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सहीफ़ए सज्जादिया का परिचय

सहीफ़ए सज्जादिया का परिचय

सहीफ़ए सज्जादिया जिसे, उख़्तुल क़ुरआन यानी क़ुरआने मजीद की बहन कहा जाता है इमाम ज़ैनुल आबेदीन अ. की वह दुआएं हैं जो आपने अपनी पूरी ज़िन्दगी ख़ास तौर से कर्बला के बाद पैंतीस साल तक के ज़माने की हैं। इस महान किताब के बारे में आयतुल्लाह सय्यद अली ख़ामेनाई की ज़बानी कुछ बातें उदाहरण के लिये पेश करते हैं।

हर दुआ एक पाठ

अगर आप सहीफ़ए सज्जादिया की दुवाओं को केवल दुआ की निगाह से न देखें तो आपको अंदाज़ा होगा कि उसकी हर दुआ एक दर्स और एक पाठ है, जो बातें और शिक्षाएं हमें क़ुरआने मजीद में मिलती हैं वह उसमें भी नज़र आती हैं। अगर आप नहजुल बलाग़ा में इमाम अली अ. के पहले ख़ुतबे को देखें जो कि तौहीद के बारे में है और फिर सहीफ़ए सज्जादिया की पहली दुआ को पढ़े और दोनों को मिलाकर देखें तो आपको नज़र आएगा कि यह दोनों एक जैसे हैं, कोई अंतर नहीं इन दोनों में। इमाम अली अ. नें लोगों के सामने भाषण दिया है और ख़ुदा के बारे में बातें की हैं और इमाम सज्जाद अ. नें दुआ की है और दुआ की ज़बान में वही बातें कहीं हैं।

दुआ के सांचे में

सहीफ़ए सज्जादिया एक अनोखी किताब है। इस किताब को पुराने ज़माने के उल्मा ज़बूरे आले मोहम्मद कहते हैं। यह किताब, दुआ भी है, प्रार्थना भी है और साथ ही इस्लामी शिक्षाओं का एक बहुत बड़ा ख़ज़ाना भी है। यानी यह केवल दुआ नहीं है बल्कि दुआ के फ़्रेम में तौहीद, नुबूव्वत, इमामत, क़यामत और दूसरी सारी इस्लामी शिक्षाएं इसमें बयान की गई हैं।

कुछ चीज़े ऐसी हैं जिन्हें केवल दुआ के अन्दाज़ में बयान किया जा सकता है, इसी लिये हमारे दीन की बहुत सी बातें और पाठ ऐसे हैं जो सहीफ़ए सज्जादिया और दूसरे इमामों की दुवाओं के अलावा कहीं नहीं मिलते। ऐसा नहीं है कि इमाम इन चीज़ों को खुलकर बयान नहीं करना चाहते थे इस लिये उसे दुआ में बयान किया बल्कि उसकी असली वजह यह है कि बहुत सी चीज़ों को केवल दुआ के अन्दाज़ में अच्छे ढ़ंग से बयान किया जा सकता है इसी लिये नहजुल बलाग़ा में या हदीस की दूसरी किताबों में इस तरह की बातें बहुत कम पाते हैं। सहीफ़ए सज्जादिया, दुआए कुमैल, मुनाजाते शाबानिया, इमाम हुसैन अ. की दुवाए अरफ़ा, इमाम सज्जाद अ. की दुआए अरफ़ा, दुवाए अबू हमज़ा सुमाली और दूसरी दुवाओं में सब कुछ है।

जितना हो सके सहीफ़ए सज्जादिया से क़रीब हों, यह बहुत महान किताब है, यह सच में आले मोहम्मद अ. की ज़बूर है, इसमें दुआ भी है और शिक्षा भी, उसमें अख़लाक़ का भी पाठ है और रूहानी बीमारियों का इलाज भी। उसमें इन्सान के अंदर पाये जाने वाली बीमारियों का भी ज़िक्र है जो इन्सान को खोखला करती हैं और उसका इलाज भी बताया गया है। इमाम सज्जाद अ. नें दुआ की ज़बान में हमें सब कुछ बताया है।

