इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने २ मुहर्रम सन ६१ हिजरी को करबला मे क़दम रखा था और समय बीतने के साथ ही साथ वे अपने लक्ष्य को संसार के सामने स्पष्ट करते जा रहे थे। प्रचार और प्रसार माध्यम के रूप में केवल इमाम हुसैन के वे साथी थे जो अपने पत्रों को उनके विभिन्न मित्रों को पहुंचा रहे थे या फिर वे लोग जो वहीं करबला में उनके साथ कठिनाइयों में जीवन व्यतीत कर रहे थे। इमाम हुसैन की ओर से जिन लोगों को पत्र भेजे गए थे उनमें से कुछ लोग ही स्वयं को इमाम हुसैन की शहादत से पूर्व करबला पहुंचा सके थे। यही कारण था कि इस समय काम उन्हें करना था जो करबला में इमाम हुसैन के साथ उपस्थित थे और उनका मुख्य काम, अपने महान चरित्र द्वारा शत्रु सेना की दिन प्रतिदिन बढ़ी संख्या को प्रभावित करना था। उदाहरण स्वरूप इमाम हुसैन के साथियों में एसे शूरवीरों की कमी नहीं थी जो अकेले सैकड़ों से लड़ सकते थे। शत्रु को पूरी तरह से इस बात का ज्ञान था और इसलिए कूफ़े में यज़ीद का राज्यपाल इब्ने ज़ियाद, करबला में अधिक से अधिक सेना भेज रहा था। दूसरी ओर अपने जवानों को हुसैन का आदेश यह था कि हमारी ओर से कोई एसा क़दम न उठने पाए कि इतिहास यह लिखे कि हुसैन ने युद्ध आरंभ किया। हुसैन भविष्य के समाजों के लिए इतिहास रच रहे थे और संसार को न्याय की स्थापना की विधि सिखा रहे थे जबकि यज़ीद को इस बात की जल्दी थी कि जैसे भी हो वह हुसैन से युद्ध करके और उनको, उनके थोड़े से साथियों सहित मौत के घाट उतार कर अपने हितों की पूर्ति कर ले। उनकी दृष्टि में यह सांसारिक जीवन ही सबकुछ था।
२ मुहर्रम से ९ मुहर्रम तक इमाम हुसैन ने शत्रु को युद्ध आरंभ करने का कोई अवसर नहीं दिया। यहां तक कि इमाम हुसैन पर दबाव बढ़ाने के लिए सात मुहर्रम से पानी बंद कर दिया गया था। परन्तु न तो हुसैन, यज़ीद की बैअत अर्थात आज्ञापालन की प्रतिज्ञा पर तैयार हुए और न ही उन्होंने पानी के लिए युद्ध किया। यह स्थिति देखकर शत्रु की सेना के कई लोगों के हृदय, हुसैन के ईश्वरीय आन्दोलन की ओर खिंचने लगे। इस स्थिति के कारण शत्रु ने खीजकर युद्ध की घोषणा कर डाली। यह ९ मुहर्रम की तारीख थी। इमाम हुसैन ने अपने साथियों के साथ परामर्श किया और फिर शत्रु से यह कहकर एक रात का समय मांगा कि यह रात हमें अन्तिम बार अपने ईश्वर की उपासना के लिए चाहिए। उन्होंने शत्रु के अंधकारमयी हृदय में प्रकाश की किरणें भेजने का प्रयास किया और हुर जैसे कई लोगों के हृदय इससे जगमगा उठे।
