हे ईश्वर मैं तेरा आभार व्यक्त करता हूं कि आज तूने मुझे १२वां रोज़ा रखने का सामर्थ्य प्रदान किया है। मेरी तुझसे प्रार्थना है कि तू मुझे अपनी विशेष कृपा का पात्र बना।
इस्लामी मामलों के विशेषज्ञों का मानना है कि पवित्र क़ुरआन के जो भी आदेश हैं उनके आधार लोगों के हित हैं। यानी इस्लाम में जिन चीज़ों को अंजाम देने का आदेश दिया गया है उसमें लोगों के लिए भलाई है और जिन चीज़ों से रोका गया है उसमें लोगों के लिए हानि है दूसरे शब्दों में हराम- हलाल और दूसरे आदेशों के जो रहस्य हैं उन्हें महान ईश्वर जानता है और अकारण उसने किसी भी चीज़ को हराम- हलाल नहीं किया है। चिकित्सकों का मानना है कि शरीर और आत्मा के स्वास्थ्य में रोज़े का आश्चर्यजनक प्रभाव है।
अमेरिका के डाक्टर कार्लो इस संबंध में कहते हैं” इस्लाम धर्म में जो रोज़ा अनिर्वाय किया गया है वह शरीर के स्वस्थ रहने की सबसे बड़ी गैरन्टी है।“
ईरानी चिकित्सक डाक्टर पाक नेजाद का मानना है कि एक महीना रोज़ा रखने से इंसान के पास एक नया, मरम्मत किया हुआ और स्वतंत्र शरीर हो जाता है जो विशैले पदार्थों से से मुक्त होता है।“
एक अन्य चिकित्सक इस संबंध में कहते हैं” कुछ समय तक कम खाने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि ११ महीनों के दौरान अमाशय लगातार खानों से भरा रहता है और एक महीने तक रोज़ा रखने से वह अतिरिक्त पदार्थों को बाहर निकाल देता है यानी कम खाने- पीने से। यह स्वास्थ्य की सुरक्षा की बेहतरीन शैली है और उसने पारंपरिक एवं आधुनिक चिकित्सा शैली के ध्यान को अपनी ओर आकर्षित किया है। विशेषकर उन बीमारियों के उपचार में जो पाचनतंत्र विशेषकर यकृत को हो जाती हैं और उनका उपचार दवा से नहीं हो सकता। रोज़े के माध्यम से उनका उपचार होता है।“ अलबत्ता इन सब चीज़ों का सारांश पैग़म्बरे इस्लाम के दो छोटे छोटे वाक्य हैं। “अमाशय समस्त बीमारियों की जड़ है और परहेज़ उन सबके उपचार का बेहतरीन मार्ग है।“
रोज़ा न केवल इंसान के शरीर पर प्रभाव डालता है बल्कि वह इंसान की आत्मा पर भी प्रभाव डालता है। मनोवैज्ञानिकों के शोध व अध्ययन इस बात के सूचक हैं कि जो लोग अवसाद की बीमारी से ग्रस्त है उन्हें शीघ्र फायदा पहुंचाने में रोज़ा महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और रोज़ा रखने के परिणाम में जो भौतिक परिवर्तन होते हैं वे इन बीमारों के बेहतर होने की प्रक्रिया से समन्वित होते हैं।
रोज़ा इसी प्रकार अलज़ाइमर और स्मरण शक्ति की कमज़ोरी जैसी बीमारी के उपचार में भी प्रभावी होता है। क्योंकि आध्यात्मिक फायदे के अतिरिक्त रोज़ा स्मरण शक्ति को भी मज़बूत करता है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम फरमाते हैं” तीन चीज़ें बलग़म को समाप्त करती हैं और स्मरण शक्ति को अधिक करती हैं। दातून करना, रोज़ा रखना और कुरआन की तिलावत।“
हर उपासना विशेषकर रोज़ा इंसान के आध्यात्मिक पहलुओं को मज़बूत करने के साथ उसके ईमान को मज़बूत करता है। इसी तरह रोज़ा इंसान के मनोबल को ऊंचा उठाता है और वह आंतरिक समस्याओं व पीड़ाओं को कम करने में प्रभावी है।
