इंसानी समाज, सैंकड़ों साल से अल्लाह की हुज्जत के ज़हूर के फ़ायदों से वंचित है और इस्लामी समाज उस आसमानी व मासूम इमाम के पास जाने में असमर्थ है। इस स्थिति से यह सवाल यह उठता है कि उनके ग़ायब होने और लोगों की नज़रों व पहुँच से दूर, छुप कर जीवन व्यतीत करने से इस दुनिया व दुनिया वासियों को क्या फ़ायदे हैं ? क्या यह नहीं हो सकता था कि ज़हूर के ज़माने के नज़दीक उनका जन्म होता जिससे उनकी ग़ैबत के सख्त ज़माने को उनके शिया न देखते ?
यह सवाल और इसी तरह के अन्य सवाल इमाम और अल्लाह की हुज्जत की सही पहचान न होने की वजह से पैदा होते हैं।
इस संसार में इमाम का मर्तबा क्या है ? क्या उन के वजूद के सब फ़ायदे उन के ज़हूर पर ही आधारित हैं ? और क्या वह सिर्फ़ लोगों की हिदायत के लिए है, या उन का वजूद अल्लाह की पूरी मखलूक़ के लिए फ़ायदे व बरकत का कारण है ?
इमाम संसार का केन्द्र होता है
धार्मिक शिक्षाओं के आधार पर शियों का यह मत है कि इस संसार में मौजूद हर चीज़ के पास अल्लाह का फ़ैज़ इमाम के वास्ता से ही पहुँचता है। इस संसार के निज़ाम में इमाम एक ध्रुव व केन्द्र के समान है तथा संसार का पूरा निज़ाम उसी के चारों ओर घूमता है। उस के वजूद के बग़ैर इस संसार में इंसानों, जिन्नों, फ़रिश्तों ौर संक्षेप में यह कि किसी भी जानदार व बेजान चीज़ का नाम व निशान बाक़ी न रहता।
हज़रत इमाम सादिक़ (अ. स.) से सवाल पूछा गया कि क्या ज़मीन इमाम के बग़ैर बाक़ी रह सकती है ? इमाम (अ. स.) ने जवाब में कहा कि
अगर ज़मीन पर इमाम का वजूद न हो तो वह उसी वक़्त फ़ना हो जाये अर्थात उसका विनाश हो जाये...।[1]
चूँकि वह लोगों तक ख़ुदा के पैगाम को पहुँचाने और लोगों को इंसानी कमालों की ओर की हिदायत करने में वास्ता होता हैं और इस संसार में मौजूद हर चीज़ तक हर तरह का फ़ैज़ व करम उसी के वजूद के ज़रिये पहुँचता है। यह बात स्पष्ट है कि ख़ुदा वन्दे आलम ने इंसानी समाज की हिदायत शुरु में नबियों (अ. स.) के जरिये और बाद में उन के जानशीनों (इमामों) के ज़रिये की है। लेकिन मासूम इमामों (अ. स.) के कलाम (प्रवचनों) से यह नतीजा निकलता है कि इस संसार में ख़ुदा वन्दे आलम की तरफ़ से हर छोटे व बड़े वजूद तक जो नेमत और फ़ैज़ पहुँचता है उस में इमाम ही वास्ता बनता है। इससे भी अधिक स्पष्ट रूप में यह कहा जा सकता है कि इस संसार में मौजूद प्रत्येक चीज़ ख़ुदा वन्दे आलम की तरफ़ से जो कुछ भी प्राप्त करती है वह इमाम के ज़रिये ही उस तक पहुँचती है। यही नही बल्कि उन का ख़ुद का वजूद भी इमाम के ही कारण है और वह अपनी ज़िन्दगी में जो कुछ भी प्राप्त करते हैं उस में भी इमाम की ज़ात ही वास्ता (माध्यम) बनती है।
ज़ियारते जामेआ (जो कि हक़ीक़त में इमाम की पहचान के लिए एक अच्छी किताब है) के एक वाक्य में इस तरह से वर्णन हुआ है कि :
”بِکُمْ فَتَحَ اللهُ وَ بِکُمْ یَخْتِمُ وَ بِکُمْ یُنَزِّلُ الغَیْثَ وَ بِکُمْ یُمسِکُ السَّمَاءَ اٴنْ تَقَعَ عَلَی الاٴرضِ إلاَّ بِإذْنِہِ.....[2] ।
ऐ मासूम इमामों ! ख़ुदा वन्दे आलम ने इस संसार का ारम्भ तुम्हारी ही वजह से किया है और वह तुम्हारी ही वजह से उसे आख़िर तक पहुँचाएगा और तुम्हारे ही वजूद की वजह से रहमत की बारिश करता है और तुम्हारे ही वजूद की बरकत से ज़मीन पर आसमान को गिरने से बचाये हुए है, यह सब उसके के इरादे से है।
अतः यह नही कहा जा सकता कि इमाम (अ. स.) के वजूद के असर सिर्फ उन के ज़हूर की सूरत में ही हैं। इसके विपरीत वास्तविक्ता यह है कि उनका वजूद संसार में (यहाँ तक कि उनकी ग़ैबत के ज़माने में भी) अल्लाह की पूरी मख़लूक़ के बीच जीवन का स्रोत है। ख़ुद ख़ुदा वन्दे आलम की मर्ज़ी भी है कि सब से उत्तम व महान और हर प्रकार से पूर्ण वजूद (अर्थात इमाम) अल्लाह की अनुकम्पा को अल्लाह से प्राप्त कर के उसे उसकी अन्य मखलूक़ तक पहुँचाने में वास्ता बने, अतः इस आधार पर इमाम के ग़ायब या ज़ाहिर रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
जी हाँ ! सभी, इमाम (अ. स.) के वजूद के असर से लाभान्वित होते हैं और इमाम महदी (अ. स.) की ग़ैबत इस बारे में कोई रुकावट नहीं है। ध्यान देने योग्य बात ये है कि जब हज़रत इमाम महदी (अ. स.) से उनकी ग़ैबत के ज़माने में उनसे लाभान्वित होने के तरीके के बारे में पूछा गया तो उन्होंने फरमाया :
”وَ اٴمَّا وَجہُ الإنْتِفَاعِ بِی فِی غَیْبَتِی فَکا الإنْتِفَاعِ بِالشَّمْسِ إذَا غَیَّبَتْہَا عَنِ الاٴبْصَارِ السَّحَابَ“[3] ....
