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ईश्वर का इरादा

ईश्वर का इरादा



ईश्वर का एक महत्वपूर्ण गुण ईश्वर होना है। ईश्वर की ईश्वरीयता के बारे बहुत कुछ कहा जा चुका है और बहुत कुछ कहा जा सकता है किंतु यहां पर हम यही स्पष्ट करना चाहेंगे कि अरबी भाषा में इलाह का अर्थ होता है पूज्य। इलाह से ही अल्लाह बना है। इलाह होने का अर्थ वह अस्तित्व है जो उपासना योग्य हो अर्थात जिस की उपासना की जा सकती हो। इस आधार पर उपासना योग्य होना और पूज्य होना ऐसा गुण है जिसके लिए मनुष्य द्वारा उपासना को भी दृष्टिगत रखना होगा यद्यपि बहुत से लोग ग़लत वस्तुओं की उपासना करते हैं और उन्हें पूज्य मानते हैं किंतु वास्तव में जो उपासना योग्य है वह, वही है जिसने सब को पैदा किया है और सब का पालनहार है। इसी लिए धर्म पर विश्वास की कम से कम सीमा वही है जहां तक ईश्वर में आस्था रखने वाले हर व्यक्ति को पहुंचना चाहिए और यह कि इस विश्वास को साथ कि ईश्वर एक ऐसा अस्तित्व है जिसे अपने अस्तित्व के लिए किसी अन्य की कोई आवश्यकता नहीं है उसी ने सब की रचना की है और उसके के हाथ में सब कुछ है तो यह भी मानना आवश्यक है कि केवल वही उपासना योग्य है और इस्लाम में ला इलाहा इल्लल्लाह का अर्थ भी यही है अर्थात अल्लाह के अतिरिक्त कोई भी ईश्वर और उपासना योग्य नहीं है।

ईश्वर से संबधित ज्ञान में एक अत्यन्त जटिल विषय ईश्वर का इरादा है और इस संदर्भ में भांति भांति के प्रश्न हैं जिन पर विस्तार से चर्चा की जा सकती है, जैसे ईश्वर का इरादा उसके तुलनात्मक गुणों में से है या व्यक्तिगत गुणों में से है? या यह कि ईश्वर का इरादा हमेशा से था और हमेशा रहने वाला है या फिर कभी ऐसा भी काल था जिसमें ईश्वर का इरादा नहीं था और बाद में हो गया और कभी ऐसा भी समय आएगा जब ईश्वर का इरादा नहीं रहेगा इस प्रकार से बहुत से प्रश्न हैं जिन के उत्तर के लिए जटिल दार्शनिक चर्चा की आवश्यकता होगी किंतु यहां पर हम इस संदर्भ में कुछ मूल बातों को ही स्पष्ट करेंगे।

आम बोलचाल में इरादे के कम से कम दो अर्थ होते हैं पहला अर्थ चाहना है और दूसरा कोई काम करने का संकल्प।

पहला अर्थ बहुत व्यापक है और इसमें वस्तुओं और अपने तथा दूसरों के कामों को चाहना आदि जैसे अर्थ शामिल होते हैं किंतु दूसरा अर्थ केवल स्वयं मनुष्य के अपने काम के लिए ही प्रयोग होता है। इरादे का पहला अर्थ अर्थात चाहना, यद्यपि मनुष्य के लिए एक प्रकार की मनोदशा है किंतु बुद्धि इस की कमियों को दूर करके एक ऐसा अर्थ निकाल सकती है जो भौतिकता से परे बल्कि ईश्वर के लिए भी प्रयोग किया जा सकता हो।

ईश्वर का इरादा भी उसक बहुत से गुणों की भांति उसके अस्तित्व में है और कोई अलग वस्तु नहीं है, इसी प्रकार ईश्वर का इरादा, अन्य लोगों के इरादों से बहुत अलग होता है और ईश्वर के इरादे में चरण या भूमिकाएं नहीं होती बल्कि किसी की परिवर्तन व उत्पत्ति का मूल कारक उसका इरादा मात्र ही होता है। जैसा कि क़ुरआन मजीद के सूरए यासीन की आयत नंबर ८२ में आया है।

उसका काम तो इस प्रकार है कि जब वह किसी चीज़ का इरादा करता है तो कहता है हो जा और वह चीज़ हो जाती है।

