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Monday 29th of July 2024
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आशूरा- वास्तुकला

इस कार्यक्रम में हम कर्बला, इमाम हुसैन (अ) और उनके साथियों की शहादत की याद में निर्माण किए जाने वाले पवित्र स्थलों जैसे कि इमाम बाड़ा और सक्क़ा ख़ाने अर्थात प्याऊ का विवरण पेश करेंगे। समाज, परिवार और जलवायु परिस्थितियों की भांति धर्म भी मनुष्य की जीवन शैली को प्रभावित करता है। इसका मतलब यह है कि ईसाई व्यक्ति ईसाई धर्म की शिक्षाओं से प्रभावित होता है और वह अपनी दिनचर्य की आवश्यकताओं में इन शिक्षाओं को दृष्टिगत रखता है, इसी तरह मुसलमान व्यक्ति अपने जीवन में इस्लाम धर्म के सिद्धांतों से प्रभावित
आशूरा- वास्तुकला

इस कार्यक्रम में हम कर्बला, इमाम हुसैन (अ) और उनके साथियों की शहादत की याद में निर्माण किए जाने वाले पवित्र स्थलों जैसे कि इमाम बाड़ा और सक्क़ा ख़ाने अर्थात प्याऊ का विवरण पेश करेंगे।
 
समाज, परिवार और जलवायु परिस्थितियों की भांति धर्म भी मनुष्य की जीवन शैली को प्रभावित करता है। इसका मतलब यह है कि ईसाई व्यक्ति ईसाई धर्म की शिक्षाओं से प्रभावित होता है और वह अपनी दिनचर्य की आवश्यकताओं में इन शिक्षाओं को दृष्टिगत रखता है, इसी तरह मुसलमान व्यक्ति अपने जीवन में इस्लाम धर्म के सिद्धांतों से प्रभावित होता है और उनके अनुपालन का प्रयास करता है।
 
धार्मिक स्थलों को किसी भी धर्म के अनुयायियों के विश्वासों का प्रतीक माना जाता है तथा उस धर्म के अनुयायियों के विश्वासों के साथ उनका मज़बूत संबंध होता है। आशूरा की घटना मानव इतिहास में एक असमान्य घटना है, तथा उससे मिलने वाले पाठ जैसे कि अत्याचार से मुक़ाबला एवं सम्मानजनक मौत अपमानजनक जीवन से बेहतर है, उसे एक समयसीमा से ऊपर उठाकर हर युग एवं हर स्थान के लिए एक संस्कृति के रूप में पेश करते हैं। आशूरा संस्कृति से प्रभावित निर्माणकार्य एवं वास्तुकला शिया समुदाय के अतिरिक्त किसी और समाज में देखने को नहीं मिलती और उनकी निर्माण शैली एक प्रकार से उस घटना की याद दिलाती है।
 
ईरान के शहरों और गांवों में हुसैनिये अर्थात इमामबाड़े देखने को मिलते हैं जो अच्छी तरह परिभाषित हैं और आशूरा की घटना से उनका मज़बूत संबंध है। इमामबाड़े इमाम हुसैन (अ) की अज़ादारी अर्थात शोक सभाओं के आयोजन से विशेष होते हैं तथा पुराने शहरों में शहर के मुख्य मार्गों या बाज़ार में स्थित होते हैं कि जो शहर का प्रमुख स्थान माने जाते हैं। मस्जिदों के विपरीत इमामबाड़ों में महराब नहीं होती, इससे मस्जिद और इमामबाड़े के प्रयोग का अंतर स्पष्ट हो जाता है।
 
इमामबाड़ों के नामों से पता चलता है कि उनके निर्माता सामान्य रूप से शहरों में रहने वाले धनी एवं प्रभावशाली व्यक्ति रहे हैं। इन लोगों ने इमामबाड़ों से विशेष इमारतें निर्माण करवायीं और कभी कभी यह लोग अपने निवास को मोहर्रम के महीने में इमाम हुसैन (अ) की अज़ादारी और उससे संबंधित कार्यक्रमों के आयोजन के लिए विशेष कर दिया करते थे और उन्हें मजलिसों एवं शोक सभाओं के लिए वक़्फ़ कर दिया कर देते थे। यही कारण है कि अनेक राजकुमारों एवं धनी लोगों के घर इस प्रकार से बनाए जाते थे कि आंगन में छाया की व्यवस्था कर के मजलिसों एवं सभाओं का आयोजन किया जाता था।
 
