आज पैग़म्बरे इस्लाम (स) के नाती इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का शुभ जन्म दिवस है। आज ही के दिन अर्थात तीन शाबान सन चार हिजरी क़मरी को हज़रत अली अलैहिस्सलाम और हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा के दूसरे सुपुत्र इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का जन्म हुआ। यह समचार जब पैग़म्बरे इस्लाम (स) को मिला तो वे बहुत प्रसन्न हुए। नवजात शिशु को सफ़ेद कपड़े में लपेटकर पैग़म्बरे इस्लाम (स) की सेवा में लाया गया। आपने बच्चे के दाएं कान में अज़ान और बाएं कान में अक़ामत कही और उसका नाम हुसैन रखा। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने बचपन के ६ वर्ष अपने नाना के प्रशिक्षण में व्यतीत किये। इमाम हुसैन के प्रति लगाव या उनसे प्रेम के संबन्ध में पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) का यह कथन ही पर्याप्त है कि हुसैन मुझसे है और मैं हुसैन से हूं।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने जीवन के तीस वर्ष अपने पिता हज़रत अली अलैहिस्सलाम की छत्रछाया में व्यतीत किये और पिता की शहादत के पश्चात वे दस वर्षों तक अपने बड़े भाई इमाम हसन अलैहिस्सलाम के साथ राजनैतिक और समाजिक मंचों पर उपस्थित रहे। इमाम हसन (अ) की शहादत के पश्चात आपने इमामत अर्थात ईश्वरीय मार्गदर्शन का ध्वज अपने हाथों में लिया और लोगों का मार्गदर्शन किया। आपने इस दायित्व का निर्वाह करबला में अत्यंत संवेदनशील एवं भविष्य निर्धारण वाले कालखण्ड में अपने जीवन की बलि देकर बहुत ही उचित ढंग से किया।
श्रोताओ इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के शुभ जन्म दिवस पर आपकी सेवा में बधाई प्रस्तुत करते हुए इस कार्यक्रम में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की दृष्टि में समाज के सुधार और मनुष्य के आत्म सम्मान के महत्व पर चर्चा करेंगे।
निःसन्देह इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आन्दोलन का मुख्य आधार, पवित्र क़ुरआन और उसकी सम्मानीय विचारधारा रहे हैं। आपने पवित्र क़ुरआन के सूरए मुनाफ़ेक़ून की आठवी आयत के सम्मान प्रदान करने वाले संदेश से प्रेरणा लेते हुए अपने आन्दोलन का आरंभ किया। इस आयत में ईश्वर कहता है कि मान-सम्मान, केवल ईश्वर उसके पैग़म्बर और ईमानवालों से विशेष हैं किंतु मिथ्याचारी नही जानते। वे सूरए हज की ४०वीं आयत में ईश्वर की ओर से दिये गए उस आशादायी वचन के आधार पर संतुष्ट थे जिसमें ईश्वर कहता है कि और ईश्वर उन लोगों की सहायता करता है जो उसकी सहायता करते हैं अर्थात उसके नियमों और सिद्धांतों की रक्षा करते हैं। ईश्वर सक्षम, महान और अजेय है। सम्मान उस स्थिति को कहते हैं जो मनुष्य से पराजय और अपमान स्वीकार करने की भावना को दूर कर देती है। सम्मान, अपमान का विलोम शब्द है। इस्लामी शिक्षाएं मनुष्य को हर प्रकार के अपमान और तिरस्कार को स्वीकार करने और भ्रष्ट तथा अनेकेश्वर वादियों के आदेशापालन से रोकती हैं। इस्लाम के मतानुसार समस्त बुराइयों, अत्याचारों और पापों की जड़ आत्म सम्मान का अभाव होता है और उनके सुधार का सबसे अच्छा मार्ग मनुष्य द्वारा समाज को सम्मान देना और लोगों में सम्मान की भावना जागृत करना है। निःसन्देह, सभी राष्ट्र समू्मान के इच्छुक होते हैं