ईश्वर के इरादे के बारे में जिन बातों की चर्चा हमने की है उनसे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि ईश्वर का इरादा असीमित रूप से किसी वस्तु को पैदा करने हेतु प्रयोग नहीं होता बल्कि मूल रूप से ईश्वर के इरादे से जो संबंध होता है वह पैदा होने वाली वस्तु की भलाई व हित का आयाम होता है और चूंकि भौतिक वस्तुओं के विभिन्न आयाम होते हैं और भौतिक वस्तुओं की अधिकता कुछ अन्य वस्तुओं के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकती है इस लिए ईश्वरीय कृपा के लिए यह आवश्यक होता है कि वह सारी वस्तुओं को कुछ इस प्रकार से पैदा करे कि उनके हानिकारक आयाम कम से कम दूसरी वस्तुओं को हानि पहुंचाएं और अधिक से अधिक लाभ का कारण हों। इस कृपा व संबंध को तत्वदर्शिता व हिकमत कहा जाता है। यह जो कहते हैं कि ईश्वर तत्वदर्शी है उसका यही अर्थ है अन्यथा तत्वदर्शिता, रचनाओं से भिन्न कोई वस्तु नहीं है और न ही ऐसी कोई वस्तु अथवा गुण है जो ईश्वरीय इरादे पर प्रभाव डाले।

इस चर्चा के मुख्य बिन्दुः

• ईश्वर में आस्था रखने वाले हर व्यक्ति को कम से कम यह विश्वास होना चाहिए कि एक ऐसा अस्तित्व है जिसे अपने अस्तित्व के लिए किसी अन्य की कोई आवश्यकता नहीं है, उसी ने सब की रचना की है और उसके के हाथ में सब कुछ है और वही उपासना योग्य है।

• ईश्वर का इरादा भी उसक बहुत से गुणों की भांति उसके अस्तित्व में है और कोई अलग वस्तु नहीं है।

• ईश्वर की तत्वदर्शिता का अर्थ यह है कि वह रचनाओं को ऐसा बनाता है जिससे उनके हानिकारक आयाम कम और लाभदायक आयाम अधिक हों।

सृष्टि, ईश्वर और धर्म-22 बात करने का ईश्वर का गुण

ईश्वर के लिए जिन कामों की कल्पना की जाती है उनमें से एक बोलना और बात करना भी है। ईश्वर का बोलना और उसका कथन प्राचीन काल से ही बुद्धिजीवियों के मध्य चर्चा का विषय रहा है। यह विषय इतना महत्वपूर्ण बना कि ईश्वरीय गुणों में इस्लामी इतिहास में इसे सवार्धिक चर्चा का विषय कहा जाए तो ग़लत न होगा। यहां तक कि मूल सिद्धान्तों के बारे में चर्चा करने वाले ज्ञान को, कलाम अर्थात कथन के बारे में अत्यधिक चर्चा के कारण, इल्मे कलाम अर्थात कथनशास्त्र कहा जाता है।

चर्चा इस विषय पर होती रही है कि ईश्वर में बोलने का गुण, व्यक्तिगत है या तुलनात्मक। एक मत में ईश्वर के कथन को व्यक्तिगत गुण जबकि दूसरे मत में तुलनात्मक गुण कहा गया यही कारण है कि क़ुराने मजीद के संदर्भ में यह चर्चा बहुत अधिक दिनों तक चली क्योंकि कुरआन ईश्वर का कथन है और बुद्धिजीवियों में इस बात पर मतभेद है कि कुरआन ईश्वरीय रचना है या नहीं क्योंकि ईश्वर का कथन यदि रचना है तो वह वाजिबुल वूजूद अर्थात आत्मभू ईश्वर का गुण कैसे हो सकता है और यदि रचना नहीं है तो फिर क्या है ? क्योंकि हर वस्तु या रचना होगी या रचयिता?

अब यदि ईश्वर के कथन के बारे में यह माना जाए कि वह ईश्वर के साथ ही साथ था तो फिर इस से ईश्वर और उसके कथन में समकालीनता आवश्यक होगी जो संभव नहीं है क्योंकि ईश्वर का समकालीन कोई नहीं है, वह सदैव से है और सदैव रहेगा। वह उस समय से है जब कुछ भी नहीं था और उस समय तक रहेगा जब कुछ भी न रहेगा। इस से पूर्व ही हम स्पष्ट कर चुके हैं कि ईश्वर को समय या किसी भी सीमा से सीमित नहीं किया जा सकता। तो इस प्रकार से कथन, ईश्वर का समकालीन नहीं है तो यदि वह समकालीन नहीं है तो फिर बाद में उत्पन्न हुआ है तो फिर वह किस प्रकार ईश्वर का गुण हो सकता है? क्योंकि ईश्वर के लिए परिवर्तन की कल्पना नहीं की जा सकती। सारी चर्चा इस गुण के तुलनात्मक या व्यक्तिगत होने में है यदि ईश्वर के बोलने को उस का व्यक्तिगत गुण माना जाए तो यह सारे प्रश्न और दशाएं उत्पन्न होती हैं किंतु यदि हम उसके इस गुण को तुलनात्मक मानें तो फिर यह सारे चर्चा की समाप्त हो जाती है।

