मुहर्रम महीने की 12 तारीख़, इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम का शहादत दिवस है। उनका उपनाम सज्जाद है। करबला की हृदय विदारक घटना के बाद इमाम सज्जाद को सन 61 हिजरी में इमाम हुसैन का उत्तराधिकारी निर्धारित किया गया। सन 94 हिजरी क़मरी को तत्कालीन उमवी शासक हेशाम बिन अब्दुल मलिक के उकसावे पर उन्हें ज़हर देकर शहीद कर दिया गया। इमाम ज़ैनुल आबेदीन का उपनाम सज्जाद इसलिए पड़ा क्योंकि वे बहुत ज़्यादा उपासना और लंबे-लंबे सजदे किया करते थे। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम अधिकतर समय ईश्वर की उपासना में लीन रहा करते थे और राजनैतिक एवं सामाजिक गतिविधियों से दूर रहते थे जबकि इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने वही मार्ग अपनाया जिसपर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम चलते थे। उन्होंने ईश्वरीय संदेश को लोगों तक पहुंचाने में अथक प्रयास किये। 35 वर्षों तक संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करने के बाद एक कथनानुसार आज ही के दिन अर्थात 12 मुहर्रम को इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम शहीद हो गए।
सन 61 हिजरी को जो इमाम हुसैन का जो कारवां करबला में था उसमें इमाम सज्जाद भी थे। करबला पहुंचने से कुछ ही समय पूर्व इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम बीमार हो गए और करबला की हृदयविदारक घटना घटने के कुछ दिन बाद तक वे बीमार रहे। बाद में उन्हें करबला के बंदियों के साथ शाम ले जाया गया।
इमाम सज्जाद के काल में इस्लामी समाज की परिस्थितियां इतनी जटिल हो चुकी थीं कि उन्हें इस्लामी इतिहास की जटिलतम परिस्थितियां कहा जाता है। हालांकि इससे पहले से ही इस्लामी शासन, किसी सीमा तक तानाशाही में परिवर्तित हो चुका था। उनके काल में स्थिति एसी हो गई थी कि ओमवी शासक, इस्लामी मान्यताओं का निरादर सार्वजनिक रूप से करने लगे थे। वे लोग खुलकर इस्लामी नियमों को कुचल रहे थे और किसी में भी उनके विरूद्ध कुछ कहने का साहस नहीं था। करबला की दुखद घटना के घटने के बाद लोगों की समझ में यह बात आ गई थी कि उमवी शासक विशेषकर मोआविया का पुत्र यज़ीद, अपनी सत्ता को बचाने के लिए सबकुछ कर सकता है क्योंकि उसने पैग़म्बरे इस्लाम के नवासे इमाम हुसैन जैसे महान व्यक्ति को भी नहीं छोड़ा। उस काल की एक अन्य समस्या यह थी कि इस्लामी जगत वैचारिक पतन की ओर उन्मुख हो चुका था। लोगों के भीतर धार्मिक शिक्षाओं के प्रति लगाव कम होता जा रहा था साथ ही आध्यात्मिक बातों की ओर झूकाव में भी कमी आती जा रही थी। इअस्लाम के बारे में लोगों की आस्था कमज़ोर पड़ती दिखाई दे रही थी और वे केवल इस्लाम की विदित बातों को ही अपना रहे थे। इस प्रकार इमाम सज्जाद के काल में इस्लामी समाज तेज़ी से पतन की ओर उन्मुख हो चुका था। आएशा बिन्ते तल्हा नामक एक गायिका के तवाफ़ की घटना इसी बात की पुष्टि करती है जो अपने काल के संबोधकों को आकर्षित करने में दक्ष थी।