मेरी ग़ैबत के ज़माने में मुझ से उसी तरह फ़ायदा होगा, जिस तरह बादलों के पीछे छिपे सूरज से फायदा उठाया जाता है।
हज़रत इमाम महदी (अ. स.) ने अपनी मिसाल सूरज से और अपनी ग़ैबत की मिसाल बादल के पीछे छिपे सूरज की सी दी है। इस मिसाल में बहुत से रहस्य पाये जाते हैं, अतः हम यहाँ पर उन में से कुछ की तरफ़ इशारा कर रहे हैं।
सौर मंडल (सोलर सिस्टम) में सूरज एक केन्द्र का काम करता है और अन्य सब ग्रह उसी के चारों ओर घूमते हैं, इसी तरह हज़रत इमाम महदी (अ. स.) का वजूद भी इस संसार के निज़ाम व व्यवस्था में ध्रुवीय स्थान रखता है।
[4] ”بِبَقَائِہِ بَقِیَتِ الدُّنْیَا وَ بِیُمْنِہِ رُزِقَ الوَریٰ وَ بِوُجُوْدِہِ ثَبَتَتِ الاٴرْضُ وَ السَّمَاءُ“
उस (इमाम) के बाक़ी रहने की वजह से ही दुनिया बाकी है और उस के वजूद की बरकत से संसार के हर मौजूद को रोज़ी मिलती है और उस के वजूद की वजह से ही ज़मीन और आसमान बाक़ी हैं।
सूरज एक पल के लिए भी अपने प्रकाश की किरणें फैलाने में कंजूसी नहीं करता और हर चीज़ अपनी आवश्यक्ता अनुसार सूरज के प्रकाश से लाभान्वित होती है। इसी तरह हज़रत इमाम महदी (अ. स.) का वजूद भी समस्त भौतिक व आध्यात्मिक नेमतों को प्राप्त करने का माध्यम है। हर इंसान कमालों के उस केन्द्र से अपने संबंध के अनुसार लाभान्वित होता है।
अगर यह सूरज बादलों के पीछे भी न रहे तो इस इतनी अधिक ठंड हो जायेगी और अंधेरा फैल जायेगा कि कोई भी जानदार ज़मीन पर नहीं रह सकेगा। इसी तरह अगर यह संसार इमाम (अ. स.) के वजूद से वंचित हो जाये (वह ग़ैबत में भी न रहे) तो मुश्किलें, परेशानियाँ, कठिनाईयाँ और विपत्तियाँ इतनी बढ़ जायेंगी कि इंसानी ज़िन्दगी आगे बढ़ने से रुक जायेगी और समस्त प्राणियों का अन्त हो जायेगा।
हज़रत इमाम महदी (अ. स.) ने शेख मुफीद अलैहिर्रहमा को एक ख़त लिखा, जिस में उन्होंने अपने शिओं के लिए निमन लिखित पैग़ाम लिखा था।
”اِنَّا غَیْرُ مُہْمِلِیْنَ لِمُرَاعَاتِکُمْ وَ لاٰ نَاسِیْنَ لِذِکْرِکُمْ وَ لَولٰا ذَلِکَ لَنَزَلَ بِکُمُ اللاَّوَاءُ وَ اصْطَلَمَکُمُ الاٴعْدَاءُ[5]
न हम तुम्हें कभी तुम्हारे हाल पर छोडते हैं और न कभी तुम्हें भूलते हैं, अगर तुम पर हमेशा हमारी तवज्जोह न होती तो तुम पर बहुत सी विपत्तियाँ और बलायें नाज़िल होतीं और दुश्मन तुम को मिटा कर रख देते।
अतः इमाम (अ. स.) के वजूद का सूरज पूरे संसार पर चमकता है और संसार में मौजूद हर चीज़ को लाभ पहुँचता है और उन समस्त प्राणियों के बीच इंसानों को और इंसानों में इस्लामी समाज को और इस्लामी समाज में मुख्यः रूप से शिओं को विशेष ख़ैर व बरकत पहुँचाता है। हम यहाँ पर इस के कुछ नमूने आप की सेवा में पेश कर रहे हैं।
उम्मीद की किरण
इंसान की ज़िन्दगी का सबसे महत्वपूर्ण धन उम्मीद होती है, उम्मीद ही इंसान की ज़िन्दगी में जीवन का आधार और खुशी का कारण बनती है। इंसान के क्रिया कलापों का आधार उम्मीद ही होती है। इस संसार में इमाम (अ. स.) का वजूद उज्जवल भविषय और ख़ुशी की उम्मीद का आधार है। शिया अपने चौदह सौ साल के इतिहास में हमेशा ही विभिन्न मुश्किलों और परेशानियों में घिरे रहे हैं। जिस चीज़ ने हमें ज़ुल्म व अत्याचार के विरुद्ध आन्दोलन चलाने की ताक़त दी और ज़ालिम व अत्याचारियों के सामने न झुकने दिया वह अच्छे व उज्जवल भविषय की उम्मीद थी। ऐसा उज्जवल भविषय काल्पनिक और मन गड़त नहीं, बल्कि वास्तविक्ता रखता है और नज़दीक है और बहुत नज़दीक भी हो सकता है, क्यों कि जो इंसान विश्वव्यापी आन्दोलन और इंकेलाब के नेतृत्व की ज़िम्मेदारी संभाले हुए है, वह ज़िन्दा है और हर वक़्त तैयार है। यह तो हम हैं जिन्हें तैयार होने की ज़रूरत है।