इस चर्चा में हम गहन विषयों तक नहीं जाएंगे, बस यहां पर यह बताना चाहते हैं कि यदि ईश्वर के बोलने के गुण पर विचार किया जाए तो बड़ी सरलता से यह समझ में आ जाएगा कि यह गुण तुलनात्मक है क्योंकि जैसा कि हमने तुलनात्मक गुण की परिभाषा करते समय बताया था कि इस गुण के लिए दो पक्षों को दृष्टिगत रखना होता है। इसी लिए यदि ध्यान दिया जाए तो समझ में आ जाएगा कि बात करना तुलनात्मक गुण है क्योंकि इसके लिए उसकी भी आवश्यकता है जिससे बात की जाए।

ईश्वर की सच्चाई भी चर्चा का एक विषय है अर्थात क्या ईश्वर सच्चा है और क्या वह किसी स्थिति में झूठ बोल सकता है या फिर यह है कि ईश्वर का कथन हर दशा में सत्य ही होता है?

यहां पर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि ईश्वरीय कथन जो आदेश के रूप में हैं उनके बारे में सच या झूठ कोई विषय नहीं हैं बल्कि यह आदेश मनुष्य का कर्तव्य होते हैं किंतु यदि ईश्वरीय कथन में किसी घटना की सूचना दी गयी है या भविष्यवाणी की गयी है तो इस संदर्भ में सच व झूठ की बात की जा सकती है किंतु हमारा यह मानना है कि ईश्वर के किसी भी कथन में झूठ की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस का प्रमाण यह है कि ईश्वर ने मनुष्य की रचना की और उसे सही मार्ग तक पहुंचाने का दायित्व स्वयं लिया। इस प्रकार से वह यदि मनुष्य से कुछ कहता है तो वह वास्तव में उसके मार्गदर्शन के लिए होता है किंतु यदि उसके कथन में झूठ की संभावना होगी तो फिर उसके हर कथन के बारे में झूठ की शंका होगी और इस प्रकार से उस पर विश्वास नहीं होगा जिससे मनुष्य के मार्गदर्शन का मूल लक्ष्य ही ख़तरे में पड़ जाएगा और यह ईश्वर की तत्वदर्शिता के विपरीत होगा।

यूं भी झूठ, प्रायः अपनी ग़लती छिपाने या किसी के भय से या फिर किसी को धोखा देने अथवा लोभ के कारण बोला जाता है और ईश्वर इन सबसे बहुत महान है इस लिए उसे झूठ बोलने की आवश्यकता ही नहीं है।

इस चर्चा के मुख्य बिंदुः

• ईश्वर में बोलने का गुण, उसके तुलनात्मक गुणों में से है क्योंकि इसके लिए दो पक्षों की आवश्यकता होती है। ईश्वर यदि बात करेगा तो इसके लिए किसी ऐसे की आवश्यकता है जिससे वह बात करे। इस प्रकार से यह गुण भी तुलनात्मक है और ईश्वर व मनुष्य के मध्य एक प्रकार के संबंध का सूचक है।

• हमारा यह मानना है कि ईश्वर के किसी भी कथन में झूठ की कल्पना भी नहीं की जा सकती, इसका प्रमाण यह है कि ईश्वर ने मनुष्य की रचना की और उसे सही मार्ग तक पहुंचाने का दायित्व स्वयं लिया। इस प्रकार से वह यदि मनुष्य से कुछ कहता है तो वह वास्तव में उसके मार्गदर्शन के लिए होता है किंतु यदि उसके कथन में झूठ की संभावना होगी तो फिर उसके हर कथन के बारे में झूठ की शंका होगी और इस प्रकार से उसपर से विश्वास उठ जाएगा।

सृष्टि, ईश्वर और धर्म-23 नास्तिकता और भौतिकता

नास्तिकता और भौतिकता का इतिहास बहुत प्राचीन है और ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि जिस प्रकार प्राचीन काल से ही ईश्वर पर विश्वाश रखने वाले लोग थे, उसी प्रकार उसका इन्कार करने वाले भी लोग मौजूद थे किंतु उनकी संख्या बहुत अधिक नहीं थी परंतु १८ वीं शताब्दी से युरोप में धर्मविरोध का चलन आरंभ हुआ और धीरे धीरे पूरे विश्व में फैलता चला गया। यद्यपि धर्म विरोध का चलन गिरजाघरों की सत्ता और ईसाई धर्म गुरुओं की निरंकुशता तथा ईसाई धर्म के विरोध में आरंभ हुआ था किंतु समय के साथ ही साथ इस लहर ने अन्य धर्मों के अनुयाइयों को भी अपनी लपेट में ले लिया और धर्म से दूरी की भावना, अन्य देशों में पश्चिम के औद्योगिक व वैज्ञानिक विकास के साथ ही पहुंच गयी और हालिया शताब्दियों में मार्क्सवादी व आर्थिक विचारधाराओं के साथ मिल कर धर्म विरोध की भावना ने मानव समाज को त्रासदी के मुहाने पर ला खड़ा किया है।

