मानव इतिहास के आरंभ से आज तक, जबकि वर्तमान समय में वैज्ञानिक तथा तकनीकी प्रगति हर क्षेत्र में दिखाई दे रही है, मनूष्य में सदा ही धर्म की ओर झुकाव देखा गया है तथा वह आध्यात्म की ओर उन्मुख रहा है। अलौकिक शक्ति से लगाव तथा उससे सम्पर्क ने सदा ही और हर स्थिति में मानव के मस्तिष्क को स्वयं में व्यस्त कर रखा है। ईश्वरीय दूतों ने सार्थक तथा प्रभावी आयामों से धर्म को स्पष्ट किया ताकि लोग अपनी प्रगति तथा विकास के लिए ईश्वरीय शिक्षाओं से लाभान्वित हो सकें। ईश्वरीय दूतों के मार्गदर्शन से लोगों के एक गुट ने सीधा मार्ग प्राप्त किया और इस बिंदु को भलि भांति समझ लिया कि ईश्वरीय धर्म ने जीवन के किसी भी क्षेत्र को अनदेखा नहीं किया है। सृष्टि को सही ढ़ंग से समझने तथा कल्याणपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए वह लोगों की सहायता करेगा। उन लोगों ने यह बात समझ ली है कि सृष्टि का रचयिता सर्वज्ञानी है और लोग उसी पर भरोसा कर सकते हैं क्योंकि वह उनकी स्थितियों से अवगत है तथा किसी में भी उससे मुक़ाबले की शक्ति नहीं है।
कहा जा सकता है कि धार्मिक प्रवृत्ति तथा आध्यात्मिक विचारधारा की जड़ें मनुष्य की प्रवृति में निहित हैं। ईश्वरीय दूतों ने मानवीय प्रशिक्षणकर्ताओं के रूप में अपनी शिक्षाओं में मनुष्य में पाए जाने वाले इस आंतरिक झुकाव की ओर विशेष ध्यान दिया है। उन्होंने लोगों का ऐसे मार्ग की ओर मार्गदर्शन किया है जो उसके कल्याण की ओर जाता है। अलबत्ता पूरे इतिहास में धर्म तथा आध्यात्म की ओर झुकाव हर स्थान पर एक जैसा नहीं रहा है। पुनर्जागरण के पश्चात पश्चिमवासियों ने धर्म तथा आध्यात्म से दूरी बनाना आरंभ कर दी। बहुत ही कम समय में इस दूरी के दुष्परिणाम दो विश्वयुद्धों की विभीषिका के रूप में सामने आए। यह भूल या ग़लती मानव के लिए बहुत हानिकारक सिद्ध हुई। इस आधार पर धर्म से दूरी के जो दुष्परिणाम मानव जाति के सामने, आए उनके और साथ ही इस मानव प्रवृत्ति में पाई जाने वाली जिज्ञासा के कारण वर्तमान समय में हम, धर्म की ओर लोगों के उन्मुख होने के साक्षी हैं। वर्तमान आधुनिक जीवन शैली किसी भी स्थिति में आध्यात्म तथा धर्म के संबन्ध में मानव की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति में अक्षम रही है। यही कारण है कि पूरे संसार में प्रतिदिन धर्म की ओर झुकाव रखने वालों की संख्या में वृद्धि हो रही है।
मानव की आत्मा की स्फूर्ति के लिए आध्यात्म एक मूलभूत आवश्यकता है। पवित्र क़ुरआन की दृष्टि से मानव में आगे की ओर बढ़ने की क्षमता पाई जाती है। यही कारण है कि धर्म में मानव के लिए एसे विशेष कार्यक्रम दृष्टिगत रखे गए हैं जो आगे बढ़ने में उसकी सहायता करते हैं। इस्लाम के पास एसा व्यापक कार्यक्रम है जिसमें मानव के लोक-परलोक दोनों से संबन्धित आयामों का ध्यान दिया गया है। इन कार्यक्रमों में से कुछ को व्यवहारिक बनाना अनिवार्य है जबकि कुछ एसे भी है जिनपर स्वेच्छा से कार्य किया जा सकता है। रोज़ा उन उपासनाओं मे से है जो अपनी कुछ शर्तों के साथ हर व्यक्ति के लिए अनिवार्य है। किंतु इसे स्वेच्छा से भी रखा जा सकता है। धार्मिक शिक्षाओं में रोज़ा रखने यहां तक कि स्वेच्छा से रोज़ा रखने की बहुत सिफ़ारिश की गई है। एक दिन पैग़म्बरे इस्लाम ने अबी अमामा नामक व्यक्ति को संबोधित करते हुए कहा कि रोज़ा रखो क्योंकि उसके बराबर कोई चीज़ नहीं है तथा कोई भी पुण्य उसके समान नहीं है।
ईश्वर रोज़े का निमंत्रण देकर मनुष्य का उच्च स्थान की ओर मार्गदर्शन कर रहा है जिससे वह इच्छाओं के बंधन से स्वतंत्र हो जाएगा। रोज़े की संस्कृति में मनुष्य बहुत सी ऐसी विभूतियों और अनुकंपाओं को कुछ समय के लिए अनदेखा करके, जिनसे रोज़े से पूर्व लाभ उठाया करता था, प्रयास करता है कि वह उन आदतों से छुटकारा पा ले जो कल्याण तथा मोक्ष के मार्ग में बाधा बनती हैं।
रोज़े का एक रोचक उपहार मन की शांति है। मन की यह शांति ऐसा बहुमूल्य अमृत है जिसे प्राप्त करने के लिए आज का मनुष्य अधिक से अधिक धन ख़र्च करने के लिए तैयार है। रोज़े में मनुष्य का मन हर प्रकार की इच्छाओं से दूर हो जाता है और वह सृष्टि के सर्वज्ञानी रचयिता की शरण में जाकर शांति का आभास करता है। इस आधार पर रोज़ा रखने वाला ईश्वरीय अनुकंपाओं तथा ईश्वर से निकट होने के आभास के दृष्टिगत आध्यात्मिक शांति से परिपूर्ण होता है। यही कारण है कि एक संक्षिप्त और आकर्षण कथन में इमाम मुहम्म बाक़िर अलैहिस्लाम फ़रमाते हैं कि, रोज़ा हृदयों की शांति का कारण है।
सामान्यतः मनुष्य आध्यात्म की ओर उन्मुख है। इसी बीच कभी धार्मिक दायित्वों के निर्वाह में विदि बाधाएं लापरवाही का कारण बनती हैं किंतु जब व्यक्ति सार्वजनिक रूप से लोगों के साथ रोज़ा रखने का सुअवसर प्राप्त करता है तो फिर स्थति थोड़ी बदली हुई होती है। एसी स्थिति में माहे रमज़ान में उसका प्रवेश एक ऐसे नगर में प्रवेश की भांति है जहां के लोग एक साथ प्रेमपूर्ण वातावरण में एक उद्देश्य की प्राप्ति में प्रयासरत हैं। यह एकता तथा समरस्ता व्यक्ति के मनोबल को सुदृढ़ करने के साथ ही दायित्वों के निर्वाह के लिए प्रेरित करती है। भूख और प्यास जैसे कुछ विषयों के दृष्टिगत जो रोज़े के साथ-साथ हैं , रोज़ा रखने में सफलता, रोज़ेदार को अन्य धार्मिक कार्यों को करने के लिए तत्पर कर सकती है। यही कारण है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने रोज़े को उपासना के नगर में प्रवेष के समान बताते हुए कहा है कि हर चीज़ के लिए द्वार है तथा उपासना का द्वार रोज़ा है।