और इसकी प्राप्ति के लिए प्रयासरत रहते हैं। क्योंकि सम्मान की चाह मानव की प्रवृत्ति के अनुकूल होती है और कोई भी बुद्धिमान अपमान तथा निरादर को स्वीकार नहीं करता। किंतु कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सम्मान को दुनिया की चकाचौंध और भौतिकता में खोजते हैं जबकि कुछ अन्य लोग इसी को ईश्वर की उपासना और उसकी दासता के माध्यम से प्राप्त कर लेते हैं। ईमान वाले लोग, सम्मान को उसके मुख्य स्रोत अर्थात ईश्वर और पैग़म्बर से प्राप्त करते हैं। सूरए फ़ातिर की १०वीं आयत के एक भाग में ईश्वर कहता हैः- जो भी सम्मान का इच्छुक है, उसको ईश्वर से मांगना चाहिए क्योंकि समस्त सम्मान ईश्वर से ही संबन्धित है।
पवित्र क़ुरआन की व्याख्या की विश्वविख्यात पुस्तक अलमीज़ान के लेखक स्वर्गीय अल्लामा तबातबाई कहते हैं कि यह आयत सम्मान को केवल ईश्वर से विशेष नहीं बताती बल्कि इससे अभिप्रया यह है कि हर वह व्यक्ति जो सम्मान का इच्छुक है उसे ईश्वर से सम्मान मांगना चाहिए।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम, पवित्र क़ुरआन की इन उच्च शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए अपने आन्दोलन के आरंभ से शहादत के क्षण तक इस्लाम के सम्मान की सुरक्षा के लिए डटे रहे। आपने अपने आन्दोलन का आधार इस बात को बनाया था कि सम्मान के साथ मरना, अपमान के जीवन से बेहतर है। जब उनसे यज़ीद की बैअत अर्थात उसके आज्ञापालन के वचन की मांग की गई तो आपने कहा था, ईश्वर की सौगंध मैं उन लोगों को नीच लोगों की भांति आज्ञापालन का वचन नहीं दूंगा। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने हेतु एक महाआन्दोलन आरंभ किया। आप जानते थे कि अत्याचारी शासक के विरोध का अर्थ है समस्याओं और कठिनाइयों से जूझना, किंतु क्योंकि यह कार्य धर्म की रक्षा के लिए था इसलिए आपने इन सभी समस्याओं का डटकर मुक़ाबला किया।
इस आत्म सम्मान की जड़ ईश्वर के प्रति इमाम हुसैन के अडिग विश्वास में निहित थी। ईश्वर पर ईमान और विश्वास न केवल यह कि लोगों के सम्मान और गौरव का कारण है बल्कि यह समस्त आध्यात्मिक विशेषताओं एवं चारित्रिक परिपूर्णता का स्रोत भी है। जो भी ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य के सामने नतमस्तक होता और अपमान को स्वीकार करता है उसने हृदय की गहराई से ईश्वर की महानता का आभास किया ही नहीं है। वास्तव में यदि ईश्वर का वैभव एवं उसकी महानता किसी व्यक्ति के हृदय तथा और उसकी आत्मा में उतर जाए तो ऐसा व्यक्ति ईश्वरीय पहचान के उस शिखर पर पहुचं जाता है कि फिर किसी भी स्थिति में वह ईश्ववर के अतिरिक्त किसी अन्य के समक्ष नतमस्तक नहीं होता। इसी आधार पर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपमान से दूरी का जो नारा दे रहे थे उसका कारण ईश्वर पर उनका अडिग विश्वास था। इसी ईमान ने एक ऐसा प्रशंसनीय सम्मान और साहस उनके शरीर में भर दिया था कि जो उनको इस बात की अनुमति नहीं देता कि वह समाज में व्याप्त पापों और बुराइयों को सहन करे। इसीलिए समाज के सुधार हेतु आप ने आन्दोलन किया। इमाम हुसैन (अ) व्यक्ति तथा समाज के सुधार का सर्वोत्तम मार्ग ईश्वर की बंदगी की छाया में देखते हैं।