धर्म विरोधी भावना के फैलने के बहुत से कारण हैं किंतु यहां पर हम समस्त कारणों को तीन भागों में बांट कर उन पर चर्चा करने का प्रयास करेंगे।

धर्मविरोधी भावना के फैलने का प्रथम कारण मानसिक है अर्थात वह भानवाएं जो धर्म से दूरी और नास्तिकता के कारक के रूप में किसी भी मनुष्य में उत्पन्न हो सकती हैं जैसे भोग विलास व ऐश्वर्य की अभिलाषा और प्रतिबद्धता से दूरी की चाहत मनुष्य को धर्म का विरोध करने पर उकसा सकती है। वास्तव में लोगों को प्रायः ऐसे सुख की खोज होती है जिसे इंद्रियों द्वारा भोगा जा सके और धर्म व ईश्वर के आदेशों के पालन का सुख ऐसा है कि कम से कम इस संसार में उसे इंद्नियों द्वारा समझना हर एक के बस की बात नहीं है। दूसरी ओर निरकुंशता और दायित्वहीनता से प्रेम भी मनुष्य को धर्म की प्रतिबद्धताओं से दूर रख सकता है क्योंकि ईश्वरीय धर्म को मानने से कुछ वर्जनाएं और प्रतिबंध लागू हो जाते हैं जिनका पालन इस बात का कारण बनता है कि मनुष्य को बहुत से अवसरों पर अपना मनचाहा काम करने से रोका जाता है और इस प्रकार से उसकी स्वतंत्रता या दूसरे शब्दों में निरंकुशता समाप्त हो जाती है जो असीमित स्वतंत्रता व निरकुंशता की चाहत रखने वालों को स्वीकार नहीं होती, इसी लिए वह इसके कारक अर्थात धर्म के विरोध पर उतर आते हैं। धर्म के विरोध के बहुत से मानसिक कारकों में यह एक मुख्य और प्रभावी कारक है और बहुत से लोग जाने अनजाने में इसी भावना के अंतर्गत ईश्वर और धर्म का इन्कार करते हैं।

धर्म का विरोध करने के दूसरे प्रकार के कारक को हम वैचारिक कारक कह सकते हैं। इससे आशय वास्तव में वह आशंकाएं और संदेह हैं जो लोगों के मन में उत्पन्न होते हैं या फिर दूसरों की बाते सुनकर उनके मन में संदेह व शकांए उत्पन्न हो जाती हैं और चूंकि इस प्रकार के लोगों में वैचारिक शक्ति क्षीण और विश्लेषण क्षमता का अभाव होता है इस लिए वे अपनी अज्ञानता के कारण जब संदेहों और शंकाओं का उत्तर नहीं खोज पाते तो उसका कम से कम प्रभाव उनपर यह होता है कि वे स्वयं ही धर्म का विरोध करने लगते हैं।

इस प्रकार के कारकों को भी कई भागों में बांटा जा सकता है। उदाहरण स्वरूप वह शंकाएं जो अंधविश्वास के कारण उत्पन्न होती हैं। इसी प्रकार कभी कभी वैज्ञानिक अध्ययन भी सही रूप से धर्म की शिक्षा और वैज्ञानिक तथ्य में तालमेल बिठा न पाने के चलते धर्म के प्रति शंका उत्पन्न होने का कारण बन जाते हैं।

धर्म विरोध का एक अन्य कारक सामाजिक होता है, अर्थात कुछ समाजों में ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं कि धार्मिक नेता किसी न किसी प्रकार से उन परिस्थितियों के ज़िम्मेदार समझे जाते हैं और चूंकि बहुत से लोगों में सही स्थिति समझने की शक्ति नहीं होती और विश्लेषण नहीं कर पाते इस लिए वे इस प्रकार की परिस्थितियों को धर्मगुरुओं के हस्तक्षेप का परिणाम मानते हैं और फलस्वरूप धर्म के ही विरोधी हो जाते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि धर्म पर आस्था ही सामाजिक समस्याओं और परिस्थितियों की ज़िम्मेदार है।