विचार धारा की मज़बूती
हर समाज को अपनी सुरक्षा और अपने निश्चित उद्देशयों को पाने के लिए एक माहिर नेतृत्व की ज़रुरत होती है, ताकि वह समाज उसकी हिदायत (मार्गदर्शन) के अनुसार सही रास्ते पर क़दम बढ़ाये। किसी भी समाज के लिए इमाम और हादी का वजूद बहुत ही आवश्यक है ताकि वह समाज एक बेहतरीन निज़ाम व व्यवस्था के अन्तर्गत अपने अस्तित्व को बाकी रख सके और भविषय के परोग्रामों व योजनाओं को स्थायित्व प्रदान करने के लिए अपनी कमर कस कर बाँध ले। ज़िन्दा और अच्छा रहबर अगर लोगों के बीच न रहे तब भी आधारभूत विषयों और काम करने के उपायों को बताने में लापरवाई नहीं करता और भटकाने वाले रास्तों से विभिन्न तरीकों से होशियार करता रहता है।
हज़रत इमाम महदी (अ. स.) ग़ैबत में हैं लेकिन उनका वजूद शिया मज़हब की सुरक्षा का सबसे अच्छा साधन है। वह पूर्ण जानकारी के साथ शिया अक़ीदों को दुश्मनों की साज़िशों से विभिन्न तरीक़ों से बचाते हैं और जब मक्कार दुश्मन विभिन्न चालों के ज़रिये शिया मज़हब के उसूल (आधारभूत सिद्धान्तों) और एतेक़ादों को निशाना बनाता है तो उस वक़्त वह (अ. स.) कुछ ख़ास लोगों व आलिमों की हिदायत कर के दुश्मन के मक्सद को नाकाम बना देते हैं।
नमूने के तौर पर बहरैन के शिओं के संबंध में हज़रत इमाम महदी (अ. स.) की मेहरबानी और तवज्जोह को अल्लामा मजलिसी अलैहिर्रहमा की ज़बानी सुनते हैं। यह घटना निम्न लिखित है---
पिछले ज़माने में बहरैन में एक नासबी की हुकूमत थी और उसका वज़ीर वहाँ के शिओं से बहुत ज़्यादा दुशमनी रखता था। एक दिन वज़ीर बादशाह के पास एक अनार लेकर पहुँचा। उस अनार पर क़ुदरती तौर पर यह वाक्य लिखा हुआ था :
”لا الہ الا الله محمد رسول الله، و ابوبکر و عمر و عثمان و علی خلفاء
رسول الله“
ला इलाहा इल्लल्लाह, मुहम्मदुर रसूलुल्लाह व अबू बकर व उमर व उस्मान व अली ख़ुलफ़ा ए रसूलुल्लाह। बादशाह उस अनार को देख कर ताज्जुब में पड़ गया और उस ने अपने वज़ीर से कहा : यह तो शिया मज़हब के बातिल (असत्य) होने की स्पष्ट व खुली दलील है। बादशाह ने वज़ीर से पूछा कि बहरैन के शिओं को बारे में तुम्हारा क्या ख़्याल है ?! वज़ीर ने जवाब दिया : मेरी राय के अनुसार उन को हाज़िर किया जाये और उन्हें यह निशानी दिखाई जाये, अगर उन लोगों ने मान लिया तो उन को अपना मज़हब छोड़ना होगा, वर्ना तीन चीज़ों में से एक को ज़रुर मानना होगा! या तो वह संतुष्ट करने वाला जवाब ले कर आयें या जज़िया..[6] दिया करें, या उनके मर्दों को क़त्ल कर के उनके बीवी बच्चों को क़ैदी बना लें और उनके माल व दौलत को ग़नीमत का माल मानते हुए अपने माल में मिला लें।
बादशाह ने उसकी राय को मान लिया और शिया आलिमों को अपने पास बुला भेजा। जब शिया आलिम उसके पास पहुँचे तो उसने उन्हें वह अनार दिखाया और कहा कि अगर तुम इस बारे में कोई सबूत न पेश कर सके तो मैं तुम्हे क़त्ल कर दूँगा और तुम्हारे बीवी बच्चों को क़ैदी बना लूँगा या फिर तुम्हें जज़िया देना होगा। यह सुन कर शिया आलिमों ने उस से तीन दिन की मोहलत मांगी। इसके बाद उन आलिमों ने आपस में राय मशवरा करने के बाद यह तय किया कि अपने बीच से बहरैन के दस नेक और पर्हेज़गार आलिमों को चुना जाये और वह दस आलिम अपने बीच से तीन आलिमों को चुने और वह इमामे ज़माना से इस मसले का हल मालूम करें। जब वह तीन आलिम चुन लिये गये तो