बताया जाता है कि एक बार यह महिला, काबे का तवाफ़ कर रही थी उसी समय अज़ान का समय हो गया। उस समय “आएशा बिन्ते तल्हा” ने तत्कालीन मक्का के शासक “हारिस बिन ख़ालिद मख़ज़ूमी” को संदेश भिजवाया कि अज़ान न कही जाए ताकि मेरा तवाफ़ समाप्त हो जाए। इस गायिका की मांग को मानते हुए मक्के के तत्कालीन शासक ने वैसा ही किया अर्थात अज़ान रुकवा दी। लोगों ने उससे कहा कि क्या तुम किसी एक व्यक्ति के तवाफ़ के लिए लोगों की नमाज़ में विलंब करवाओंगे। इसपर मक्का के शासक “हारिस बिन ख़ालिद मख़ज़ूमी” ने कहा कि जबतक उसका तवाफ़ समाप्त न हो जाए मैं यही कहूंगा कि अज़ान को रोक दिया जाए चाहे सुबह ही क्यों न हो जाए। इसका दूसरा उदाहरण “उमर बिन अबी रबीआ” का है। वह एक कवि था जो प्रेम के बारे में शेर कहा करता था। हज के अवसर पर जब लोग ईश्वर की उपासना में व्यस्त होते थे तो वह छिपकर बैठ जाता और हज में आने वाली महिलाओं की सुन्दरता के बारे में शेर कहा करता था। लोग उसकी इस हरकत के कारण उसे पसंद नहीं करते थे लेकिन जब उसकी मृत्यु हुई तो मदीने में सार्वजनिक शोक की घोषणा की गई।
इन जटिल परिस्थितियों में इमाम सज्जाद ने समाज के मार्गदर्शन का दायित्व संभाला था। अब उन्हें इस्लाम को निश्चित पतन से बचाना था। करबला की घटना के बाद इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम को क़ैदी बनाकर कूफ़ा ले जाया गया। कूफ़े के शासक “उबैदुल्लाह इब्ने ज़ियाद” ने, जिसने आदेश दिया था कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के परिवार के समस्त पुरुषों की हत्या कर दी जाए, जब इमाम सज्जाद को अपने सामने देखा तो बहुत ही आश्चर्य से पूछा कि किया हुसैन बिन अली की ईश्वर ने हत्या नहीं की? इसपर इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने कहा कि मेरा एक भाई था जिसका नाम भी अली था और लोगों ने उसको शहीद कर दिया। यह सुनकर उसने बहुत ही क्रोध से कहा कि उसे लोगों ने नहीं बल्कि ईश्वर ने मारा। “उबैदुल्लाह इब्ने ज़ियाद” की बात सुनकर इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने पवित्र क़ुरआन के सूरए ज़ोमर की 42वीं आयत पढ़ी जिसका अर्थ है कि ईश्वर ही हर एक को मारता है और कोई भी उसके आदेश के बिना नहीं मरता। कूफ़े के शासक को इस प्रकार के उत्तर की अपेक्षा नहीं थी इसलिए वह बहुत क्रोधित हुआ। “उबैदुल्लाह इब्ने ज़ियाद” ने आदेश दिया कि इमाम सज्जाद का सिर, धड़ से अलग कर दिया जाए। यह सुनकर इमाम ने कहा कि क्या तुम मुझको मारने की धमकी दे रहे हो? ईश्वर के मार्ग में मारा जाना हमारे लिए गौरव की बात है। हम मौत से नहीं डरते। इमाम सज्जाद के इस प्रकार से उत्तर से “उबैदुल्लाह इब्ने ज़ियाद” अपनी बात से पीछे हट गया और उसने इमाम हुसैन के कारवां को शाम भेजने का आदेश दिया जहां पर यज़ीद रहता था।
शाम पहुंचने के बाद जब यज़ीद के दरबार में यज़ीद के एक चाटुकार वक्ता ने यज़ीद सहित उमवी शासकों की प्रशंसा और इमाम सज्जाद की आलोचना करनी आरंभ की तो इसपर इमाम चुप नहीं बैठे। उन्होंने यज़ीद के चाटुकार वक्ता को संबोधित करते हुए कहा कि तू लोगों को प्रसन्न करने के लिए ईश्वर की अप्रसन्नता मोल ले रहा है। इस प्रकार तू नरक में अपना ठिकाना बना रहा है। उसके बाद इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम मिंबर पर गए और वहां से उन्होंने पहले ईश्वरीय मार्गदर्शन की व्याख्या की और इमाम हुसैन की शहादत का उल्लेख किया। इसके बाद उन्होंने यज़ीद की उपस्थिति में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत में उमवी शासक की भूमिका और स्वयं यज़ीद की करतूतों को उजागर किया।
इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम के जीवनकाल का अधिकांश समय “अब्दुल मलिक बिन मरवान” नामक शासक के शासनकाल में गुज़रा। उसने 21 वर्षों तक शासन किया। “अब्दुल मलिक बिन मरवान” बहुत की क्रूर और निर्दयी शासक था। वह अधर्मी था। एक बार “अब्दुल मलिक बिन मरवान” ने कहा था कि यदि कोई मुझसे ईश्वरीय भय या तक़वे के बारे में बात करेगा तो मैं उसी स्थान पर उसकी हत्या कर दूंगा। “अब्दुल मलिक बिन मरवान” ने ही अपने काल के एक दरिंदे एवं हत्यारे “हज्जाज बिन यूसुफ़े सक़फ़ी” को, जो पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों का खुला हुआ शत्रु था, इमाम और उनके परिजनों को सताने और परेशान करने के लिए नियुक्त कर रखा था।
इन जटिल और विषम परिस्थितियों में इमाम सज्जाद ने तार्किक ढंग से इस्लाम को पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया था। वे शुद्ध इस्लाम को लोगों तक पहुंचाने के लिए अपनी बातों को उपदेश के रूप में प्रस्तुत किया करते थे। यह वह शैली थी जिससे तत्कालीन अत्याचारी शासन अधिक संवेदनशील नहीं होता था। अपनी इस शैली के माध्यम से इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम अच्छी बातों को न केवल आम लोगों तक बल्कि “हज्जाज बिन यूसुफ़े सक़फ़ी” जैसे अत्याचारियों तक पहुंचाते थे। उदाहरण स्वरूप जब “हज्जाज बिन यूसुफ़े सक़फ़ी” ने पवित्र काबे पर आक्रमण किया तो इमाम ज़ैनुल आबेदीन से उससे कहा था कि तूने इब्राहीम और इस्माईल की धरोहर का इस प्रकार से अनादर किया कि मानो वह तेरी संपत्ति है। इमाम सज्जाद के इस वाक्य का प्रभाव निर्दयी “हज्जाज बिन यूसुफ़े सक़फ़ी” पर इतना अधिक हुआ कि उसने उसी समय आदेश दिया कि आक्रमण में उनके हाथ जो कुछ लगा है उसे वे यहां पर वापस लौटाएं।
इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम अपनी बहुत सी बातों को उपदेशों के अतिरिक्त दुआ या प्रार्थना के माध्यम से भी ब्यान करते थे। उनकी दुआओं के संकलन को “सहीफ़ए सज्जादिया” के नाम से जाना जाता है। करबला की घटना को जीवित रखने और उसे विश्व वासियों तक पहुंचाने में इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम की महत्वपूर्ण भूमिका है। करबला की अमर घटना को सार्वजनिक करने में इमाम सज्जाद अग्रणि रहे हैं। एक बार एक व्यक्ति ने इमाम से पूछा कि आप बहुत रोते हैं क्या आपके दुख का अंत नहीं है? उस व्यक्ति के जवाब में इमाम सज्जाद ने कहा कि ईश्वर के दूत हज़रत याक़ूब के 12 बेटों में से केवल एक बेटा खो गया था। अपने एक बेटे यूसुफ़ के वियोग में हज़रत याक़ूब इतना रोए कि उनकी देखने की शक्ति समाप्त हो गई थी। हालांकि हज़रत याकूब को पता था कि यूसुफ़ जीवित हैं जबकि मैंने अपने पिता, अपने चाचा और भाइयों के शवों को देखा है जो जलती हुई ज़मीन पर पड़े थे। अब यह बताओ कि यह कैसे संभव है कि मेरा दुख शीघ्र समाप्त हो जाए?