इमामबाड़े का भीतरी भाग अधिकतर तीन भागों में विभाजित होता है। आंगन को अब्बासिया कहा जाता है और वहां इमाम हुसैन (अ) के भाई एवं सेनापति हज़रत अब्बास अलमदार से संबंधित कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है, इमामबाड़े के पीछे के कमरे कि जन्हें ज़ैनबिया कहा जाता है महिलाओं के लिए विशेष होते हैं। स्थायी इमामबाड़ों के अलावा, मोहर्रम के महीने में ईरान के शहरों और गांवों में बड़ी संख्या में अस्थायी इमामबड़ों की व्यवस्था की जाती थी। सड़कों के किनारे एक विशेष स्थान को तैयार करना और उन पर नौहे, मरसिये अर्थात शोक गीत एवं दुआएं लिखे हुए बैनर लगाना, वास्तव में यह धार्मिक वास्तुकला का वह रूप है कि जिसे केवल आशूरा अर्थात कर्बला संस्कृति को समझकर ही समझा जा सकता है और उससे संबंध स्थापित किया जा सकता है।
 
ईरानी वास्तुकला संस्कृति में आशूरा संस्कृति का दूसरा प्रभाव सक़्क़ाख़ाने या प्याऊ का निर्माण है। प्याऊ, सार्वजनिक रास्तों में उस छोटे से स्थल को कहते हैं कि जिसे स्थानीय लोग राहगीरों को पानी पिलाने के लिए बनाते थे। इस छोटी सी कोठरी में सभी के लिए ठंडा और स्वच्छ पानी उपलब्ध कराया जाता है। प्याऊ के निर्माण का प्रचलन शियों द्वारा कर्बला के शहीदों और प्यासों की याद में हुआ और यह एक पुण्य का कार्य समझा जाता है। प्याऊ में एक बड़ा सा घड़ा रखा जाता था जिसमें पीने का पानी डाला जाता था और उसके पास ज़ंजीर से बांधकर प्याले रखे जाते थे। कुछ प्याऊ स्थायी थे और कुछ विशेष अवसरों विशेष रूप से मोहर्रम के महीने में मातम और अज़ादारी करने वालों के लिए स्थापित किए जाते थे। रात में गुज़रने वालों का ध्यान प्याऊ की ओर दिलाने हेतु प्याऊ के पास दीप जलाये जाते थे कि जिन्हें बाद में पवित्रता का स्थान प्राप्त हो गया और लोग अपनी मनोकामना और मन्नत के पूरा होने की आशा में प्याऊ में दीप जलाते थे।
 
जो लोग सक़्क़ाख़ाने या प्याऊ जाते हैं और वहां प्रार्थना करते हैं धर्म में आस्था रखने वाले एवं एक प्रकार से धर्म पर गहरा विश्वास रखते हैं। वे लोग कर्बला की घटना एवं आशूरा अर्थात 10 मोहर्रम के दिन पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिजनों के दुख दर्द की याद में इन स्थलों का सम्मान करते हैं और इस प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पवित्र परिजनों विशेषकर इमाम हुसैन (अ) के प्रति अपनी आस्था एवं प्रेम को प्रकट करते हैं।
 
ग़ौरतलब है कि यद्यपि वर्तमान समय में सक्क़ाख़ानों के निर्माण का प्रचलन नहीं है लेकिन जिन स्थानों पर लोगों के पानी पीने की व्यवस्था की जाती है वहां अच्छी एवं सुन्दर लिपि में इमाम हुसैन (अ) की याद में कथन लिखे हुए होते हैं कि जो इसी प्रकार लोगों के हृदयों में आशूरा संस्कृति का दीप जलाये हुए हैं।


source : irib
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