उन्होंने उन में से एक आलीम से कहा : आप आज जंगल में निकल जाइये और इमामे ज़माना (अ. स.) से फ़रियाद कर के उनसे इस मुसीबत से छुटकारे का रास्ता मालूम कीजिये, क्यों कि वही हमारे इमाम और हमारे मालिक हैं। उन साहब ने जंगल में जा कर इमामे ज़माना को पुकारना शुरू किया, लेकिन इमामे ज़माना (अ. स.) से मुलाक़ात न हो सकी। दूसरी रात दूसरे इंसान को भेजा गया, लेकिन उनको भी कोई जवाब न मिल सका। आख़िरी रात तीसरे आलिम मुहम्मद पुत्र ईसा को भेजा गया। वह भी जंगल में गये और उन्होंने रोते हुए इमाम (अ. स.) से मदद गुहार की, जब रात अपनी आखरी मंज़िल पर पहुंची तो उन्होंने सुना कि कोई इंसान उनसे संबोधित हो कर कह रहा है कि ऐ मुहम्मद पित्र ईसा! मैं तुम्हें इस हालत में क्यों देख रहा हूँ ?! और तुम इस जंगल में परेशान क्यों घूम रहे हो ?! मोहम्द पुत्र ईसा ने कहा कि आप मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिये, उन्होंने फरमाया : ऐ मुहम्मद पुत्र ईसा ! मैं तुम्हारे ज़माने का इमाम हूँ। तुम अपनी परेशानी बयान करो। मुहम्मद पुत्र ईसा ने कहा : अगर आप मेरे ज़माने के इमाम हैं तो मेरी परेशानी भी जानते हैं मुझे बताने की क्या ज़रुरत है ?! फरमाया : तुम सही कहते हो। तुम अपनी मुसीबत की वजह से यहाँ आये हो। उन्होंने कहा : जी हाँ आप जानते हैं कि हम पर क्या मुसीबत पड़ी है। आप ही हमारे इमाम और हमारी पनाहगाह हैं।
यह सुनने के बाद इमाम (अ. स.) ने फरमाया : ऐ मुहम्मद पुत्र ईसा ! उस वज़ीर (लाअनतुल्लाह अलैह) के यहाँ एक अनार का दरख्त है जिस वक़्त उस दरख्त पर अनार लगना शुरु हुए तो उसने मिट्टी का एक साँचा बनवाया और उस पर यह वाक्य लिख कर एक छोटे अनार पर उस सांचे को बांध दिया। जैसे जैसे वह अनार बड़ा होता गया उसके छिलके पर उस वाक्य के शब्द अंकित होते गये। तुम उस बादशाह के पास जाना और उस से कहना कि मैं तुम्हारा जवाब वज़ीर के घर जा कर दूँगा। जब तुम उसके साथ वज़ीर के घर पहुँच जाओ तो वज़ीर से पहले फलां कमरे में जाना, वहाँ तुम्हें एक सफ़ैद थैला मिलेगा उसी थैले में वह मिट्टी का साँचा रखा हुआ है, उस को निकाल कर बादशाह को दिखाना। दूसरी निशानी यह है कि बादशाह से कहना कि हमारा दूसरा मोजज़ा यह है कि जब अनार के दो हिस्से करोगे तो अनार के अन्दर से मिट्टी और धुँऐं के अलावा कोई चीज़ नही निकले गी।
मुहम्मद पुत्र ईसा, इमाम (अ. स.) के इस जवाब से बहुत खुश हुऐ और शिया आलिमों के पास लौट आये। अगले दिन वह सब बादशाह के पास पहुँचे और जो इमाम (अ. स.) ने जो फरमाया था उसको बादशाह के सामने पेश कर दिया।
बहरैन के बादशाह ने इस मोजज़े को देखा तो शिया मज़हब का आशिक़ हो गया और हुक्म दिया कि इस मक्कार वज़ीर को क़त्ल कर दिया जाये...[7]
तरबियत
कुरआने करीम में वर्णन होता है :
[8] < وَقُلْ اعْمَلُوا فَسَیَرَی اللهُ عَمَلَکُمْ وَرَسُولُہُ وَالْمُؤْمِنُون۔۔۔>
और (ऐ पैग़म्बर) आप कह दीजिये कि तुम लोग अमल (कार्य) करते रहो, तुम्हारे अमल को अल्लाह, रसूल और मोमेनीन देख रहे हैं।
रिवायतों में उल्लेख मिलता है कि इस आयत में मोमेनीन अइम्मा ए मासूमीन (अ. स.) को कहा गया हैं..।[9] इस आधार पर मोमेनीन के आमाल (अच्छे व बुरे सब कार्य) इमामे ज़माना (अ. स.) की नज़रों के सामने होते हैं और वह ग़ैबत में रहते हुए भी हमारे क्रिया कलापों पर नज़र रखे हुए हैं। यह बात तरबियत के दृष्टिकोण से बहुत अधिक महत्वपूर्ण है और शिओं को अपने इक्रया कलापों को सुधारने की प्रेरणा देती है। यही बात शियों को अल्लाह की हुज्जत और मोमिनों के इमाम के सामने बुराइयों और गुनाहों में लिप्त होने से रोकती है। यह बात पूर्ण रूप से स्वीकारीय है कि इंसान उस पाक़ और साफ़ ज़ात पर जितना अधिक ध्यान देगा, उस के दिल का आइना उतनी ही पाक़ीज़गी और सफ़ाई उसकी रुह में भर देगा और फिर यह प्रकाश उसकी बात चीत व व्यवहार में झलकने लगेगा।
