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हज़रत ख़दीजा का स्वर्गवास

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम द्वारा पैग़म्बरी की घोषणा के दसवें वर्ष रमज़ान महीने की १० तारीख़ और मक्का से मदीना पलायन से तीन वर्ष पहले हज़रत ख़दीजा का स्वर्गवास हुआ। उसी वर्ष पैग़म्बरे इस्लाम के चाचा और सरपरस्त हज़रत अबू तालिब अलैहिस्सलाम का भी स्वर्गवास हुआ। पैग़म्बरे इस्लाम इन दोनों हस्तियों के निधन से बहुत दुःखी हुए। इस प्रकार से कि उन्होंने इस वर्ष का नाम आमुल हुज़्न अर्थात दुःखों का वर्ष रखा। इस दुःखद अवसर पर हम आप सबकी सेवा में हार्दिक संवेदना प्रस्तुत करते हैं और आज
हज़रत ख़दीजा का स्वर्गवास

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम द्वारा पैग़म्बरी की घोषणा के दसवें वर्ष रमज़ान महीने की १० तारीख़ और मक्का से मदीना पलायन से तीन वर्ष पहले हज़रत ख़दीजा का स्वर्गवास हुआ। उसी वर्ष पैग़म्बरे इस्लाम के चाचा और सरपरस्त हज़रत अबू तालिब अलैहिस्सलाम का भी स्वर्गवास हुआ। पैग़म्बरे इस्लाम इन दोनों हस्तियों के निधन से बहुत दुःखी हुए। इस प्रकार से कि उन्होंने इस वर्ष का नाम आमुल हुज़्न अर्थात दुःखों का वर्ष रखा। इस दुःखद अवसर पर हम आप सबकी सेवा में हार्दिक संवेदना प्रस्तुत करते हैं और आज के कार्यक्रम में हज़रत खदीजा के जीवन के कुछ पहलुओं पर प्रकाश डालेंगे।
 
 
 
 
 
इस्लाम धर्म का इतिहास ऐसी आदर्श महिलाओं से भरा पड़ा है जो अपने समय में बहुत सारी कठिनाइयां सहन करके नैतिकता व अध्यात्म के शिखर पर पहुंची हैं। इस प्रकार से कि वे अपने बाद के हर समय के लिए उन लोगों के लिए आदर्श बन गयी हैं जो उनकी जीवन शैली अपना कर परिपूर्णता के शिखर पर पहुंचना चाहती हैं। इस प्रकार की आदर्श महिलाओं में से एक पैग़म्बरे इस्लाम की धर्म पत्नी हज़रत खदीजा सलामुल्लाह हैं।
 
हज़रत खदीजा ने २४ वर्षों तक वफादार, सच्ची और निष्ठावान धर्म पत्नी के रूप में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त किया। इस महान महिला ने पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी की घोषणा से पहले और उसके बाद बहुत कठिनाइयां सहन की और एक क्षण के लिए भी पैग़म्बरे इस्लाम से निश्चेत नहीं हुईं और अपने समय की समस्त कठिनाइयों का मुक़ाबला करके पैग़म्बरे इस्लाम की बेहतरीन सहायक व जीवनसाथी बनी रहीं।
 
पैग़म्बरे इस्लाम को जब आधिकारिक रूप से पैग़म्बरी की घोषणा का आदेश दिया गया और वे हेरा नाम की गुफा से नीचे उतरे तो हज़रत ख़दीजा उनके स्वागत के लिए गयीं और वह पहली महिला थीं जिन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी की पुष्टि की और उन पर दिलो- जान व पूरी निष्ठा से ईमान लायीं।
 
 
 
 
 
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने जब हज़रत ख़दीजा को सलाम किया तो उस महान महिला ने इस प्रकार कहा” मैं ईमान ले आयी। आपके पैग़म्बर होने पर पूर्ण विश्वास रखती हूं। मैंने इस्लाम धर्म को स्वीकार किया और मैं उसके समक्ष नतमस्तक हूं।“
 
हज़रत खदीजा ने आरंभ से ही सत्य को समझ लिया था और पूरे साहस के साथ उसे स्वीकार कर लिया और खुलकर उसकी घोषणा की।
 