९ तारीख़ का दिन बीता और रात आ गई। हुसैन के जीवन की अन्तिम रात। उनके बेटों, भतीजों, भाइयों और मित्रों के जीवन की अन्तिम रात्रि। यह रात बहुत ही आश्चर्यचकित करने वाली रात थी। हुसैन के ख़ैमे मे एसा प्रकाश था कि जैसे किसी त्योहार की तैयारी हो रही हो। प्यासे बच्चे निढाल होने के बावजूद रोना भूल गए थे। जवान, हंसते बोलते अपने भालों को चमका रहे थे और कल के युद्ध तथा हुसैन पर अपना जीवन न्योछावर करने की बातें इस प्रकार कर रहे थे कि जैसे किसी नए जीवन में प्रविष्ट होने की बात कर रहे हों। विभिन्न ख़ैमों में महिलाएं अपने बच्चों का उत्साह बढ़ा रही थीं। उन्हें अपने बड़ों के साहस और ईश्वर पर विश्वास की कहानियां सुना रही थीं और यह इन्हीं माताओं का कारनामा था कि आशूर के दिन हुसैनी योद्धाओं के बीच रणक्षेत्र मे जाने की होड़ सी लगी हुई थी। आयु का अंतर मिट चुका था। मित्र चाहते थे कि पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों को रणक्षेत्र में न जाने दें और स्वयं को उनपर न्योछावर कर दें जबकि संबंधियों का प्रयास था कि वे सबसे पहले रणक्षेत्र में जाएं।
रात बीत रही थी। ज़ैनब जब कल के युद्ध के लिए अपने बच्चों को तैयार कर चुकीं तो वे अपने भाई के ख़ैमे में आईं और उन्होंने अपनी चिंता उनके सामने रखी। उन्होंने इमाम हुसैन से कहा कि भैयाः आपने अपने साथियों की परीक्षा तो कर ली है ना? भाई-बहनों की इस बात को पहरा दे रहे किसी जवान ने सुन लिया। वह रोता हुआ अन्य साथियों के पास गया और कहा कि साथियों, अली की बेटी को हमारी वफ़ादारी की ओर से शंका है। चलो और चलकर उनपर अपनी वफ़ादारी सिद्ध करें। यह सुनना था कि सभी साथी एकत्रित होकर हज़रत ज़ैनब के ख़ैमे के द्वार पर पहुंचे। उन्होंने कहा कि हे बीबीः आपके दास आपकी सेवा में उपस्थित हैं यदि आप आदेश दें तो हम स्वयं अपनी तलवारों से अपने सिर काट कर अपनी वफ़ादारी सिद्ध कर दें। यह प्रेम और श्रद्धा देखकर हज़रत ज़ैनब ने उन सब के लिए ईश्वर सवे दुआ की।
९ मुहर्रम की रात को एक अन्य महत्वपूर्ण घटना यह घटी कि इमाम हुसैन ने अपने सभी साथियों को इकट्ठा किया। ईश्वर के गुणगान के पश्चात उस समय की राजनीतिक स्थिति से सबको अवगत कराते हुए कहा कि देखो यज़ीद मेरे जीवन का अंत करना चाहता है। तुम लोग चाहो तो यहां से चले जाओ। मैं तुमसे पूर्णतयः प्रसन्न हूं। तुमने इतनी कठिनाइयां उठाकर मेरा साथ दिया है। यदि तुम्हें यहां से जाने में लज्जा आती है तो मेरे परिजनों में से लोगों को अपने साथ लेते जाओ। यह कहकर इमाम हुसैन ने चेराग़ बुझा दिया ताकि बिना किसी लज्जा के लोग निःसंकोच जा सकें। समय बीतने लगा। कुछ देर के बाद सिसकियों की और फिर रोने की आवाज़ें आने लगीं। इमाम हुसैन ने चिराग़ जलाया। अब जो देखा तो उनके सारे साथी उसी स्थान पर मौजूद थे और उनकी आखों से आंसूओं की धारा बह रही थी। हुसैन ने जब उनके न जाने का कारण पूछा तो सबने कहा कि आपके अतिरिक्त हमारा कोई अन्य लक्ष्य नहीं है। हम आपको छोड़कर नहीं जाएंगे। यदि ईश्वर हमें ७० बार नया जीवन दे तो हर बार यह जीवन हम आप पर ही न्योछावर करेंगे।
