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Thursday 28th of November 2024
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इमामे अली (अ) का मर्तबा

अली (अ) तारीख़ की वह बे मिसाल ज़ात है जिसने सदियों से साहिबाने फ़िक्र को अपनी तरफ़ मुतवज्जेह कर रखा है तारीख़ के तसलसुल में दुनिया की अज़ीम हस्तियां आप के गिर्द तवाफ़ करती हैं और आपको अपनी फ़िक्र और दानिश का काबा करार दिया है। दुनिया के नामवर अदीब अपकी फ़साहत व बलाग़त के सामने हथियार डाले हुए नज़र आते हैं और मर्दाने इल्म व दानिश आपके मक़ामे इल्मी को दर्क करने से इज़हारे अज्ज़ करते हुए दिखाई देते हैं मुसलेहीने आलम आपके कमाल की अदालत ख़्वाही व इंसाफ़ पसंदी को देख कर दंग रह जा
इमामे अली (अ) का मर्तबा

अली (अ) तारीख़ की वह बे मिसाल ज़ात है जिसने सदियों से साहिबाने फ़िक्र को अपनी तरफ़ मुतवज्जेह कर रखा है तारीख़ के तसलसुल में दुनिया की अज़ीम हस्तियां आप के गिर्द तवाफ़ करती हैं और आपको अपनी फ़िक्र और दानिश का काबा करार दिया है। दुनिया के नामवर अदीब अपकी फ़साहत व बलाग़त के सामने हथियार डाले हुए नज़र आते हैं और मर्दाने इल्म व दानिश आपके मक़ामे इल्मी को दर्क करने से इज़हारे अज्ज़ करते हुए दिखाई देते हैं मुसलेहीने आलम आपके कमाल की अदालत ख़्वाही व इंसाफ़ पसंदी को देख कर दंग रह जाते हैं, ख़िदमते ख़ल्क़ करने वाले इंसान, आपकी यतीम परवरी व ग़रीब नवाज़ी से सबक़ हासिल करते हैं दुनिया के मारूफ़ हुक्मरान व सियासत मदार कूफ़ा के गवर्नर मालिके अश्तर के नाम आपके लिखे हुए ख़त को आदिलाना और मुन्सेफ़ाना सियासी निज़ाम का मंशूर समझते हैं दुनिया ए क़ज़ावत आज भी आपके मख़सूस तरीक़ ए कार की क़ज़ावत और मसाएल को हल व फ़सल के अंदाज़ से अंगुश्त ब दंदान है इंसान समाज के किसी भी तबक़े से जो भी फ़र्द आपके दर पर आया फ़ज़्ल व कमालात के एक अमीक़ दरिया से रूबरू हुआ और ज़बाने हाल से सबने ये शेर पढ़ा :


रन में ग़ाज़ी खेत में मज़दूर मिन्बर पर ख़तीब

अल्लाह अल्लाह कितने रुख़ हैं एक ही तस्वीर में ।

जार्ज जुरदाक़ है एक मसीही साहेबे क़लम और अदीब अली (अ) की ज़ात से इस क़द्र मुतअस्सिर है कि ज़माने से एक और अली (अ) पैदा करने की यूँ फ़रयाद करता है “ऐ ज़माने ! तेरा क्या बिगड़ता अगर तू अपनी पूरी तवानाई को बरू ए कार लाता और हर अस्र व ज़माने में अली (अ) जैसा वह अज़ीम इंसान आलमें बशरियत को अता करता जो अली (अ) के जैसी अक़्ल अली (अ) जैसा दिल अली (अ) के जैसी ज़बान और अली (अ) के जैसी शम्शीर रखने वाला होता ” (1) और ये शकीब अरसलान है अस्रे हाज़िर में दुनिया ए अरब का एक मारूफ़ मुसन्निफ़ व साहिबे क़लम लक़ब भी “अमीरुल बयान” है मिस्र में उनके एज़ाज़ में एक सीमेनार बुलाया गया स्टेज पर एक साहब ने ये कहा कि तारीख़े इस्लाम में दो शख़्स इस बात के लायक़ हैं कि उनको “अमीरे सुख़न” कहा जाये एक अली इब्ने अबी तालिब (अ) और दूसरे शकीब अरसलान शकीब अरसलान ये सुनकर ग़ुस्सा हो गये और फ़ौरन खड़े होकर स्टेज पर आते हैं और उस शख़्स पर एतराज़ करते हुए कहते हैं

