शिया की परिभाषा और उसके विभिन्न अर्थों की जानकारी प्राप्त हो जाने के बाद अब शिया समुदाय के इतिहास और उसकी उत्पत्ति के बारे में अनुसंधान की आवश्यकता है। इस चर्चा पर सदैव सभी इस्लामी समुदायों, विशेष रूप से शिया संप्रदाय के बारे में अनुसंधान करने वालों का ध्यान केंद्रित रहा है और इस बारे में विभिन्न दृष्टिकोण सामने आए हैं। एक दृष्टिकोण तो यह है कि शिया समुदाय का आरम्भ अहदे रिसालत अर्थात इस्लामी ईशदूत के युग में ही हो चुका था। दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार शिया समुदाय का आरम्भ पैग़म्बरे इस्लाम के देहांत के बाद के आरम्भिक दिनों से सम्बंधित है। इन दो दृष्टिकोणों के अतिरिक्त और दूसरे दृष्टिकोण भी पाए जाते हैं जिनके बारे में अलग अध्याय में चर्चा की जाएगी
दृष्टिकोण सामने आए हैं। एक दृष्टिकोण तो यह है कि शिया समुदाय का आरम्भ अहदे रिसालत अर्थात इस्लामी ईशदूत के युग में ही हो चुका था। दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार शिया समुदाय का आरम्भ पैग़म्बरे इस्लाम के देहांत के बाद के आरम्भिक दिनों से सम्बंधित है। इन दो दृष्टिकोणों के अतिरिक्त और दूसरे दृष्टिकोण भी पाए जाते हैं जिनके बारे में अलग अध्याय में चर्चा की जाएगी।पहला दृष्टिकोण शिया विचारकों के एक गुट का विश्वास यह है कि शिया समुदाय का आरम्भ अहदे रिसालत अर्थात इस्लामी ईशदूत के युग में ही हो गया था। स्वंय पैग़म्बरे इस्लाम ने ही अपने शुभ हाथों से शिया समुदाय का पौधा लगाया और स्वंय उसकी सिंचाई करके उसे परवान चढ़ाया। इस दृष्टिकोण के समर्थन में निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किए जाते हैं।1. पैग़म्बरे इस्लाम के ऐसे बहुत से कथन प्रसारित हुए हैं जिनमें उन्होंने एक गुट की अली के शिया होने के कारण प्रशंसा व सराहना की है। इन हदीसों का निष्कर्षण यह है कि उस युग में कुछ ऐसे लोग भी थे जो हज़रत अली से विशेष सम्बंध रखते थे, आपसे आस्था व प्यार अभिव्यक्ति करते तथा उनका आज्ञापालन भी करते थे और आपके कथन व चरित्र को इसलिए आदर्श बनाते थे कि आपके व्यवहार व चरित्र को पैग़म्बरे इस्लाम का समर्थन प्राप्त है। 2. कुछ इतिहासिक सूचना स्रोंतों के अनुसार जनाबे सलमाने फ़ारसी, अबूज़रे ग़फ़्फ़ारी, मिक़दाद और अम्मारे यासिर जैसे रसूले इस्लाम के सखागण इस्लामी ईशदूत के युग में अली (अ.) के शिया के नाम से पहचाने जाते थे।3. पैग़म्बर से उद्धरित हदीसें जैसे हदीसे यौमुद्दार,(दावते ज़ुल-अशीरः) ,हदीसे ग़दीर, हदीसे मंज़िलत, हदीसे अलीयुन मअल हक़, अना मदीनतुल-इल्म जैसी हदीसें स्पष्ट रूप से हज़रत अली (अ.) की ख़िलाफ़त व इमामत को सिद्ध करती हैं। दूसरे क़ुरआनी आयात और बौद्धिक प्रमाण के अतिरिक्त यही हदीसें इमामत के मुद्दे में शियों के दृष्टिकोण की मूल आधार हैं। दूसरी ओर हज़रत अली (अ.) की बिला फ़स्ल इमामत ही तशय्यो का आधार है। हज़रत अली (अ.) और आपके शियों की प्रशंसा व सराहना से सम्बंधित पैग़म्बरे इस्लाम की हदीसों की ओर इशारा करने के बाद अल्लामा काशेफ़ुल ग़ेता फ़रमाते हैं : इन हदीसों का मतलब यह है कि पैग़म्बर के सखागणों में कुछ लोग अली के शिया (अ.) थे और अली (अ.) के शिया का मतलब यह नहीं है कि आपसे प्यार करते थे या आपसे शत्रुता नहीं करते थे। इसलिए कि किसी व्यक्ति से केवल प्यार करना या उससे घृणा न करना उस व्यक्ति का शिया कहलाने के लिए पर्याप्त नहीं है और अरबी शब्दकोष में शिया के यह अर्थ नहीं हैं बल्कि शिया का मतलब प्यार करने के अतिरिक्त उसका अनुसरण करना, उसके पदचिन्ह पर चलना है अगर शिया शब्द कहीं किसी और अर्थ में उपयोग हो तो अवास्तविक व कृत्रिम उपयोग होगा वास्तविक अर्थ में नहीं। इस आधार पर इन रिवायतों से यही ज़ाहिर होता है कि अस्हाबे पैग़म्बर के मध्य ऐसे लोग थे जो हज़रत अली (अ.) से विशेष निस्बत और विशेष सम्बंध रखते थे और आपके व्यवहार व चरित्र को पैग़म्बर की इच्छा के अनुरूप और उनकी शिक्षाओं की व्याख्या व स्पष्टीकरण का रूप देते थे और उनका विश्वास था कि अली (अ.) इस्लामी ईशदूत के रहस्यों के वाहक व निक्षेप ग्रहीता