नौ मुहर्रम को हमने हुसैन के उस नन्हे मुन्न सिपाही से विशेष किया है जिसकी मां रात भर यह सोच-सोच कर बेचैन थी कि कल सभी लोग अपनी-अपनी भेंट ईश्वर के मार्ग मे चढ़ाएंगे परन्तु मेरा बच्चा तो इतना छोटा है कि वह तो रणक्षेत्र में जा भी नहीं सकता है। हे अली असग़र काश तुम बड़े होते। नन्हें शिशु ने शायद मां को कुछ बताने का प्रयास किया हो परन्तु छह महीने के प्यास से निढ़ाल बच्चे की बात मां कैसे समझती। परन्तु आशूर की दोपहर तक रुबाब ने अपने नन्हे शिशु को सिपाही बनते देख लिया। दस मुहर्रम की सुबह से दोपहर तक जब हुसैन की सेना का प्रत्येक सिपाही मौत की नींद सो चुका तो पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकारी तथा अली व फ़ातिमा के सुपुत्र हुसैन, रणक्षेत्र मे पहुंचे। रणक्षेत्र में शत्रुओं की बड़ी भीड़ थी। इमाम हुसैन के, जिनका समस्त परिवार समाप्त हो चुका था, भाई-भतीजे, भांजे-बेटे सब स्वर्ग चुका चुके थे, और अब इस संसार का जीवन उनके लिए कोई अर्थ नहीं रखता था। इमाम ने यज़ीदी सेना के सामने बड़ा महत्वपूर्ण भाषण दिया। अपना परिचय कराया। उन्हें उनके कार्य के घृणित और निंदनीय होने से अवगत करवाया। उन्हें अन्याय से रोका और सत्य के मार्ग पर आने की नसीहत की। इतना सब होने के बावजूद अत्याचार और मायामोह ने उनके हृदय इतने कठोर कर दिये थे कि वे बड़ी ढिठाई से अपने भ्रष्ट मार्ग पर डटे रहे। तब इमाम हुसैन ने पुकार कर कहा कि है कोई जो मेरी सहायता को आए? है कोई जो मेरी पुकार का उत्तर दे? इमाम की यह आवाज़ जब ख़ैमे में पहुंची तो अली असग़र ने स्वयं को झूले से गिरा दिया। यह स्थिति देखकर वहां मौजूद सभी महिलाएं रोने लगीं। हुसैन युद्ध के मैदान से बुलाए गए और रुबाब ने अपने भूखे प्यासे नन्हें से सिपाही को बाप की गोदी में दे दिया। इमाम हुसैन, अली असग़र को लेकर शत्रु के सामने गए। अपने छोटे बच्चे को सेना के सामने किया और कहा कि यह बच्चा कई दिनों से प्यासा है। यदि तुम्हारी दृष्टि में मैं दोषी हूं तो इस बच्चे का तो कोई दोष नहीं है। इसे पानी पिला दो। यह कहकर हुसैन ने अली असग़र को करबला की तपती रेत पर लिट दिया और स्वयं पीछे हट गए। यह दृश्य देखकर शत्रु की सेना के अनेक सिपाही रोने लगे परन्तु पानी पिलाने कोई भी आगे नहीं बढ़ा। बच्चा गर्म रेती पर तड़पने लगा। हुसैन ने अपने लाल को गर्म रेती से उठा लिया। उनका उद्देश्य पूरा हो चुका था। संसार, बनी उमय्या और यज़ीद के अत्याचारों से अवगत हो चुका था। इसी बीच यज़ीद के सेनापति उमरे साद के आदेश पर हुरमुला ने अली असग़र को एसा तीर मारा कि वह बच्चे की फूल सी गर्दन को काटता हुआ इमाम हुसैन के बाज़ू में धंस गया। अली असग़र अपने बाप की गोदी में शहीद हो गए। हुसैन, बच्चे की लाश को लेकर ख़ैमे की ओर गए। तलवार से क़ब्र खोदी। बच्चे को दफ़न किया और फिर इतना रोए कि क़ब्र भीग गई।
source : irib