अनुभव इस बात के सूचक हैं कि धार्मिक व्यक्तियों को अपने जीवन में मानसिक दबावों का कम सामना होता है। इसका कारण यह है कि धार्मिक व्यक्ति के अंदर कठिनाइयों व समस्याओं से मुकाबले की अधिक क्षमता होती है। जो इंसान महान ईश्वर पर भरोसा रखता है, ईश्वरीय निर्णय और सृष्टि के न्यायपूर्ण होने पर विश्वास रखता है वह कठिनाई के समय निर्णय लेने में संयम से काम लेता है और उसमें यह आशा व उम्मीद बनी रहती है कि महान ईश्वर उसकी अवश्य सहायता करेगा।
रोज़े के बहुत से लाभ हैं। रोज़ा इंसान के इरादे को मज़बूत करता है। यह रोज़ा रखने का एक लाभ है। रोज़ेदार को चाहिये कि वह रोज़े की हालत में भूख- प्यास के साथ बहुत से सांसारिक आनंदों की अनदेखी कर दे और अपनी अंतरात्मा व इच्छा को नियंत्रित करे। रोज़े का अभ्यास इंसान के इरादे को मज़बूत करता है और इंसान की आत्मा को सत्ता एवं इच्छाओं के वर्चस्व से मुक्त करता है।
इस्लाम की महान हस्तियों ने फरमाया है” बेहतरीन व्यक्ति वह है जो अपनी इच्छाओं से संघर्ष करता है और सबसे शक्तिशाली वह है जो उस पर विजय प्राप्त कर ले।“
रोज़ा विशेषकर पवित्र रमज़ान महीने का रोज़ा इस बात का कारण बनता है कि इंसान पर ग़लत व शैतानी इच्छाओं के स्थान पर ईश्वरीय आदेशों का राज हो जाता है। रोज़े के परिणाम में ही इंसान न केवल खाने- पीने से परहेज़ करता है बल्कि रोज़ेदार अपनी ज़बान, कान, आंख और शरीर के दूसरे अंगों को बुरे व ग़लत कार्यों से रोके कर रखता है। यही नहीं बहुत से रोज़ेदार स्वयं को पाप करने की भावना व सोचों से भी दूर रखते हैं और यह रोज़े का शिखर बिन्दु है।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम भी इसी दर्जे की ओर संकेत करते और फरमाते हैं”दिल का रोज़ा पापों की सोच से दूरी, खाने- पीने के पेट के रोज़े से बेहतर है अलबत्ता इसका यह मतलब नहीं है कि खाना- पीना छोड़ दिया जाये बल्कि आवश्यक है कि उस पर संतोष न किया जाये और उसके साथ रोज़े के आध्यात्मिक लाभों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाना चाहिये। हज़रत ईसा मसीह भी इस बारे में कहते हैं” अपने पेट को खाली रखो तो शायद अपने पालनवाले को दिल की नज़रों से देख लो”।
रोज़े का एक लाभ धैर्य है। इंसान को व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में सदैव कठिनाइयों का सामना होता है और धैर्य की विशेषता के बिना कठिनाइयों का सामना सरल नहीं है। धैर्य इंसान की प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करता है और उसके इरादे को मज़बूत बनाता है। वास्तव में रोज़ा इंसान के भीतर धैर्य की शक्ति में वृद्धि करता है। पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं” रोज़ा आधा धैर्य है”।
इस आधार पर रोज़ेदार रोज़ा रखकर धैर्य की आदत डालता है विशेषकर गर्मी के दिनों में जब इंसान रोज़ा रखता है तो उसके अंदर धैर्य की भावना अधिक मज़बूत होती है क्योंकि उसे इन दिनों में अधिक भूख- प्यास सहन करनी पड़ती है।
इसी विशेषता के दृष्टिगत पवित्र क़ुरआन में रोज़े को धैर्य के नाम से याद किया गया है। महान ईश्वर पवित्र क़ुरआन में कहता है” नमाज़ और धैर्य से काम लो”। हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम पवित्र क़ुरआन की इस आयत की व्याख्या में कहते हैं कि इस आयत में धैर्य से तात्पर्य रोज़ा है और जब भी इंसान को कठिनाई पेश आये तो उसे रोज़ा रखना चाहिये क्योंकि ईश्वर कहता है कि रोज़े और नमाज़ के माध्यम से सहायता चाहो“ पैग़म्बरे इस्लाम ने भी रमज़ान के महीने का नाम धैर्य का महीना रखा है और फरमाया है” रमज़ान धैर्य का महीना है और धैर्य का फल स्वर्ग है।“