इस भावना और इस कारक को युरोप में पुनर्जागरण काल में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। धार्मिक मामलों में गिरजाघरों के कर्ता-धर्ता लोगों ने, ईसाईयों को धर्म से दूर कर दिया और धर्मगुरुओं के क्रियाकलापों ने लोगों के मन में यह विचार उत्पन्न किया कि धर्म और राजनीति में अलगाव होना चाहिए और सामाजिक नेताओं ने ईसाई धर्म गुरुओं को सत्ता से दूर रखने के लिए इस विचार का जम कर प्रसार प्रचार किया और परिणाम स्वरूप धर्म को पहले आम लोगों की दिनचर्या से दूर किया गया और फिर उसे अलग-थलग कर दिया गया जिसके कारण बहुत से लोगों को लगने लगा कि धर्म जीवन से अलग कोई विषय है और बहुत से लोग इस का विरोध करने लगे।

ये तो कुछ ऐसे कारक थे जो मनुष्य में धर्म का विरोध करने की भावना जगाते हैं किंतु यह भी है कि बहुत से धर्म विरोधी ऐसे भी हैं जिनमें तीनों प्रकार के कारक सक्रिय होते हैं तो ऐसे लोग विरोध के साथ ही साथ शत्रुता भी करते हैं और धर्म को अपने लक्ष्यों की पूर्ति में सब से बड़ी बाधा मानते हैं।

इस चर्चा के मुख्य बिंदुः

• एक शक्तिशाली ईश्वर का अस्तित्व ईश्वरीय मत में मूल आधार है जबकि भौतिक विचारधारा में ऐसे किसी ईश्वर के अस्तित्व से इन्कार किया जाता है। दोनों मतों में यही मुख्य अंतर है।

• धर्म परायणता की भांति नास्तिकता का भी इतिहास अत्यधिक पुराना है किंतु यह विचार धारा १८ वीं शताब्दी में युरोप में पुनर्जागरण के बाद व्यापक रुप से फैलना आरंभ हुई और युरोप के वैज्ञानिक विकास के साथ ही विश्व के अन्य क्षेत्रों और अन्य धर्मों के अनुयाईयों में भी फैल गयी।

• धर्मविरोध के कई कारक होते हैं किंतु मुख्य रूप से मानसिक, सामाजिक और वैचारिक कारकों में उन्हें बांटा जा सकता है। किसी धर्मविरोधी में एक कारक होता है किंतु किसी किसी में तीनों कारक भी हो सकते हैं।

सृष्टि, ईश्वर और धर्म-24 नास्तिकता व भौतिकता-2

भ्रष्टाचार और ईश्वर के इन्कार के कारकों की समीक्षा से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन में प्रत्येक कारक को समाप्त और निवारण के लिए विशेष प्रकार की शैली व मार्ग की आवश्यकता है उदाहरण स्वरूप मानसिक व नैतिक कारकों को सही प्रशिक्षण और उससे होने वाली हानियों की ओर ध्यान देकर समाप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार सामाजिक कारकों के प्रभावों से बचने के लिए इस प्रकार के कारकों पर अंकुश लगाने के साथ ही साथ धर्म के गलत होने और उस धर्म के मानने वालों के व्यवहार के गलत हाने के मध्य अंतर को स्पष्ट करना चाहिए किंतु प्रत्येक दशा में मानसिक व सामाजिक कारकों के प्रभावों पर ध्यान का, कम से कम यह लाभ होता है कि मनुष्य अंजाने में उस के जाल में फंसने से सुरक्षित रहता है।

इसी प्रकार वैचारिक कारकों के कुप्रभावों से बचने के लिए उचित मार्ग अपनाना चाहिए और अंधविश्वास और विश्वास में अंतर को स्पष्ट करते हुए धर्म की आवश्यकता व महत्व को सिद्ध करने के लिए ठोस व तार्किक प्रमाणों को प्रयोग करना चाहिए और इस के साथ यह भी स्पष्ट करना चाहिए के दलील व प्रमाण की कमज़ोरी निश्चित रूप से जिस विषय के लिए दलील व प्रमाण लाया गया हो उसके गलत होने का प्रमाण नहीं है। अर्थात यदि किसी तथ्य को सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया तर्क या प्रमाण कमज़ोर हो तो उससे यह नहीं सिद्ध होता है कि वह विषय भी निश्चित रूप से ग़लत है क्योंकि यह भी हो सकता है कि वह विषय सही हो उसके लिए ठोस प्रमाण भी मौजूद हों किंतु जो व्यक्ति आप के सामने प्रमाण पेश कर रहा है उसमें इतनी क्षमता न हो।

स्पष्ट है कि हम यहां पर पथभ्रष्टता और उसकी रोकथाम के मार्गों पर व्यापक रूप से यहां चर्चा नहीं कर सकते, इसी लिए अब हम अपनी चर्चा को आगे बढ़ाते हैं।

ईश्वर और धर्म के बारे में बहुत से लोग विभिन्न प्रकार के संदेह प्रकट करते हैं किंतु उनमें से सब से मुख्य आपत्ति यह है कि किस प्रकार किसी एसे अस्तित्व की उपस्थिति पर विश्वास किया जा सकता है जिसे इन्द्रियों द्वारा महसूस नहीं किया जा सके?