“मैं कहाँ और अली इब्ने अबी तालिब (अ) की ज़ात कहाँ मैं तो अली (अ) के बंदे कफ़्श भी शुमार नही हो सकता ” (2) शहीदे मुतह्हरी जो कि अस्रे हाज़िर में आलमे इस्लाम के फ़िक्री, इल्मी और इस्लाही मफ़ाख़िर में से एक क़ीमती सरमाया शुमार होते हैं आपने अपने तमाम आसार व कुतुब में एक मुन्फ़रिद और नये अंदाज़ में अली (अ) की शख़्सियत के बारे में बहुत कुछ लिखा है आपने तमाम मबाहिस और मौज़ूआत में चाहे वह फ़लसफ़ी हों या इरफ़ानी अख़्लाक़ी हों या इज्तेमाई, सियासी हों या सक़ाफ़ती, तरबियत से मुतअल्लिक़ हों या तालीम, से कलाम हो या फ़िक़्ह, जामिआ शिनासी हो या इल्मे नफ़सियात, हर मौज़ू के सिलसिले में अली (अ) की ज़ात, शख़्सियत गुफ़तार व किरदार को बतौरे मिसाल पेश किया और अली (अ) की ज़िन्दगी के उन पहलुओं को उजागर किया है जिनके बारे में किसी ने आज तक न कुछ लिख़ा है और न कुछ कहा है ।
तल्ख़ एतराफ़ :

आपने अपने आसार व कुतुब में जा बजा इस बात का अफ़सोस किया है कि वह क़ौम जो कि अली (अ) की पैरवी करने का दम भरती है न वह ख़ुद अली (अ) की शख़्सियत से आशना है और न वह दूसरों को अली (अ) से आशना करा सकती है आप फ़रमाते हैं “हम शियों को एतिराफ़ करना चाहिये कि हम जिस शख़्सियत की पैरवी करते पर इफ़्तेख़ार करते हैं उसके बारे में हमने दूसरों से ज़्यादा ज़ुल्म या कम से कम कोताही ज़रूर की है हक़ीक़त ये है कि हमारी कोताही भी एक ज़ुल्म है हमने अली (अ) की मारिफ़त और पहचान या नही करना चाहिये या हम पहचान नही कर सकते हमारा सबसे बड़ा कारनामा ये है कि उन अहादीस व नुसूस को दोहराते हैं जो पैग़म्बर ने आपके बारे में इरशाद फ़रमाये हैं और उन लोगों को सब व श्तम करते हैं जो उन अहादीस का इंकार करते हैं हमने इमामे अली (अ) हक़ीक़ी शख़्सियत पहचानने के बारे में कोई कोशिश नही की (3) इस मज़मून में हम इमामे अली (अ) की ज़िन्दगी के बाज़ अहमतरीन पहलुओं और गोशों का ज़क्र करेगें जिन पर शहीद मुतह्हरी ने एक ख़ास और जदीद अंदाज़ में बहस की है कहा जा सकता है कि इन गोशों पर बहस करना आपकी फ़िक्र का इब्तेकार है।
इमामे अली (अ) इंसान कामिल :