इसी प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम एक अन्य स्थान पर फरमाते हैं” जो रमज़ान के महीने में ईश्वर की कृपा व दया की आशा के साथ रोज़ा रखे तो उसके अतीत के पाप माफ़ कर दिये जायेगें।“ रमज़ान के पवित्र महीने में इंसान महान ईश्वर की आशा के साथ रोज़ा रखता है और अपने पापों से प्रायश्चित करता है। महान ईश्वर की कृपा व दया की आशा वह चीज़ है जो मोमिनों को मुक्ति प्रदान करेगी। इसका यह अर्थ है कि इंसान को यह आशा नहीं रखनी चाहिये कि वह अपने भले कर्मों के माध्यम से स्वर्ग में जायेगा बल्कि यह महान ईश्वर की असीम कृपा है जिसकी वजह से उसे नरक से मुक्ति मिलेगी और वह स्वर्ग में जायेगा। जिस सीमा तक महान ईश्वर से आशा रखने की प्रशंसा की गयी है उसी सीमा तक उसकी कृपा से निराशा की भी निंदा की गयी है। महान ईश्वर की कृपा से निराशा को महापाप बताया गया है। अगर कोई इंसान पाप करने में व्यस्त हो तब भी उसे महान ईश्वर की कृपा से निराश नहीं होना चाहिये। क्योंकि अगर पाप करने वाला व्यक्ति महान ईश्वर की कृपा से निराश हो जायेगा तो वह पाप करने में किसी प्रकार के संकोच से काम नहीं लेगा परंतु अगर वह महान ईश्वर की कृपा के प्रति आशान्वित रहेगा तो पाप करने में संकोच से काम लेगा दूसरे शब्दों में वह पाप कम करेगा और महान ईश्वर की कृपा प्राप्त करने का प्रयास करेगा।
इतिहास में आया है कि प्राचीन समय में एक उपासक था जिसने शहर के बाहर ६ सौ साल तक उपासना की थी। हर रोज़ दिन को रोज़ा रखता था और रात को उपासना करता था। उसका घर एक नहर के किनारे था जिसका वह पानी पीता था। उसके घर के पास एक अनार का पेड़ उगा था जिसका वह अनार खाता था। उसने महान ईश्वर से प्रार्थना की कि उसकी जान निकाल ली जाये ताकि वह महान ईश्वर की न्याय की बारगाह में उपस्थित हो। हज़रत जीब्राईल ने यह घटना पैग़म्बरे इस्लाम को सुनाई और पैग़म्बरे इस्लाम ने लौहे महफ़ूज़ में अर्थात वह स्थान जहां ब्रह्मांड में होने वाली समस्त बातें लिखी हैं, देखा कि प्रलय है और ईश्वर ने उपासक से कहा” मेरी दया व कृपा से स्वर्ग में प्रविष्ट हो जा”। उपासक को अपनी उपासना पर घमंड हुआ और उसने कहा तो ६ सौ साल तक मैंने जो तेरी उपासना की थी उसका क्या होगा कि अब मैं तेरी कृपा से स्वर्ग में प्रविष्ट हूं? ईश्वर आदेश देता है कि उसके कर्मों का फिर से हिसाब- किताब किया जाये और ईश्वर के न्याय के साथ उसे प्रतिफल दिया जाये। अंत में उससे कहा गया कि ६ सौ साल तक तुमने जो उपासना की और आभार व्यक्त किया वह एक अनार की बराबरी भी नहीं करता इसके बाद उससे दोबारा कहा गया कि दूसरी नेमतों का आभार कहां है जिनसे तुम लाभ उठाते थे? उपासक ने शर्मीन्दगी से सिर नीचे झुका लिया और समझ गया कि शेष नेमतों का शुक्र अदा न करने के कारण उसका स्थान नरक है। इसके बाद वह प्रार्थना करने और गिड़गिड़ाने लगा और कहा कि ईश्वर अपनी कृपा का व्यवहार कर न अपने न्याय का उसके बाद महान ईश्वर ने उस पर अपनी कृपा की और उसे स्वर्ग में प्रविष्ट कर दिया। MM
source : irib.ir