प्रायः इस प्रकार की शंका कम गहराई से सोचने वाले लोग प्रकट करते हैं किंतु यह भी देखा गया है कि कुछ वैज्ञानिक और पढ़े लिखे लोग भी यह प्रश्न कर बैठते हैं अलबत्ता यह लोग उन लोगों में से होते हैं जो इन्द्रियों से महसूस किये जाने के सिद्धान्त में विश्वास रखते हैं और हर उस अस्तित्व का इन्कार करते हैं जिसे वह इन्द्रियों द्वारा महसूस न कर सकें।

इस प्रकार की शंका का निवारण इस प्रकार से किया जा सकता है कि इन्द्रियों द्वारा केवल आयाम व व्यास रखने वाली वस्तुओं और अस्तित्वों को ही महसूस किया जा सकता है। हमारी जो इन्द्रियां हैं वह विशेष परिस्थितियों में उन्हीं वस्तुओं को महसूस करती हैं जो उनकी क्षमता के अनुरुप हों। जिस प्रकार से यह नहीं सोचा जा सकता कि आंख, आवाज़ों को सुने या कान रंगों को देखें उसी प्रकार यह भी नहीं सोचा जा सकता कि ब्रह्माण्ड की सारी रचनाओं को हमारी इन्द्रियां महसूस कर सकती हैं।

क्योंकि पहली बात तो यह है कि यही भौतिक वस्तुओं में भी बहुत सी एसी चीज़ें हैं जिन्हें हम इन्द्रियों द्वारा सीधे रूप से महसूस नहीं कर सकते जैसे हमारी इन्द्रियां पराकासनी किरणों को या चुंबकीय लहरों को महसूस नहीं कर सकतीं किंतु फिर भी हमें उनके अस्तित्व पर पूरा विश्वास है। या इसी प्रकार से भय व प्रेम की मनोदशा या हमारे इरादे और संकल्प यह सब कुछ मौजूद है किंतु हम इन्हें अपनी इंद्रियों से महसूस नहीं कर सकते क्योंकि मनोदशाओं और मानसिक अवस्था को इन्द्री द्वारा महसूस किया जाना संभव नहीं है। इसी प्रकार आत्मा को भी इन्द्रियों द्वारा महसूस नहीं किया जा सकता और यह यह महसूस करना या आभास करना स्वयं ही ऐसी दशा है जिसे इन्द्रियों द्वारा महसूस नहीं किया जा सकता।

इस प्रकार से यह प्रमाणित हो गया कि विदित रूप से हमारी इन्द्रियों द्वारा यदि किसी वस्तु को आभास करना संभव न हो तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं होगा कि वह वस्तु मौजूद ही नहीं है या यह कि उसका होना कठिन है।

कुछ समाजशास्त्री कहते हैं कि ईश्वर पर विश्वास और धर्म पर आस्था वास्तव में ख़तरों से भय विशेषकर भूकंप आदि जैसी प्राकृतिक आपदाओं से उत्पन्न होने वाले डर का परिणाम है और वास्तव में मनुष्य ने अपने मन की शांति के लिए ईश्वर नाम के एक काल्पनिक अस्तित्व को गढ़ लिया है और उस की उपासना भी करने लगा है और इसी लिए जैसे जैसे प्राकृतिक आपदाओं के कारणों और उनसे उत्पन्न ख़तरों से निपटने के मार्ग स्पष्ट होते जाएंगे वैसे वैसे ईश्वर पर आस्था में भी कमी होती जाएगी।

मार्क्सवादियों ने इस शंका को बहुत अधिक बढ़ा चढ़ा कर पेश किया और इसे अपनी पुस्तकों में समाज शास्त्र की एक उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत किया और इसी वचार धारा से उन्होंने अज्ञानी लोगों को जमकर बहकाया भी।