हज़रत ख़दीजा बहुत बुद्धिमान और दूरगामी सोच रखने वाली महान महिला थीं और वह मक्का से मदीना पलायन से ६८ वर्ष पूर्व पवित्र नगर मक्के में पैदा हुई थीं। कुल और वंश आदि की दृष्टि से हज़रत ख़दीजा को अरब समाज और क़ुरैश में विशिष्ट स्थान प्राप्त था। हज़रत ख़दीजा इसी प्रकार परिपूर्णता, व्यक्तित्व और बड़प्पन की दृष्टि से अपने समय की समस्त महिलाओं की सरदार थीं। वह युवाकाल से ही अरब और हिजाज़ में सबसे प्रसिद्ध महिला थीं। क्योंकि वह हिजाज़ और अरब में पहली व्यापार करने वाली महिला थीं। वह व्यापार करने के साथ मानवीय विशेषताओं से सुसज्जित थीं। हज़रत ख़दीजा सलामुल्लाह अलैहा कभी भी व्यक्तिगत हितों और स्वार्थों के प्रयास में नहीं थीं इस आधार पर वह सदैव व्यापार में अवैध मुनाफ़े से परहेज़ करती थीं। इसी प्रकार वह अपने व्यापार को जमाख़ोरी, सूद और नाप तोल में कमी जैसी चीज़ से होने वाले लाभ से दूर रखती थीं। जिससे समाज के विभिन्न गुट व वग उन पर विश्वास करते थे। हज़रत ख़दीजा बहुत धनी महिला थीं। इतिहास में लिखा है कि हज़रत ख़दीजा के पास हज़ारों ऊंट थे जो उनके नौकरों के पास थे। इन ऊंटों से वे मिस्र, वर्तमान सीरिया और इथोपिया जैसे देशों में व्यापार वस्तुएं ले जाते थे।
 
 
 
 
 
 
 
हज़रत ख़दीजा जहां अरब समाज में एक बहुत पूंजीपति महिला थीं वहीं उन्हें एक आध्यामिक, पवित्र, त्यागी, ऊंची व दूरगामी सोच रखने वाली महिला के रूप में भी जाना जाता था। इस्लाम से पहले के काल में भी जब पाक दामनी को कोई विशेष महत्व नहीं था तब हज़रत ख़दीजा ताहेरा के नाम से प्रसिद्ध थीं। हज़रत ख़दीजा की पाक दामनी और उनके पास अत्यधिक सम्पत्ति इस बात का कारण बनी कि अरब के बहुत से प्रतिष्ठित व गणमान्य लोग उनसे विवाह करना चाहते थे परंतु हज़रत ख़दीजा दूरगामी सोच रखने वाली महान महिला थीं और वह सद्गुणों से सुसज्जित इंसान की खोज में थीं इसी कारण उन्होंने किसी के साथ विवाह करना स्वीकार नहीं किया और जिस किसी ने उनका हाथ मांगा उसे उन्हों ने मना कर दिया परंतु जब सच्चे, ईमानदार, अमीन और पवित्र हृदय जैसे सद्गुणों के स्वामी हज़रत मोहम्मद मुस्तफा जैसी महान हस्ती से परिचित हुईं तो खुद आगे आयीं और पैग़म्बरे इस्लाम के साथ अपने विवाह का प्रस्ताव दिया। उन्होंने जब पैग़म्बरे से भेंट की तो इस प्रकार कहा हे मोहम्मद मैंने आपको शरीफ, ईमानदार और सच्चा इंसान पाया जिसने स्वयं को पवित्र रखा और थोड़ी सी भी अपवित्रता की धूल आपके दामन पर नहीं पड़ी। आप का व्यवहार अच्छा है, आप सच बोलते हैं और सच बोलने से लेशमात्र भी नहीं डरते और आप मानवता के सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं करते और आपकी इन्हीं विशेषताओं ने मेरे ध्यान को इस प्रकार आकर्षित किया है कि मैं आपसे विवाह करना चाहती हूं। अगर आप मेरे प्रस्ताव से सहमत हैं तो मैं तैयार हूं आप जब भी उचित अवसर समझें मुझसे विवाह कर सकते हैं।“
 
 
 
 
 
हज़रत ख़दीजा ने २४ वर्षों तक पैग़म्बरे इस्लाम के साथ संयुक्त जीवन व्यतीत किया और उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम और के लिए अविस्मरणीय सेवाएं अंजाम दीं। हज़रत ख़दीजा हर समय पैग़म्बरे इस्लाम के साथ थीं चाहे वह ईश्वरीय संदेश उतरने का समय रहा हो या दूसरा। कोई अवसर पूरी क्षमता व निष्ठा से पैग़म्बरे इस्लाम के साथ खड़ी रहीं। इब्ने इसहाक़ ने पहली हिजरी शताब्दी की प्रसिद्ध किताब “सीरये नबवी” में लिखा है कि पैग़म्बरे इस्लाम जब भी कोई अप्रिय चीज़ देखते, या सुनते थे या उनके साथ अप्रिय बात हो जाती थी तो घर आने पर वे हज़रत ख़दीजा को बताते थे। ईश्वर हज़रत ख़दीजा के माध्यम से पैग़म्बरे इस्लाम से उस दुःख व पीड़ा को दूर करता था। हज़रत ख़दीजा सदैव पैग़म्बरे इस्लाम को ढ़ारस बंधाती थीं और अपनी समझदारी और होशियारी से पैग़म्बरे इस्लाम के दुःखों को दूर कर देती थीं। हज़रत ख़दीजा इस प्रकार की जीवन साथी थीं जो पैग़म्बरे इस्लाम की सहायक थीं और उनके दुःख-दर्द को दूर करती थीं। जिस दिन हज़रत ख़दीजा का स्वर्गवास हुआ था उस दिन मानो एक समझदार दुःख बटाने वाला, कृपालु व निष्ठावान सलाहकार चला गया।“
 
