषज्ञ जमा हो गए थे। इस तरह इस संख्या में किसी तरह का शक व संदेह मालूम नही देता।

मामून ने हज़रत इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के लिए अपने बग़ल में सिंघहासन लगवाया था और हज़रत इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के सामने यहया बिन अक़्सम के लिए बैठने की जगह थी। हर तरफ सन्नाटा ही सन्नाटा था। लोग बातचीत शुरू होने के समय की प्रतीक्षा कर रहे थे कि चुप्पी को यहया के सवाल ने तोड़ा जो उसने मामून की ओर मुड़कर कियाः हुज़ूर क्या अनुमति है कि अबू जाफर अलैहिस्सलाम से एक सवाल पूछूँ?
मामून ने कहा, तुम्हें खुद उन्हीं से अनुमति मांगनी चाहिए।
यहया इमाम अलैहिस्सलाम की ओर मुड़ा और कहने लगाः क्या आप अनुमति देते हैं कि आपसे कुछ पूछूँ?
आपने जवाब में कहाः तुम जो पूछना चाहो पूछ सकते हो।
यहया ने पूछा कि एहराम की हालत में अगर कोई शिकार करे तो क्या हुक्म है? इस सवाल से अंदाज़ा यह होता है कि यहया हज़रत इमाम मुहम्मद तक़ी अ. के इल्म की ऊंचाई से बिल्कुल भी परिचित नहीं था, वह अपने घमंड और जिहालत से यह समझता था कि यह तो बच्चे हैं, नमाज़ रोज़े के अहकाम से परिचित हों तो हों पर हज आदि के हुक्म और समले ख़ास कर एहराम में जिन चीजों को मना किया गया है उनके कफ़्फारों (जुर्माना) से भला कहां परिचित होंगे!
इमाम अलैहिस्सलाम ने उसके जवाब में इस तरह उसके सवाल से इस तरह अलग अलग कई सवाल निकाल दिए कि जिससे आपके इल्म की गहराई का यहया और सभी लोगों को अंदाज़ा हो गया, यहया खुद भी अपने को कम आंकने लगा और सारे लोग भी उसकी हार निश्चित होना महसूस करने लगा। आपने जवाब में फ़रमाया कि तुम्हारा सवाल बिल्कुल अस्पष्ट और कुल मिला कर दुविधा पूर्ण है। यह देखने की जरूरत है कि शिकार हिल में था या हरम में, शिकार करने वाला मसले से परिचित था या अनभिज्ञ और नावाक़िफ़, उसने जानबूझकर उस जानवर को मार डाला या धोखे से वह मर गया, वह इंसान आज़ाद था या गुलाम, बच्चा था या बालिग़ (वयस्क), पहली बार ऐसा किया था या पहले भी ऐसा कर चुका था? शिकार चिड़िया का था या कोई औऱ चीज़? छोटा था या बड़ा? अपने काम में लगा हुआ है या पछता रहा है? रात को या छुप कर उसने शिकार या दिन दहाड़े और खुल्लम खुल्ला? एहराम उमरे का था या हज का? जब तक यह सभी विवरण न बताए जाएं इस समस्या का एक निश्चित हुक्म नहीं बताया जा सकता है।
यहया कितना ही अयोग्य क्यों न होता बहेरहाल फ़िक़्ही समस्याओं और मसलों पर कुछ न कुछ उसकी भी नज़र थी, वह अच्छी तरह से समझ गया कि इनसे मुकाबला मेरे लिए आसान नहीं है उसके चेहरे पर हार का ऐसा असर दिखा जिसका सारे दर्शकों ने अंदाज़ा लगा लिया। उसकी ज़बान गुंग हो गई और वह कुछ जवाब नहीं दे रहा था। मामून ने हालात का सही आकलन कर उससे कुछ कहना बेकार समझा और हज़रत (अ.) से पूछा कि फिर आप ही इन सभी मसलों के हुक्म बयान फ़रमा दीजिए, ताकि सभी को फ़ायदा मिल सके। इमाम अलैहिस्सलाम ने विस्तार से सभी मामलों केजो हुक्म थे बयान कर दिएय़। यहया हक्का बक्का इमाम अलैहिस्सलाम का मुंह देख रहा था और बिल्कुल चुप था। मामून भी उसे हार के आख़री सिरे तक पहुंचा देना चा रहा था इसलिए उसने इमाम अलैहिस्सलाम से कहा कि अगर उचित समझे तो आप (अलैहिस्सलाम) भी यहया से सवाल कीजिए।