इस शंका के उत्तर में हम यह कहेंगे कि पहली बात तो यह है कि इस शंका का आधार कुछ समाज शास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत धारणा है और इसके सही होने की कोई तार्किक दलील मौजूद नहीं है। दूसरी बात यह है कि इसी काल में बहुत से बुद्धिजीवी जिन्हें दूसरों से कई गुना अधिक विभिन्न प्राकृतिक ख़तरों के कारणों का ज्ञान था, ईश्वर के अस्तित्व पर पूरा विश्वास रखते थे। उदाहरण स्वरूप आइन्स्टाइन, क्रेसी, एलेक्सिस कार्ल आदि जैसे महान वैज्ञानिक व विचारक जिन्हों ने ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए कई किताबें और आलेख लिखे हैं इस लिए यह कहना ग़लत है कि ईश्वर पर विश्वास, भय का परिणाम होता है। एक अन्य बात यह भी है कि यदि कुछ प्राकृतिक घटनाओं के कारणों से अज्ञानता, मनुष्य को ईश्वर की ओर आकृष्ट करे तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं निकालना चाहिए के ईश्वर, मनुष्य के भय की पैदावार है। जैसा कि बहुत से वैज्ञानिकों व शोधों व अविष्कारों के पीछे, सुख ख्याति जैसी भावनाएं होती हैं किंतु इस से अविष्कारों पर कोई प्रभाव नहीं होता।

इस चर्चा के मुख्य बिन्दुः

• भ्रष्टाचार और ईश्वर के इन्कार के कारकों की समीक्षा से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन में प्रत्येक कारक को समाप्त और निवारण के लिए विशेष प्रकार की शैली व मार्ग की आवश्यकता है

• ईश्वर को इन्द्रियों द्वारा यदि महसूस न किया जाए तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उसका अस्तित्व ही नहीं है क्योंकि भौतिक वस्तुओं में भी बहुत सी ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें हम इन्द्रियों द्वारा सीधे रूप से महसूस नहीं कर सकते

 

• ईश्वर भय व प्राकृतिक आपदाओं से अज्ञानता की उत्पत्ति नहीं है क्योंकि विश्व के बड़े बड़े वैज्ञानिकों ने भी जिन्हें आपदाओं से कारणों का पूर्ण ज्ञान था और उनसे अंजाना भय भी नहीं रखते थे, ईश्वर के अस्तित्व पर आलेख लिखे और उसे माना है।

सृष्टि ईश्वर और धर्म २५- कारक और ईश्वर

पश्चिमी बुद्धिजीवी ईश्वर के अस्तित्व की इस दलील पर कि हर वस्तु के लिए एक कारक और बनाने वाला होना चाहिए यह आपत्ति भी करते हैं कि यदि यह सिदान्त सर्वव्यापी है अर्थात हर अस्तित्व के लिए एक कारक का होना हर दशा में आवश्यक है तो फिर यह सिद्धान्त ईश्वर पर भी यथार्थ होगा अर्थात चूंकि वह भी एक अस्तित्व है इस लिए उसके लिए भी एक कारक ही आवश्यकता होनी चाहिए जबकि ईश्वर को मानने वालों का कहना है कि ईश्वर मूल कारक है और उसके लिए किसी भी कारक की आवश्यकता नहीं इस प्रकार से यदि ईश्वर को मानने वालों की यह बात स्वीकार कर ली जाए तो इस का अर्थ यह होगा कि ईश्वर ऐसा अस्तित्व है जिसे कारक की आवश्यकता नहीं है अर्थात वह कारक आवश्यक होने के सिद्धान्त से अलग है तो इस स्थिति में ईश्वरवादियों द्वारा इस सिद्धान्त को प्रयोग करते हुए मूल कारक अर्थात ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करना भी ग़लत हो जाता है । अर्थात यह नहीं कहा जा सकता था कि मूल कारक ईश्वर है बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि मूल पदार्थ और ऊर्जा भी बिना किसी कारक के अस्तित्व में आई और फिर उसमें जो परिवर्तन आए उससे सृष्टि की रचना हो गयी ।

इस शंका के उत्तर में यह कहा जाता है कि वास्तव में यदि कोई इस सिद्धान्त को कि हर अस्तित्व के लिए कारक की आवश्यकता होती है सही रूप से समझे तो इस प्रकार की शंका उत्पन्न नहीं होती वास्तव में यह शंका कारक सिद्धान्त की ग़लत व्याख्या के कारण उत्पन्न होती है अर्थात शंका करने वाले यह समझते हैं कि यह जो कहा जाता है कि हर अस्तित्व के लिए कारक की आश्यकता होती है उसमें ईश्वर का अस्तित्व भी शामिल है जबकि ईश्वर के अस्तित्व का प्रकार भिन्न होता है इस लिए यदि इस मूल सिद्धान्त को सही रूप से समझना है तो इस वाक्य को इस प्रकार से कहना होगा कि हर निर्भर अस्तित्व या संभव अस्तित्व को कारक की आवश्यकता होती है और इस इस सिद्धान्त से कोई भी इस प्रकार का अस्तित्व बाहर नहीं है किंतु यह कहना कि कोई पदार्थ या ऊर्जा बिना कारक के अस्तित्व में आ सकती है सही नहीं है क्योंकि पदार्थ और ऊर्जा का अस्तित्व संभव या निर्भर अस्तित्व है इस लिए वह इस सिद्धान्त से बाहर नहीं हो सकता किंतु ईश्वर का अस्तित्व चूंकि निर्भर व संभव अस्तित्व के दायरे में नहीं है इस लिए वह संभव व निर्भर अस्तित्व के लिए निर्धारित सिद्धान्तों से भी बाहर है।