इल्मी और फ़िक्री पनाह गाह
अइम्मा मासूमीन (अ. स.) समाज के सच्चे व वास्तविक शिक्षक और सही तरबियत करने वाले हैं। मोमेनीन हमेशा उन्हीं हज़रात के साफ़ सुथरे व पाक इल्म से लाभान्वित होते हैं। ग़ैबत के ज़माने में क्योंकि हम सीधे इमाम (अ. स.) की सेवा में नही पहुँच सकते हैं और उनसे लाभान्वित होने का जो हक़ है उस मात्रा में उन से लाभान्वित नहीं हो सकते है, लेकिन वह अल्लाह के इल्म के केन्द्र फिर भी शिओं की इल्म और फिक्र से संबंधित मुश्किलों को दूर करते रहते हैं। ग़ैबते सुग़रा के ज़माने में बहुत से मोमिनों और आलिमों के सवालों के जवाबात इमाम (अ. स.) के ज़रिये ही हल हुए हैं..[10]
हज़रत इमामे ज़माना (अ. स.) ने इस्हाक़ पुत्र याक़ूब के सवाल के जवाब में इस तरह लिखा था--
ख़ुदा वन्दे आलम तुम्हारी हिदायत करे और तुम्हें साबित क़दम रखे, चूँकि आप ने हमारे खानदान और चचा ज़ाद भाईयों में से हमारा इन्कार करने वालों के बारे में सवाल किया तो तुम्हें मालूम होना चाहिए कि ख़ुदा के साथ किसी की कोई रिश्तेदारी नहीं है, अतः जो इंसान भी मेरा इन्कार करेगा वह हम में से नहीं है और उसका अन्त जनाबे नूह (अ. स.) के बेटे की तरह होगा और जब तक तुम अपने माल को पाक़ न करलो, हम उसे क़बूल नहीं कर सकते।
लेकिन जो रक्म आप ने हमारे लिए भेजी है उसको इस वजह से क़बूल करते हैं कि पाक व पाकीज़ा है।
और जो इंसान हमारे माल को अपने लिए हलाल समझता है और उसको हज़्म कर लेता है, वह ऐसा है हजन्नम की आग खा रहा है। अब रहा मुझ से फ़ायदा उठाने का मसला तो जिस तरह बादलों में छिपे सूरज से फ़ायेदा उठाया जाता है,उसी तरह मुझ से भी फायेदा हासिल किया जा सकता है, और मैं ज़मीन वालों के लिए उसी तरह अमान हूँ, जिस तरह सितारे आसमान वालों के लिए अमान हैं। जिन चीज़ों का तुम्हें कोई फ़ायेदा नहीं हैं उनके बारे में सवाल न करो, और जिस चीज़ का तुम से तक़ाज़ा नहीं किया गया उस चीज़ को सीखने से बचो, और हमारे ज़हूर के लिए ज़्यादा दुआयें किया करो कि इस से तुम्हारे लिए भी आसानियाँ होंगी। ऐ इस्हाक़ पुत्र याक़ूब तुम पर हमारा सलाम हो और उन मोमिनों पर जो हिदायत के रास्ते हासिल करते हैं...[11]
इस के अलावा ग़ैबते सुग़रा के बाद भी शिया आलिमों ने अनेकों बार इल्म व फ़िक्र से संबंधित अपनी मुश्किलों को इमाम (अ. स.) से बयान करके उनका हल मालूम किया है।
मीर अल्लामा, मुकद्दस अरदबेली के शागिर्द इस तरह लिखते हैं।
आधी रात का वक़्त था और मैं नजफ़े अशरफ़ में हजरत इमाम अली (अ. स.) के रोज़ा ए अक़दस में था। अचानक मैं ने एक इंसान को रौज़े की तरफ़ आते देखा, मैं आने वाले की तरफ़ बढ़ा जैसे ही कुछ क़रीब पहुँचा तो देखा कि वह हमारे उस्ताद मुल्ला अहमद मुकद्दस अरदबेली अलैहीर्रहमा हैं। मैं उन्हें देख कर जल्दी से एक तरफ़ छिपा गया। मेरे बाहर अने के बाद रोज़े का दरवाज़ा बंद हो चुका था, वह रौज़ ए मुतहर के दरवाज़े पर पहुँचे मैं ने देखा की अचानक दरवाज़ा खुला और वह रौज़ा ए मुकद्दस के अंदर दाखिल हो गये और थोड़ी ही देर बाद रौज़े से बाहर निकले और कूफ़े शहर की तरफ़ रवाना हो गये।