दुनिया के तक़रीबन तमाम मकातिबे फ़िक्र में इंसाने कामिल का तसव्वुर पाया जाता है और सबने ज़माने क़दीम से लेकर आज तक इस मौज़ू के बारे में बहस की है फ़लसफ़ी मकातिब हों या इरफ़ानी, इज्तेमाई हों या सियासी, इक़तिसादी हों या दूसरे दीगर मकातिब सबने इंसाने कामिल का अपना अपना एक ख़ास तसव्वुर पेश किया है इंसाने कामिल यानी मिसाली इंसान, नमूना और आइडियल इंसान। इस बहस की ज़रूरत इसलिये है कि इंसान एक आइडियल का मोहताज है और इंसाने कामिल उसके लिये एक बेहतरीन नमूना और मिसाल है जिसको सामने रख कर ज़िन्दगी गुज़ारी जा सकती है। ये इंसाने कामिल कौन है? उसकी ख़ुसुसियात और सिफ़ात क्या हैं? उसकी तारीफ़ क्या है? इन सवालात का जवाब मुख़्तलिफ़ मकातिबे फ़िक्र ने दिया है :

फ़लासिफ़ा कहते हैं इंसाने कामिल वह इंसान है जिसकी अक़्ल कमाल तक पहुँची हो।

मकतबे इरफ़ान कहता है इंसाने कामिल वह इंसान है जो आशिक़े महज़ हो। (आशिक़े ज़ाते हक़)

सूफ़िसताई करते हैं कि जिसके पास ज़्यादा ताक़त हो वह इंसाने कामिल है।

सोशलिज़्म में उस इंसान को इंसाने कामिल कहा गया है जो किसी तबक़े से वाबस्ता न हो ख़ास कर ऊँचे तबक़े से वाबस्ता न हो।

एक और मकतब बनामे मकतब ज़ोफ़ ये लोग कहते हैं कि इंसाने कामिल यानी वह इंसान जिसके पास क़ुदरत व ताक़त न हो इसलिये कि क़ुदरत व ताक़त तजावुज़गरी का मूजिब बनती है।

शहीद मुतह्हरी फ़रमाते हैं इन मकातिब में इंसान के सिर्फ़ एक पहलू को मद्दे नज़र रखा गया है और इसी पहलू में कमाल और रुश्द हासिल करने को इंसान नाम और का कमाल समझा गया है जब्कि इंसान मुख़्तलिफ़ अबआद व पहलू का नाम है । इंसान में बहुत सी ख़ुसुसियात पाई जाती हैं जिन तमाम पहलुओं और ख़ुसुसियात का नाम इंसाम है लिहाज़ा सिर्फ़ एक पहलू को नज़र में रख़ना इन सब मकातिब का मुश्तरिका ऐब और नक़्स है।
शहीद मुतहरी की नज़र में इंसाने कामिल :

आप इंसाने कामिल की तारीफ़ यूँ करते हैं कि “इंसाने कामिल यानी वह इंसान जिसमें तमाम इंसानी कमालात और ख़ुसूसियात ने ब हद्दे आला और तनासुब व तवाज़ुन के साथ रुश्द पाया हो। ” ।(4)

“इंसाने कामिल यानी वह इंसान जो तमाम इंसानी क़दरों का हीरो हो, वह इंसान जो इंसानियत के तमाम मैदानों में मर्दे मैदान और हीरो हो।” (5)

“इंसाने कामिल यानी वह इंसान जिस पर हालात व वाक़िआत आसर अंदाज़ न हों।” (6) इमामे अली (अ) क्यों इंसाने कामिल हैं ?

शहीद मुतहरी इस बात की ताकीद करते हैं कि अली इब्ने अबी तालिब (अ) पैग़म्बरे अकरम (स0 के बाद इंसाने कामिल हैं आप बयान करते हैं कि : “इमामे अली (अ) इंसाने कामिल हैं इस लिये कि आप मे इंसानी कमालात व ख़ुसुसियात ने ब हद्दे आला और तनासुब व तवाज़ुन के साथ रुश्द पाया है। ” ।(7) दूसरी जगह आपने फ़रमाया :