एक शंका यह भी की जाती है कि संसार और मनुष्य के रचयता के अस्तित्व पर विश्वास, कुछ वैज्ञानिक तथ्यों से मेल नहीं खाता । उदाहरण स्वरूप रसायन शास्त्र में यह सिद्ध हो चुका है कि पदार्थ और ऊर्जा की मात्रा सदैव स्थिर रहती है तो इस आधार पर कोई भी वस्तु, न होने से , अस्तित्व में नहीं आती और न ही कोई वस्तु कभी भी सदैव के लिए नष्ट होती है जबकि ईश्वर को मानने वालों का कहना है कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना ऐसी स्थिति में की जब कि कुछ भी नहीं था और एक दिन सब कुछ तबाह हो जाएगा और कुछ भी नहीं रहेगा ।

इसी प्रकार जीव विज्ञान में यह सिद्ध हो चुका है कि समस्त जीवित प्राणी , प्राणहीन वस्तुओं से अस्तित्व में आए हैं और धीरे धीरे परिपूर्ण होकर जीवित हो गये यहां तक कि मनुष्य के रूप में उनका विकास हुआ है किंतु ईश्वर को मानने वालों का विश्वास है कि ईश्वर ने सभी प्राणियों को अलग-अलग बनाया है।

इस प्रकार की शंकाओं के उत्तर में यह कहना चाहिए कि पहली बात तो यह है कि पदार्थ और ऊर्जा का नियम एक वैज्ञानिक नियम के रूप में केवल उन्ही वस्तुओं के बारे में मान्य है जिनका विश्लेषण किया जा सकता हो और उसके आधार पर इस दार्शनिक विषय का कि क्या पदार्थ और ऊर्जा सदैव से हैं और सदैव रहेंगे या नहीं, कोई उत्तर नहीं खोजा जा सकता ।

दूसरी बात यह है कि ऊर्जा और पदार्थ की मात्रा का स्थिर रहना और सदैव रहना, इस अर्थ में नहीं है कि उन्हें किसी रचयता की आवश्यकता ही नहीं है बल्कि ब्रहमांड की आयु जितनी अधिक होगी उतनी ही अधिक उसे किसी रचयता की आवश्यकता होगी क्योंकि रचना के लिए रचयता की आवश्यकता का मापदंड, उस के अस्तित्व में आवश्कयता का होना है न कि उस रचना का घटना होना और सीमित होना।

दूसरे शब्दों में पदार्थ और ऊर्जा , संसार के भौतिक कारक को बनाती है स्वंय कारक नहीं है और पदार्थ और ऊर्जा को स्वंय ही कर्ता व कारक की आवश्यकता होती है।

तीसरी बात यह है कि ऊर्जा व पदार्थ की मात्रा के स्थिर होने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि नयी वस्तुंए पैदा नहीं हो सकतीं और उन में वृद्धि या कमी नहीं हो सकती और इसी प्रकार आत्मा , जीवन , बोध और इरादा आदि पदार्थ और ऊर्जा नहीं हैं कि उन में कमी या वृद्धि को पदार्थ व ऊर्जा से संबधिंत नियम का उल्लंघन समझा जाए।

और चौथी बात यह कि वस्तुओं के बाद उनमें प्राण पड़ने का नियम यद्यपि अभी बहुत विश्वस्त नहीं हैं और बहुत से बड़े वैज्ञानिकों ने इस नियम का इन्कार किया है किंतु फिर भी यह ईश्वर पर विश्वास से विरोधाभास नहीं रखता और अधिक से अधिक यह नियम जीवित प्राणियों में एक प्रकार के योग्यतापूर्ण कारक के अस्तित्व को सिद्ध करता है किंतु इस से यह कदापि सिद्ध नहीं होता कि इस नियम का विश्व के रचयता से कोई संबंध है क्योंकि इस नियम में विश्वास रखने वाले बहुत से लोग और वैज्ञानिक इस सृष्टि और मनुष्य के लिए एक जन्मदाता के अस्तित्व में विश्वास रखने थे और रखते हैं।

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