मैं, उन के पीछे पीछे, छिप कर इस तरह चलने लगा ताकि वह मुझे न देख सकें, यहाँ तक कि वह मस्जिदे कूफ़ा में दाखिल हो गये और सीधे उस मेहराब के पास गए जहाँ हज़रत अली (अ. स.) को ज़रबत लगी थी। कुछ देर वहाँ रहने के बाद मस्जिद से बाहर निकले और फिर नजफ़ की तरफ़ रवाना हो गये। मैं फिर उनके पीछे पीछे चलने लगा वहाँ से वह मस्जिदे हन्नाना में पहुँचे, वहाँ पहुँच कर अचानक मुझे खाँसी आ गई, जैसे ही उन्होंने मेरे खाँसने की आवाज़ सुनी, घूम कर मेरी तरफ़ देखा और मुझे पहचान लिया और कहा : आप मीर अल्लामा ही तो हैं ?! मैं ने कहा : जी हाँ। उन्हों ने पूछा : यहाँ क्या कर रहे हो ? मैं ने जवाब दिया : जब से आप हज़रत अली (अ. स.) के रौज़े में दाखिल हुए थे, मैं उसी वक़्त से आप के साथ हूँ। आप को उस क़ब्र में सोई हुई ज़ात के हक़ का वास्ता ! मैं ने जो आज यह वाकिया देखा है, मुझे इसका राज़ बता दीजिये।
उन्होंने फरमाया : ठीक है, लेकिन इस शर्त के साथ कि जब तक मैं ज़िन्दा रहूँगा आप इस बात को किसी के सामने बयान नहीं करेंगे। जब मैं ने उन्हें इस बात का इत्मिनीन दिलाया तो उन्होंने फरमाया : जब मेरे सामने कोई मुश्किल पेश आती है तो मैं उसके हल के लिए हज़रत अली (अ. स.) से तवस्सुल करता हूँ। इस रात भी मेरे सामने एक मुश्किल मसला पेश आया और मैं उसके बारे में ग़ौर व फिक्र करता रहा, अचानक मेरे दिल में यह बात आई कि हज़रत अली (अ. स.) की बारगाह में जाऊँ और उन्हीं से इस मसले का हल मालूम करूँ।
जब मैं रौज़ ए मुकद्दस के पास पहुँचा तो जैसा कि आप ने भी देखा कि बन्द दरवाज़ा खुल गया। मैंने रौज़े में दाखिल हो कर ख़ुदा की बारगाह में रोना और गिड़गिड़ाना शुरू कर दिया ताकि हज़रत इमाम अली (अ. स.) की बारगाह से इस मसले का हल मिल जाये। अचानक कब्रे मुनव्वर से आवाज़ आई कि कूफ़ा जाओ और हजरत क़ायम (अ. स.) से इस मसले का हल मालूम करो, क्यों कि वही तुम्हारे इमामे ज़माना हैं। अतः मैं यह सुनने के बाद मस्जिदे कूफ़ा की मेहराब के पास गया और हज़रत इमाम महदी (अ. स.) से उस सवाल का जवाब मालूम किया और अब इस वक़्त अपने घर की तरफ़ जा रहा हूँ...[12]
आन्तरिक हिदायत
इमाम, क्योंकि लोगों की हिदायत और उनका नेतृत्व करने का ज़िम्मेदार होता है, अतः उसकी यह कोशिश होती है कि जिन लोगों में हिदायत हासिल करने की योग्यता पाई जाती हैं, उनकी हिदायत करे। अतः ख़ुदा वन्दे आलम की तरफ़ से सौंपी गई इस ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए कभी वह सीधे सादे तरीक़े से इंसानों से संबंध स्थापित करता है और अपनी बात चीत से उन्हें कामयाबी का रास्ता दिखा देता है और कभी कभी ख़ुदा वन्दे आलम की तरफ़ से प्रदान की गई विलायत की ताक़त से फ़ायेदा उठाते हुए लोगों के दिलों को अपने क़ब्ज़ें में कर लेता है और इस ख़ास करम के ज़रिये दिलों को नेकियों व अच्छाईयों की तरफ़ झुका देता है और उनके लिए फलने फूलने का रास्ता हमवार कर देता हैं। इस दूसरी सूरत में इमाम (अ. स.) के खुले आम मौजूद रहने और लोगों से सीधा संपर्क बनाने की ज़रुरत नहीं होती बल्कि अन्दर ही अन्दर दिल को साफ़ कर के हिदायत कर दी जाती है। हज़रत इमाम अली (अ. स.) इस बारे में इमाम के काम को बयान करते हुए फरमाते हैं :
ख़ुदा वन्दे आलम ! तेरी तरफ़ से ज़मीन पर एक हुज्जत होती है जो मख़लूक को तेरे दीन की तऱफ़ हिदायत करती है और अगर वह ज़ाहिरी तौर पर लोगों के बीच न रहे तब भी उसकी तालीम और उसके बताये हुए आदाब मोमेनीन के दिलों में मौजूद रहते हैं और वह उसी के अनुसार कार्य करते हैं...[13]