“इमामे अली (अ) क़ब्ल इसके कि दूसरे के लिये इमामे आदिल हों और दूसरों के साथ अदल से काम लें ख़ुद आप शख़्सन एक मुतआदिल और मुतवाज़िन इंसान थे आपने तमाम इंसानी कमालात को एक साथ जमा किया था आप के अंदर अमीक़ और गहरा फ़िक्र व अंदेशा भी था और लुत्फ़ नर्म इंसानी जज़्बात भी थे कमाले रूह व कमाले जिस्म दोनो आप के अंदर पाये जाते थे, रात को इबादते परवरदिगार में यूँ मशग़ूल हो जाते थे कि मा सिवल्लाह सबसे कट जाते थे और फिर दिन में समाज के अंदर रह कर मेहनत व मशक़्क़त किया करते थे दिन में लोगों कि निगाहें आपकी ख़िदमते ख़ल्क़, ईसार व फ़िदाकारी देखती थीं और उनके कान आपके मौएज़े, नसीहत और हकीमाना कलाम को सुनते थे रात को सितारे आपके आबिदाना आँसुओं का मुशाहिदा करते थे। और आसमान के कान आपके आशिक़ाना अंदाज़ के मुनाजात सुना करते थे। आप मुफ़्ती भी थे और हकीम भी, आरिफ़ भी थे और समाज के रहबर भी, ज़ाहिद भी थे और एक बेहतरीन सियासत मदार भी, क़ाज़ी भी थे और मज़दूर भी ख़तीब भी थे और मुसन्निफ़ भी ख़ुलासा ये कि आप पर एक जिहत से एक इंसाने कामिल थे अपनी तमाम ख़ूबसूरती और हुस्न के साथ।” (8) आप ने इमामे अली (अ) के इंसाने कामिल होने पर बहुत सी जगहों पर बहस की है और मुतअद्दिद दलीलें पेश की हैं आप एक जगह पर लिखते हैं कि “हम लोग इमामे अली (अ) को इंसाने कामिल क्यों समझते हैं? इसलिये कि आप की “मैं” “हम” में बदल गयी थी इसलिये कि आप अपनी ज़ात में तमाम इंसानों को जज़ब करते थे आप एक ऐसी फ़र्दे इंसान नही थे जो दूसरे इंसानो से जुदा हो, नही! बल्कि आप अपने को एक बदन का एक जुज़, एक उँगली, एक उज़व की तरह महसूस करते थे कि जब बदन के किसी उज़्व में दर्द या कोई मुश्किल आती है तो ये उज़्व भी दर्द का एहसास करता है। (9)

“जब आप को ख़बर दी गयी कि आप के एक गवर्नर ने एक दावत और मेहमानी में शिरकत की तो आपने एक तेज़ ख़त उसके नाम लिखा ये गवर्नर किस क़िस्म की दावत में गया था ? क्या ऐसी मेहमानी में गया था जहाँ शराब थी? या जहाँ नाच गाना था? या वहाँ कोई हराम काम हो रहा थी नही तो फिर आपने उस गवर्नर को ख़त में क्यो इतनी मलामत की आप लिखते है (...................................)

गवर्नर का गुनाह ये था कि उसने ऐसी दावत में शिरकत की थी जिसमे सिर्फ़ अमीर और मालदार लोगों को बुलाया गया था और फ़क़ीर व ग़रीब लोगों को महरूम रखा गया था (10) शहीद मुतहरी मुख़्तलिफ़ इंहेराफ़ी और गुमराह फ़िरक़ों के ख़िलाफ़ जंग को भी आपके इंसाने कामिल होने का एक नमूना समझते हैं आप फ़रमाते हैं :