 
 
 
 
इसी किताब में एक अन्य स्थान पर आया है कि हज़रत खदीजा का आध्यात्मिक व नैतिक स्थान इतना ऊंचा था कि उन पर महान ईश्वर की विशेष कृपादृष्टि हुई। जैसाकि एक दिन ईश्वरीय संदेश उतरने के समय हज़रत जीब्राईल ने पैग़म्बरे इस्लाम से कहा हे पैग़म्बर ईश्वर के सलाम को खदीजा को पहुंचा दीजिये। पैग़म्बरे इस्लाम ने भी हज़रत खदीजा से कहा हे खदीजा जीब्राईल ईश्वर के सलाम को तुम्हें पहुंचा रहे हैं। उस समय हज़रत खदीजा ने भी उत्तर में कहा ईश्वर स्वयं सलाम है सलाम का आरंभ उससे है जीब्राईल पर भी सलाम हो।
 
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत खदीजा को बहुत चाहते थे। हज़रत खदीजा के स्वर्गवास के बाद पैग़म्बरे इस्लाम की एक पत्नी कहती है” हज़रत खदीजा के प्रति पैग़म्बरे इस्लाम के प्रेम से मैं सदैव बड़े आश्चर्य में रहती थी। क्योंकि पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत खदीजा को बहुत याद करते थे। यह याद करना इस सीमा तक था कि पैग़म्बरे इस्लाम जब किसी भेड़ की कुर्बानी करते थे तो हज़रत खदीजा की सहेलियों के पास गोश्त का एक भाग भिजवाते थे। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत खदीजा की इतनी अधिक प्रशंसा करते थे कि एक दिन मेरे धैर्य का बांध टूट गया और मैंने बड़े दुस्साहस के साथ कहा वह एक अधिक उम्र वाली महिला के अतिरिक्त कुछ नहीं थी और ईश्वर ने उनसे सुन्दर आपको दिया है!” मेरी इस बात से पैग़म्बरे इस्लाम इतना दुःखी हुए कि उनके क्रोध के चिन्ह उनके चेहरे से प्रकट होने लगे और उस समय उन्होंने मेरी ओर रुख किया और कहा पहली बात तो यह है कि ऐसा नहीं है। कदापि उनसे अच्छी पत्नी मुझे नहीं मिली है! खदीजा उस समय मुझ पर ईमान लायी थी जब सब लोग मेरा इन्कार करते थे और मूर्तियों की पूजा करते थे। उन्होंने कठिन समय में अपनी सारी सम्पत्ति मेरे हवाले कर दिया। ईश्वर ने मुझे उनसे ऐसी संतान दी जो मेरी दूसरी पत्नियों को नहीं दिया।“
 
 
 
 
 
हज़रत खदीजा से पैग़म्बरे इस्लाम इतना प्रेम करते थे कि जब तक हज़रत खदीजा जीवित थीं तब तक पैग़म्बरे इस्लाम ने किसी दूसरी महिला से विवाह नहीं किया। हज़रत खदीजा को महान ईश्वर ने क़ासिम नाम का एक बेटा प्रदान किया था जिसकी उपाधि ताहिर और तय्यब थी। इसी आधार पर पैग़म्बरे इस्लाम को अबुल क़ासिम  अर्थात क़ासिम का बाप कहा जाता है। बहुत कम उम्र में ही क़ासिम का निधन हो गया था। हज़रत फ़ातेमा ज़हरा भी हज़रत ख़दीजा की औलाद हें। हज़रत खदीजा और हज़रत फातेमा ज़हरा सलामुल्लाह के बीच का संबंध एक मां और बेटी के संबंध से बढ़कर था। जब हज़रत खदीजा का स्वर्गवास हुआ तो उस समय हज़रत फातेमा ज़हरा केवल पांच वर्ष की थीं और हज़रत ख़दीजा पैग़म्बरे इस्लाम के अकेले होने से बहुत चिंतित थीं उस समय हज़रत फ़ातेमा ज़हरा ने अपनी मां को ढ़ारस बंधाया और कहा मां दुःखी व परेशान न हो क्योंकि ईश्वर मेरे पिता का सरपरस्त है। MM


source : irib.ir
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