हज़रत इमाम महदी (अ. स.) ग़ैबत में रहते हुए इसी तरह विश्वव्यापी परिवर्तन व आन्दोलन के लिए कार आमद लोगों की हिदायत की कोशिश करते रहते है और जिन लोगों में यह ज़रूरी योग्यता पाई जाती हैं वह इमाम (अ. स.) की ख़ास तरबियत के अन्तर्गत उनके ज़हूर के लिए तैयार हो जाते हैं। यह ग़ैबत में रहने वाले इमाम के मंसूबों में से एक मंसूबा है जो उनके वजूद की बरकत से पूरहा होता है।
मुसीबतों से सुरक्षा
इस बात में कोई शक़ नहीं है कि इंसान की ज़िन्दगी का सबसे बड़ी व आधारभूत दौलत शाँति और सुरक्षा है, संसार में घटित होने वाली विभिन्न घटनाएं हमेशा ही समस्त प्राणियों की प्राकृतिक ज़िन्दगी को खतरे में डाल कर मौत के मुँह तक पहुंचती रही हैं। वैसे तो विपत्तियों और मुसीबतों को भौतिक चीज़ों के ज़रिये रोका जा सकता है, लेकिन आध्यात्मिक चीज़ें भी उन में बहुत प्रभावी सिद्ध होती हैं। हमारे अइम्मा मासूमीन (अ. स.) की रिवायतों में इस संसार के निज़ाम में इमाम और अल्लाह की हुज्जत के वजूद को ज़मीन और इस इसके वासियों के लिए शाँति व सुरक्षा की वजह माना गया है।
हज़रत इमामे ज़माना (अ. स.) ख़ुद फरमाते हैं कि :
”وَ إنِّی لَاَمَانٌ لِاٴہْلِ الاٴرْضِ“[14]
और मैं ज़मीन वासियों के लिए (विपत्तियों से) अमान हूँ।
इमाम (अ. स.) का वजूद, लोगों को उनके गुनाहों और बुराईयों की वजह से अल्लाह के सख्त अज़ाब में फँसने और ज़मीन वासियों की ज़िन्दगी को ख़त्म होने से रोकता है।
इस बारे में कुरआने करीम में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) को संबोधित करते हुए वर्णन होता है-
[15]
और अल्लाह उन पर उस वक़्त तक अज़ाब नही करेगा, जब तक पैग़म्बर (स.) आप उनके बीच में मौजूद हैं।
हज़रत इमाम महदी (अ. स.) जो अल्लाह की रहमत व मुहब्बत को प्रदर्शित करने वाले हैं, वह भी अपनी खास तवज्जोह के ज़रिये बड़ी बड़ी विपत्तियों व बलाओं को ख़ास तौर पर हर शिया से दूर करते हैं। जबकि हम बहुत सी जगहों पर उनके करम की तरफ़ नहीं देते और मदद करने वाले को नहीं पहचानते।
आप ख़ुद अपनी शिनाख्त के बारे में फरमाते हैं कि :
[16] ”اَنَا خَاتِمُ الاٴوْصِیَاءِ، وَ بِی یَدْفَعُ اللهُ عَزَّ وَ جَلَّ الْبَلَاءُ مِنْ اٴَہْلِی وَ شِیْعَتِی“
मैं अल्लाह के पैग़म्बर (स.) का आख़री जानशीन (उत्तराधिकारी) हूँ, और ख़ुदा वन्दे आलम मेरे वजूद के ज़रिये मेरे खानदान और मेरे शिओं से बलाओं को दूर करता है।
ईरान के इस्लामी इंक़ेलाब के प्रारम्भिक दौर में और इराक व ईरान की जंग के दौरान विभिन्न अवसरों पर इमामे ज़माना (अ. स.) के करम व मुहब्बत को इस क़ौम और हुकूमत पर साया करते हुए देखा गया है और इमाम ने इस्लामी हुकूमत और अपने चाहने वाले शिओं को दुशमन की खतर्नाक साज़िशों से सही व सालिम रखा है। 21 बहमन (एक ईरानी महीने का नाम) को इमाम खुमैनी अलैहर्रहमा के हाथों शहनशाही हुकूमत का खात्मा, सन् 1359 हिजरी में तबस के बयाबान में अमेरीकी फ़ौजी हेली कोप्टरों का ज़मीन पर गिरना, सन् 1361 हिजरी में 21 तीर (ईरानी महीने का नाम) को नोज़ह नामी बग़ावत की असफलता और इराक से आठ साल की जंग में दुशमन की नाकामी आदि ऐसे नमूने हैं जो इस बात के ज़िन्दा गवाह हैं।
रहमत की बारिश