“इमामे अली (अ) की जामईयत और इंसाने कामिल होने के नमूनो में से एक आपका इल्मी मैदान में मुख़तलिफ़ फ़िरक़ो और इन्हिराफ़ात के मुक़ाबले में खड़ा होना और उनके ख़िलाफ़ बर सरे पैकार होना भी है हम कभी आपको माल परस्त दुनिया परस्त और अय्याश इंसानों के ख़िलाफ़ मैदान में देखते हैं और कभी उन सियासत मदारों के ख़िलाफ़ नबर्द आज़मा जिनके दसियों बल्कि सैकड़ों चेहरे थे और कभी आप जाहिल मुनहरिफ़ और मुक़द्दस मआब लोगों से जंग करते हुये नज़र आते है।” (11) इंमामे अली (अ) में क़ुव्वते कशिश भी और क़ुव्वते दिफ़ा भी :

शहीद मुतह्हरी इंसानों को दूसरे इंसानो को जज़्ब या दूर करने के एतिबार से चार क़िस्मों में तक़सीम करते है :

1. वह इंसान जिनमें न क़ुव्वते कशिश है और न क़ुव्वते दिफ़ा, न ही किसी को अपना दोस्त बना सकता है और न ही दुश्मन, न लोगों के इश्क व मोहब्बत को उभारते हैं और न ही कीना व नफ़रत को ये लोग इंसानी समाज में पत्थर की तरह हैं किसी से कोई मतलब नही है ।

2. वह इंसान जिनमें क़ुव्वते कशिश है लेकिन क़ुव्वते दिफ़ा नही है तमाम लोगों को अपना दोस्त व मुरीद बना लेते हैं ज़ालिम को भी मज़लूम को भी नेक इंसान को भी और बद इंसान को भी और कोई उनकी दुश्मन नही है.......आप फ़रमाते : हैं ऐसे लोग मुनाफ़िक़ होते हैं जो हर एक से उसके मैल के मुताबिक़ पेश आते हैं और सबको राज़ी करते हैं लेकिन मज़हबी इंसान ऐसा नही बन सकता है वह नेक व बद, ज़ालिम व मज़लूम दोनों को राज़ी नही रख सकता है ।

3. कुछ लोग वह हैं जिनमें लोगों को अपने से दूर करने की सलाहियत है लेकिन जज़्ब करने की सलाहियत नही है ये लोग, लोगों को सिर्फ़ अपना मुख़ालिफ़ व दुश्मन बनाना जानते हैं और बस शहीद मुतह्हरी फ़रमाते हैं ये गिरोह भी नाक़िस है इस क़िस्म के लोग इंसानी और अख़्लाक़ी कमालात से ख़ाली होते हैं इस लिये कि अगर उनमें इंसानी फ़ज़ीलत होती तो कोई वलौ कितने की कम तादाद में उनका हामी और दोस्त होता इस लिये कि समाज कितना ही बुरी क्यों न हो बहर हाल हमेशा उसमें कुछ अच्छे लोग होते हैं ।

4. वह इंसान जिनमें क़ुव्वते कशिश भी होती है और क़ुव्वते दिफ़ा भी कुछ लोगो को अपना दोस्त व हामी, महबूब व आशिक़ बनाते हैं और कुछ लोगों को अपना मुख़ालिफ़ और दुश्मन भी, मसलन वह लोग जो मज़हब और अक़ीदे की राह में जद्दो जहद करते हैं वह बाज़ लोगों को अपनी तरफ़ खीचते हैं और बीज़ को अपने से दूर करते हैं। (12) अब आप फ़रमाते हैं कि इनकी भी चंद क़िस्में हैं कभी क़ुव्वते कशिश व दिफ़ा दोनो क़वी हैं और कभी दोनो ज़ईफ़, कभी मुस्बत अनासिर को अपनी तरफ़ खीचते हैं और कभी मनफ़ी व बातिल अनासिर को अपने से दूर करते हैं और कभी इसके बरअक्स अच्छे लोगों को दूर करते हैं और बातिल लोगों को जज़्ब करते हैं। फिर आप हज़रत अली (अ) के बारे में फ़रमाते हैं कि अली इब्ने अबी तालिब (अ) किस क़िस्म के इंसान थे आया वह पहले गिरोह की तरह थे या दूसरे गिरोह की तरह, आप में सिर्फ़ क़ुव्वते दिफ़ा थी क़ुव्वते कशिश व दिफ़ा दोनों आपके अंदर मौजूद थीं। “इमामे अली (अ) वह कामिल इंसान हैं जिसमें क़ुव्वते कशिश भी है और क़ुव्वते दिफ़ा भी और आपकी दोनों क़ुव्वतें बहुत क़वी हैं शायद किसी भी सदी में इमामे अली (अ) जैसी क़ुव्वते कशिश व दिफ़ा रखने वाली शख़्सियत मौजूद न रही हों । (13) इसलिये कि आपने हक़ परस्त और अदालत व इंसानियत के दोस्तदारों को अपना गरवीदा बना लिया और बातिल परस्तों अदालत के दुश्मनों और मक्कार सियासत के पुजारियों और मुक़द्दस मआब जैसे लोगों के मुक़ाबले में खड़े होकर उनको अपना दुश्मन बना लिया।
हज़रत अली (अ) की क़ुव्वते कशिश :