अगर कोई यह सोचता है कि वह उन चीज़ों (दुवाओं) के बिना अपने दिल को,अपने अंदर की दुनिया को पाक व साफ़ कर सकता है तो वह ग़लत सोचता है,रातों को उठ कर मुनाजात, क़ुरआने पाक की तिलावत, उसकी आयतों में विचार और सहीफ़ए सज्जादिया की दुवाओं को पढ़ने से इन्सान का दिल साफ़ होता है, ऐसा नहीं है कि हर चीज़ से आपका दिल साफ़ हो जाएगा जब तक यह सब नहीं होगा दिल साफ़ नहीं होगा।

इसमें सब कुछ है

मैं सभी मोमिनों को और ख़ासकर जवानों को यह उपदेश देता हूँ कि इस किताब को ज़रूर पढ़ें इस से घुल मिल जाएं क्योंकि इस किताब में सब कुछ है। जहाँ तक मैंने सहीफ़ए सज्जादिया को पढ़ा है और उसमें विचार किया है इसमें सब कुछ बहुत बहुत साफ़ और बहुत अच्छे ढ़ंग से बयान किया गया है। जैसे इमाम के सामने कोई बैठा हो और आप उसको बहुत लॉजिकल अंदाज़ में सब कुछ समझा रहे हों इस किताब में इमाम अ. नें ख़ुदा से जो प्रार्थना और मुनाजात की है वह भी ऐसी ही है।

इस्लामी अख़्लाक़ (सदाचार) और इमाम सज्जाद (अ)

इमाम सज्जाद अ. नें अपने ज़माने में सबसे ज़्यादा ज़ोर इस्लामी अख़्लाक़ की शिक्षा पर दिया उसकी क्या वजह थी? क्योंकि इमाम की नज़र में उस ज़माने की एक बहुत बड़ी मुश्किल अख़लाक़ी गिरावट थी जिसनें लोगों को इतना गिरा दिया था कि वह कर्बला में आकर अपने इमाम को क़त्ल करने पर भी तय्यार हो गए और उन्हें निर्दयता से क़त्ल भी किया। अगर लोगों का अख़्लाक़ अच्छा होता, वह इतना गिर न गए होते तो यज़ीद, इब्ने ज़ियाद और उमरे साद जैसे लोगों में इतनी हिम्मत नहीं थी कि इमाम अ. और उनके साथियों को क़त्ल करते। अगर लोगों के अन्दर इस्लामी अख़्लाक़ होता तो हुकूमत कैसी भी होती, कितनी भी बे दीन और बुरी क्यों न होती पैग़म्बर के दिल के टुकड़े, जनाबे फ़ातिमा ज़हरा के बेटे को क़त्ल करने की हिम्मत न की जाती। जब एक क़ौम का अख़्लाक़ बिगड़ जाता है वहाँ हर तरह की बुराई जन्म लेती है, इमाम सज्जाद अ. नें इस चीज़ को अच्छी तरह भाँप लिया इसी लिये उन्होंने कमर बाँध ली कि मुसलमानों का अख़्लाक़ ठीक करना है उन्हें उसकी शिक्षा देनी है, इसी लिये हम देखते हैं इमाम अ. नें दुवाए मकारिमे अख़्लाक़ के ज़रिये अख़्लाक़ सिखाया है।

ज़िन्दगी का फ़ार्मूला

सहीफ़ए सज्जादिया एक मोमिन की ज़िन्दगी का फ़ार्मूला है। इसमें इमाम नें जगह जगह ईमानी ज़िन्दगी के फ़ार्मूले बयान किये हैं जिनमें एक फ़ार्मूला यह है कि इन्सान को हमेशा ख़ुदा की रहमत से उम्मीद लगाए रखना चाहिये, उसकी रहमत से कभी मायूस नहीं होना चाहिये लेकिन साथ ही दिल में उसका डर होना चाहिये। हम क़ुरआने मजीद में भी देखते हैं कि कुछ आयतें रहमत का मैसेज देती हैं और कुछ दूसरी आयतें दिल में ख़ुदा का डर पैदा करने की बात करती हैं, ऐसा क्यों है?ऐसा इस लिये है ताकि इन्सान की ज़िन्दगी में बैलेंस रहे वह इतना ज़्यादा रहमत की आशा न करने लगे कि गुनाह के दलदल में फँस जाए या उसके अन्दर इतना ज़्यादा डर न बैठ जाए कि बिल्कुल मायूस हो जाए।