पूर्ण संसार के महान महदी मऊद (पलट कर आने वाले को मऊद कहते हैं, क्योंकि हज़रत महदी अलैहिस्सलाम ग़ैब हो गये थे और बाद में अल्लाह के हुक्म से पलट कर आयेंगे इसी वजह से उन्हें महदी मऊद कहा जाता है और यह उनका मशहूर लक़ब है।) मुसलमानों की तमन्नाओं के केन्द्र और शिओं के दिलों के महबूब, हजरत इमामे ज़माना (अ. स.) हमेशा लोगों की ज़िन्दगी के हालात पर नज़र रखे हुए हैं। उनका ग़ैब रहना चाहने वालों पर करम करने व मुहब्बतें लुटाने के रास्ते में रुकावट नहीं है। वह चौदहवीं रात का चाँद अपने शिओं और मदद माँगने वालों से हमेशा मुहब्बत करता है। वह कभी तो बीमार लोगों के सिरहाने हाज़िर होते हैं और अपने हाथों को उनके ज़ख्मों के लिए मरहम का रूप देते हैं। कभी जंगलों में भटकते हुए मुसाफिरों पर करम करते हैं और तन्हाई की वादी में भटकते हुए लाचार व बेकस लोगों की मदद और मार्गदर्शन करते हुए ना उम्मीदी की ठंडी हवाओं में इन्ज़ार करने वाले दिलों को उम्मीद की गर्मी प्रदान करते हैं। वह अल्लाह की रहमत की बारिश हैं जो दिलों के खुश्क बंजरों पर बरस कर शिओं के लिए अपनी दुआओं के ज़रिये हरयाली व खुशी पेश करते हैं। वह जानमाज़ पर बैठ कर ख़ुदा वन्दे आलम की बारगाह में अपने हाथों को फ़ैला कर हमारे लिए यह दुआ करते है :
”یَا نُورَ النُّورِ، یَا مُدَبِّرَ الاٴُمُورِ یَا بَاعِثَ مَنْ فِی القُبُورِ صَلِّ عَلٰی مُحَمَّدٍ وَ آلِ مُحَمَّدٍ وَ اجْعَلْ لِی وَ لِشِیْعَتِی مِنَ الضِّیقِ فَرَجاً، وَ مِنَ الْہَمِّ مَخْرِجاً، وَ اٴوْسَعْ لَنَا الْمَنْہِجَ وَ اطلُقْ لَنَا مِنْ عِنْدِکَ مَا یُفَرِّجُ وَافْعَلْ بِنَا مَا اٴنْتَ اٴہْلُہُ یَا کَرِیمْ“[17]
ऐ नूरों के नूर ! ऐ तमाम कामों की प्रबंध करने वाले ! ऐ मुर्दों को ज़िन्दा करने वाले ! मुहम्मद व आले मुहम्मद पर सलवात भेज और मुझे और मेरे शिओं को मुश्किलों से निजात व छुटकारा दे और दुखः दर्दों को दूर कर, और हमारे लिए हिदायत के रास्ते को बड़ा कर दे, और जिस रास्ते में हमारे लिए आसानियाँ हों उसे हमारे लिए खोल दे,र ऐ करीम ! तू हमारे साथ वह सलूक कर जिसका तू अहल है।
प्रियः पाठकों ! हम अब तक जो कुछ उल्लेख कर चुके हैं, वह इस बात का स्पष्ट करता हैं कि इमाम (अ. स.) से उनकी ग़ैबत के दौरान राब्ता करना मुम्किन है और उनसे मुत्तसिल होना कोई मुश्किल बात नहीं है। यह इमाम (अ. स.) के वजूद का असर है और जो लोग इस बात की योग्यता व सलाहियत रखते थे उन्होंने अपने महबूब इमाम से मुलाक़ात की लज़्ज़त ली हैं और उनके समीपय का लाभ उठाया है।
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[1] . उसूले काफ़ी, जिल्द न. 1, पेज न. 201
[2] . मफ़ातीह उल जिनान ज़ियारते जामेअ क़बीरा नोटः यह ज़ियारत हज़रत इमाम अली नकी (अ0 स.) से मंकूल है और सनद और तहरीर के लिहाज़ से एक अज़ीमुश्शान ज़ियारत है और शिआ आलिमों की इस पर हमेशा खास तवज्जोह रही है।
[3] एहतेजाज, जिल्द न. 3, नम्बर 444, पेज न. 542
[4] . मफ़ातीह उल जिनान, दुआए अदीला
[5] एहतेजाज, जिल्द न. 2, पेज न. 597, नम्बर 359,
[6] इस्लामी हुकूमत में ग़ैर मुस्लिम से लिये जाने वाले टैक्स को जज़िया कहते हैं।
[7] बिहार उल अनवार, जिल्द न. 52, पेज न. 178
[8] . सरः ए तौबा, आयत न. 105,
[9] . उसूले काफ़ी, बाब अर्ज़ुल आमाल, पेज न. 171 ।
[10] . देखिए, कमालुद्दीन, जिल्द न. 2, बाब 45, पेज न. 235 ता 286
[11] . देखियेः कमालुद्दीन जिल्द न. 2, बाब 45, पेज न. 237 ।
[12] . बिहार उल अनवार, जिल्द न. 52, पेज न. 174
[13] . इस्बातुल हुदात, जिल्द न. 3 हदीस 112, पेज न. 463
[14] कमालुद्दीन, जिल्द न.2, बाब न.45, हदीस न. 4, पेज न. 239
[15] सूरः ए इन्फ़ाल, आयत न. 33
[16] . कमालुद्दीन, जिल्द न. 2, हदीस 12, पेज न. 171
[17] मुन्तखिब उल असर, फसल 10, बाब 7, नम्बर 6, पेज न. 658