आप हज़रते अली (अ) की क़ुव्वते कशिश के ज़िम्न में फ़रमाते हैं “इमामे अली (अ) के दोस्त व हामी बड़े अजीब, फ़िदाकार, तारीख़ी, क़ुर्बानी देने वाले, आपके इश्क में गोया आग के शोले की तरह सूज़ान व पुर फ़रोग़, आपकी राह में जान देने को इफ़्तेख़ार समझते हैं और आपकी हिमायत में हर चीज़ को फ़रामोश करते हैं आपकी शहादत से आज तक आपकी क़ुव्वते कशिश काम कर रही है और लोगो को हैरत में डाल रही है।” (14)

“आपके गिर्द शरीफ़, नजीब, ख़ुदा परस्त व फ़िदाकार, आदिल व ख़िदमत गुज़ार, मेहरबान व आसारगर अनासिर, परवाने की तरह चक्कर लगाते हैं एसे इंसान जिनमें हर एक की अपनी अपनी मख़सूस तारीख़ है मोआविया और अमवियों के ज़माने में आपके आशिक़ो और हामियों को सख़्त शिकंजों का सामना करना पड़ा लेकिन उन लोगों ने ज़र्रा बराबर भी आपकी हिमायत व दोस्ती मे कोताही नही की और मरते दम तक आपकी दोस्ती पर क़ायम रहे। (15) हज़रत अली (अ) की क़ुव्वते कशिश का एक नमूना :

आपके बा ईमान व बा फ़ज़ीलत असहाब में से एक ने एक दिन कोई ख़ता की जिसकी बिना पर उस पर हद जारी होनी थी आपने उस साथी का दायाँ हाथ काटा, उसने बायें हाथ में उस कटे हुये हाथ को उठाया इस हालत में कि उसके हाथ से ख़ून जारी था अपने घर की तरफ़ जा रहा था रास्ते में एक ख़ारजी (हज़रत अली (अ) का दुश्मन) मिला जिसका नाम अबुल कवा था उसने चाहा कि इस वाक़ए से अपने गिरोह के फ़ायदे और अली (अ) की मुख़ालिफ़त में फ़ायदा उठाए वह बड़ी नर्मी के साथ आगे बढ़ा और कहने लगा अरे क्या हुआ ? तुम्हारा हाथ किसने काटा ? आशिक़े अली (अ) ने इस नामुराद शख़्स का यूँ जावाब दिया : (..................................) यानी मेरे हाथ को उस शख़्स ने काटा है जो पैग़म्बरों का जानशीन है, क़यामत में सफ़ेद रू इंसानों का पेशवा और मोमिनीन के लिये सबसे हक़दार है यानी अली इब्ने अबी तालिब (अ) ने, जो हिदायत का इमाम, जन्नत कि नेमतों की तरफ़ सबसे पेश क़दम और जाहिलों से इन्तेक़ाम लेने वाला है…. (बिहारुल अनवार जिल्द 40 पेज 282)