गुनाहों की माफ़ी की दुआ

रसूलल्लाह स. और इमामों की ज़िन्दगी में हम यह देखते हैं कि वह तौबा किया करते थे, इस्तिग़फ़ार (माफ़ी मांगना) किया करते थे जबकि हम जानते हैं कि वह गुनाह नहीं करते थे, उनसे ग़लतियाँ नहीं होती थीं, एक आदमी नें रसूलल्लाह को दुआ की हालत में रोते हुए देखा तो उसे आश्चर्य हुआ। उसने पूछा: ऐ अल्लाह के रसूल आपकी ज़िन्दगी तो गुनाहों से पाक है फिर आप रो क्यों रहे हैं? आपनें जवाब दिया: उस ख़ुदा का शुक्रिया अदा करने के लिये जिसनें मुझ पर इतनी बड़ी कृपा की है। सोचिये जब रसूलल्लाह स.अ. और इमामों की ज़िन्दगी में गुनाह नहीं है लेकिन फिर भी वह अल्लाह तआला से माफ़ी माँगते हैं तो हमें कैसे होना चाहिये, हम अच्छी तरह जानते हैं कि हमारी ज़िन्दगी के क़दम क़दम पर ग़ल्तियाँ हैं, गुनाह हैं, अवहेलनाएं हैं इसी लिये हमें हमेशा यह दुआ करनी चाहिये:


"رَبَّنَا فَاغفِر لَنَا ذُنُوبَنَا وَ کَفِّر عَنَّا سَیّیِئا تِنَا"


ख़ुदाया! हमारे गुनाहों को माफ़ फ़रमा और हमारी ग़ल्तियों को छिपा दे

 
"وَ تَوَفَّنَا مَعَ الاَبرَارِ"


और हमारी मौत और हमारा अन्जाम अच्छे लोगों के साथ हो, इससे पता चलता है कि इन्सान का अन्त बहुत महत्व रखता है उसका अन्जाम और अन्त सही होना चाहिये।

दुआ और जेहाद


हमारे सारे अइम्मा की दुवाएं किताबों में मौजूद हैं, शायद ही कोई इमाम हो जिसकी कोई दुआ न हो अलबत्ता एक चीज़ जिसकी मैंनें ख़ुद रिसर्च की है और मेरे लिये काफ़ी आश्चर्य का विषय रहा है वह यह है कि तीन इमाम ऐसे हैं जो जेहाद में व्यस्त रहे हैं और उन्हीं तीन इमामों नें सबसे ज़्यादा दुवाएं की हैं, पहले हज़रत अली अ. जिन्होंने कई जंगे लड़ीं हैं उनकी बहुत दुवाएं हैं जिनमें सबसे मशहूर दुआ दुवाए कुमैल है जो वास्तव में एक महान दुआ है, इसके बाद इमाम हुसैन अ. हैं जिन्होंनें यज़ीद का विरोध किया है उनकी भी बहुत सी दुवाएं हैं जिनमें दुवाए अरफ़ा बहुत मशहूर है, तीसरे इमाम ज़ैनुल आबेदीन अ. हैं जो इमाम हुसैन अ. के बेटे, कर्बला के मैसेज को पहुंचाने वाले और यज़ीद के दरबार में जेहाद करते हैं उनकी दुवाएं सबसे ज़्यादा हैं। इससे अन्दाज़ा होता है कि हमारे अइम्मा जहाँ ख़ुदा की इबादत किया करते थे वहीं समाज से बुराइयों को ख़त्म करने और इस्लाम व दीन के दुश्मनों से निपटनें के लिये जेहाद भी किया करते थे। वह अपनी निजी ज़िन्दगी में भी अपनी ज़िम्मेदारी निभाते थे और समाजी ज़िन्दगी में जो उनकी ज़िम्मेदारी बनती थी उससे से भी पीछे नहीं हटते थे। यह हमारे लिये उनकी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा दर्स है उनके मानने वालों और उनको अपना इमाम कहने वालों को ज़िन्दगी में किसी तरह बैलेंस रखना चाहिये कि वह अल्लाह से भी बे ख़बर न हों और इस्लाम और मुसलमानों के हालात से भी अवगत रहें।

 

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