हज़रत अलैहिस्सलाम ने यहया से पूछा कि क्या मैं भी तुमसे कुछ पूछ सकता हूँ? यहया अब अपने बारे में किसी धोखे का शिकार नहीं था, अपना और इमाम अलैहिस्सलाम का दर्जा उसे खूब मालूम हो चुका था। इसलिए अब उसकी बातचीत का अंदाज़ भी बदल चुका था, उसने कहा कि हुज़ूर पूछें अगर मुझे पता होगा तो जवाब दूँगा और नहीं पता होगा तो खुद हुज़ूर से ही पता कर लूंगा। हज़रत (अ) ने सवाल कियाः जिसके जवाब में यहया ने खुले शब्दों में अपनी नाकामी को स्वीकार कर लिया और फिर इमाम ने खुद उस सवाल का जवाब दे दिया। मामून को अपनी बात के ऊपर रहने की खुशी थी, उसने लोगों की ओर मुड़ कर कहा:
देखो नहीं कहता था कि यह परिवार है जिसे अल्लाह तआला की तरफ़ से इल्म का मालिक बनाया गया है। यहां के बच्चों का कोई मुकाबला नहीं कर सकता। भीड़ में उत्साह था, सब ने एक ज़बान होकर कहा कि बेशक जो आपकी राय है, वह बिल्कुल ठीक है और निश्चित रूप से अबू जाफर मोहम्मद इबने अली अलैहिस्सलाम के समान कोई नहीं है। मामून ने इसके बाद जरा भी देरी उचित नहीं समझी और इसी सभा में इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के साथ उम्मे फ़ज़्ल का निकाह कर दिया। शादी के पहले जो ख़ुत्बा हमारे यहाँ आमतौर पढ़ा जाता है वही है जो इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम ने निकाह के अवसर पर अपनी मुबारक ज़बान पर जारी किया था। जिसे एक यादगार के रूप में शादी के अवसर पर बाकी रखा गया है मामून ने शादी की खुशी में बड़ी उदारता से काम लिया, लाखों रुपये खैर और दान में बांटे गए और सभी लोगों को इनाम और दान से मालामाल किया गया।
मदीने की तरफ़ वापसी
इमाम अ. शादी के बाद लगभग एक साल तक बगदाद में रहते रहे इसके बाद मामून ने बहुत अच्छे मैनेजमेंट के साथ उम्मे फ़ज़्ल को हज़रत (अ) के साथ विदा कर दिया और इमाम अलैहिस्सलाम मदीने में वापस चले गए।
आपका कैरेक्टर
इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम अख़लाक़, व्यवहार और नैतिकता में इंसानियत की उस ऊंचाई पर थे जो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम की याद दिलाती थी कि हर एक से झुककर मिलना. जरूरत मंदों की ज़रूरत पूरा करना, बराबरी, समानता और सादगी को हर हालत में मद्देनज़र रखना. ग़रीबों की ख़बर लेना और दोस्तों के अलावा दुश्मनों तक से अच्छा व्यवहार रखना। व.......
शहादत
बगदाद में आने के बाद लगभग एक साल तक मोतसिम ने जाहिरी तौर पर आपके साथ कोई सख्ती नहीं लेकिन आपका यहाँ रहना ही जबरन था जिसे नजरबंदी के अलावा और क्या कहा जा सकता है इसके बाद उसी हरबे से जिसे अक्सर इस परिवार के बुजुर्गों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया था, आपकी ज़िंदगी का खात्मा कर दिया गया और 29 ज़िल-कादः 220 हिजरी में ज़हर से आपकी शहादत हुई और दादा हज़रत इमाम मूसा काज़िम के पास दफन हुए।,


source : wilayat.in
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