इब्ने कवा ने जब ये सुना तो कहा वाय हो तुम पर उसने तुम्हारे हाथ को भी काटा और फिर उसकी तारीफ़ भी कर रहे हो! इमाम (अ) के इस आशिक़ ने जवाब दिया “मैं क्यों उसकी तारीफ़ न करूँ उसकी दोस्ती व मोहब्बत तो मेरे गोश्त व ख़ून में जा मिली है ख़ुदा की क़सम उन्होने मेरा हाथ नही काटा मगर उस हक़ की वजह से जो कि ख़ुदा ने मोअय्यन किया है।” तारीख़ में इमामे अली (अ) की क़ुव्वते कशिश के बारे में इस तरह के बहुत से वाक़ेआत मौजूद हैं आपकी ज़िन्दगी में भी और आपकी शहादत के बाद भी ।
हज़रत अली (अ) की क़ुव्वते दिफ़ा :

हज़रत अली (अ) जिस तरह लोगों को अपनी तरफ़ जज़्ब करते हैं उसी तरह बातिल, मुनाफ़िक़, अदल व इंसाफ़ के दुश्मनों को अपने से दूर और नाराज़ भी करते हैं। शहीद मुतहरी फ़रमाते हैं :

“इमामे अली (अ) वह इंसान है जो दुश्मन साज़ भी है और नाराज़ साज़ भी और ये आपके अज़ीम इफ़्तेख़ारात में से एक है।” (16) इसलिये कि जिन लोगों के मफ़ादात ना इंसाफ़ और ग़ैर आदिलाना निज़ाम के ज़रिये हासिल होते थे वह कभी भी आपकी अदालत व इंसाफ़ पसंदी से ख़ुश नही हुए।

“लिहाज़ा आपके दुश्मन आपकी ज़िन्दगी में अगर दोस्तों से ज़्यादा नही तो कम भी नही थे।” (17) आप इस सिलसिले में मज़ीद लिखते हैं :

“ना आपके जैसे ग़ैरत मंद दोस्त किसी के थे और न आपके जैसे दुश्मन किसी के थे आपने लोगों को इस क़दर दुश्मन बनाया कि आपकी शहादत के बाद आपके जनाज़े पर हमला होने का एहतिमाल था आपने ख़ुद भी इस हमले का एहतिमाल दिया था लिहाज़ा अपने वसीयत की थी कि आपकी क़ब्र मख़फ़ी रखी जाय और आपके फ़रज़न्दों के अलावा कोई इस से बा ख़बर न हो एक सदी गुज़रने के बाद इमामे सादिक़ (अ) ने आपकी क़ब्र का पता बताया।” (18)

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हवाले


1. सदा ए अदालते इंसानी जिल्द 3 पेज 247
2. सैरी दर नहजुल बलागा पेज 19 व 20
3. सैरी दर नहजुल बलागा पेज 38 व 39
4. इंसाने कामिल पेज 15
5. इंसाने कामिल पेज 59
6. वही, सफ़ा 754
7. वही, सफ़ा 43
8. जाज़िबा व दाफ़िआ ए अली (अ) पेज 10
9. गुफ़्तारहा ए मानवी पेज 228
10. गुफ़्तारहा ए मानवी पेज 228
11. जाज़िबा व दाफ़िआ ए अली (अ) पेज 113
12. जाज़िबा व दाफ़िआ ए अली (अ) पेज 21 व 28
13. वही मदरक पेज 31
14. वही मदरक पेज 31
15. वही मदरक पेज 31
16. जाज़िबा व दाफ़िआ ए अली (अ) पेज 108
17. जाज़िबा व दाफ़िआ ए अली (अ) पेज 108
18. जाज़िबा व दाफ़िआ ए अली (अ) पेज 110

 


source : alhassanain
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