हैं। अल्लामा तबातबाई भी शिया समुदाय की उत्पत्ति के बारे में कहते हैं : शिया समुदाय की उत्पत्ति को जो आरम्भ में अली (अ.) के शिया के नाम से प्रसिद्ध हुआ, इस्लामी ईशदूत के युग से स्वीकार करना चाहिए। इस्लाम का निमंत्रण और 32 वर्ष पर आधारित प्रगति बहुत सी चीज़ों की मांग करता है अतः पैग़म्बर के सखागणों के मध्य ऐसे गुट (शिया) का आस्तित्व भी स्वाभाविक व नैसर्गिक है। अल्लामा तबातबाई ने उसके बाद उन हदीसों की ओर इशारा किया है जिनसे हज़रत अली (अ.) की इमामत, रसूले इस्लाम के सखागणों के मध्य आपके विशिष्ठ व्यक्तित्व और पैग़म्बरे इस्लाम से आपका विशेष सम्बंध स्पष्ट होता है, फिर अल्लामा तबातबाई लिखते हैं : स्पष्ट सी बात है कि ऐसी विशिष्ठ विशेषताएं और दूसरों पर आपकी प्रमुखता व श्रेष्ठता तथा पैग़म्बरे इस्लाम का आपसे प्रेमपूर्ण व्यवहार जैसे कारण, श्रेष्ठता व वास्तविकता के अनुरागियों को अली से प्यार करने और उनके अनुसरण द्वारा उनकी निकटता प्राप्त करने के लिए अग्रसर करते थे और दूसरी ओर यही श्रेष्ठताएं कुछ लोगों को आपसे शत्रुता करने का कारण भी बनीं और उन्हें आपके प्रति ईर्ष्या में ग्रस्त कर दिया। इन समस्त बातों के अतिरिक्त अली के शिया और अहलेबैत के शिया का उल्लेख, पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों में बहुत अधिक दिखाई देता है। इस दृष्टिकोण के बारे में मनन चिंतन करने से स्पष्ट हो जाता है कि ऐसा नहीं है कि इस्लामी ईशदूत के युग में मुसलमानों के मध्य इमामत का मसला चर्चा का विषय था और एक गुट ने हज़रत अली (अ.) की इमामत को स्वीकार कर लिया और दूसरे गुट ने स्वीकार नहीं किया इसलिए पहले गुट को शिया कहा गया ताकि यह कहा जा सके कि उस युग में इमामत का मुद्दा इस प्रकार से प्रस्तुत ही नहीं हुआ था और न ही इस बारे में कोई मतभेद उत्पन्न हुआ था बल्कि इस दृष्टिकोण से मुराद यह है कि उस युग में भी एक ऐसा गुट था जो हज़रत अली (अ.) के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों पर ध्यान केंद्रित किए हुए था और पैग़म्बर के निकट आपकी प्रतिष्ठा व महिमा को दृष्टिगत रखता था और आपको पैग़म्बरे इस्लाम के रहस्यों का ज्ञाता और उनकी शिक्षाओं का टीकाकार समझता था और इसी आधार पर आपसे प्यार करता और आपके अनुसरण को ही पैग़म्बर का अनुसरण समझता था। और यह वही गुट है जिसे पैग़म्बरे इस्लाम के देहांत के बाद अली (अ.) का विशिष्ठ समर्थक और अनुगामी कहा जाता था और इसी गुट को पैग़म्बर (स.) ने अली का शिया कहा है। दूसरा दृष्टिकोण गवेषकों व इतिहासकारों का एक गुट, शिया समुदाय की उत्पत्ति को पैग़म्बरे इस्लाम के देहांत के बाद ख़िलाफ़त व इमामत के मुद्दे में मतभेद या दूसरे शब्दों में सक़ीफ़ा बनी साएदा की घटना से सम्बंधित जानता है। इसलिए कि पहली बार सक़ीफ़ा बनी साएदा में ही पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकारी और मुसलमानों के पथप्रदर्शन व नेतृत्व के बारे में दो दृष्टिकोण सामने आए। अंसार के एक गुट ने साद बिन एबादः का नाम ख़िलाफ़त व इमामत के लिए प्रस्तुत किया जब कि मुहाजेरीन के एक गुट ने ख़िलाफ़त के लिए अबू बक्र के नाम का समर्थन किया और दोनों गुटों के मध्य वार्ता के बाद अबू बक्र के हक़ में फ़ैसला हो गया। उनके अतिरिक्त बनी हाशिम और कुछ अंसार व मुहाजेरीन पर आधारित मुसलमानों का एक गुट और था जो अली (अ.) की इमामत का विश्वासी था यही गुट अली के शिया था यहीं से शिया इस्लाम में एक मत व समुदाय के रूप में सामने आया। तीसरा दृष्टिकोण इस संदर्भ में एक तीसरा दृष्टिकोण भी पाया जाता है जो पिछले दो दृष्टिकोणों पर आधारित है और उन दोनों दृष्टिकोणों को एक वास्तविकता के दो भाग या दो चरण जानता है। इस तीसरे दृष्टिकोण के आधार पर पिछले दोनों दृष्टिकोण एक दूसरे के प्रति असंगत नहीं हैं बल्कि दोनों ने मुद्दे को एक विशेष दृष्टिकोण से देखा है और अपने अपने स्थान पर दोनों दृष्टिकोण सही और हदीसों, रिवायतों और इतिहासिक प्रमाणों से भी मेल खाते हैं। पहले दृष्टिकोण का मतलब यह है कि शिया
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