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने बुराइयों से संघर्ष करने हेतु अपने काल की राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति की जानकारी रचने के साथ ही साथ पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं की ओर ध्यान देने की आवश्यकता पर भी बल देते थे। समाज में सुधार की आवश्यक्ता के संदर्भ में पवित्र क़ुरआन के पास अम्र बिल मारूफ़ और नही अनिल मुनकर अर्थात अच्छाई का आदेश देने और बुराई से रोकने जैसा प्रभावशाली पाठ मौजूद है। इस संदर्भ में स्वर्गीय आयतुल्लाह तबातबाई कहते हैं कि इस्लाम ने जिन विषयों की ओर विशेष ध्यान दिया हैं उनमें समाज सुधार सबसे महत्वपूर्ण विषय है। स्वस्थ समाज की स्थापना और लोगों को योग्य एवं अच्छा बनाने के लिए पवित्र क़ुरआन, समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक-दूसरे के व्यवहार पर दृष्टि रखने पर बल देता है और कहता है कि यह निरीक्षण अम्रबिल मारूफ़ और नही अनिल मुनकर से ही संभव है। सूरए आले इमरान की आयत संख्या १०४ में ईश्वर कहता हैः- तुम्हारे बीच लोगों को अवश्य ऐसा होना चाहिए जो अच्छाई का निमंत्रण दे और बुराई से रोकें और वही लोग मुक्ति प्राप्त करने वाले हैं।
अच्छाई का आदेश देना और बुराई से रोकना जैसे कार्य की समाज सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका है। यह सिद्धांत समस्त ईश्वरीय धर्मों की महत्वपूर्ण परंपरा है। पैग़म्बर और महापुरूष अपने समाज और अपनी जाति को बुराइयों से सुरक्षित रखने के लिए सदैव ही अच्छे कार्य करने को प्रेरित करते और बुराइयों से बचने का आदेश दिया करते थे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम भी इस्लाम के इस महत्वपूर्ण सिद्धांत से प्रेरणा लेकर विभिन्न स्थानों पर बनी उम्मैया के अत्याचारों की ओर संकेत करते हैं और उससे संघर्ष को अपना दायित्व मानते हैं। उदाहरण स्वरूप इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने मदीने से मक्के की ओर रवाना होने से पूर्व पैग़म्बरे इस्लाम (स) के मज़ार पर अपने इस दायित्व के निर्वाह के लिए ईश्वर से सहायता मांगी। आपने ईश्वर से इन शब्दों में प्रार्थना कीः- हे ईश्वर, मैं अच्छे कार्य को पसंद करता हूं और बुरे कामों को बुरा मानता हूं। हे महान ईश्वर मैं तुझे इस क़ब्र और इस इस क़ब्र के वासी की सौगंध देता हूं कि तू मेरे भाग्य में वही लिख जिसमें तेरी और तेरे पैग़म्बर की प्रसन्नता हो।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को यह भलिभांति ज्ञात था कि लोगों की सोच को बनाने में इस्लामी समाज के शासक और समाज के संचालन की शैली की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। किंतु यही महत्वपूर्ण तत्व उस समय में इस्लामी मूल्यों को भुलाए जाने का कारण बन चुके थे। इसीलिए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने लक्ष्य का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि मैं मदीने से अत्याचार, भ्रष्टाचार, शत्रुता और बुरे काम के लिए नहीं निकला हूं बल्कि अपने नाना के अनुयाइयों के बीच शांति व एकता उत्पन्न करने के लिए निकला हूं और मैं चाहता हूं कि अच्छाइयों का आदेश दूं और बुराइयों से रोकूं। इमाम हुसैन देख रहे थे कि यज़ीद और उमवी परिवार देश में भ्रष्टाचार फैलने और इस्लामी नियमों में परिवर्तन का कारण है। इसीलिए वे इस भ्रष्ट वातावरण में सुधार को अपना कर्तव्य समझते थे।
इमाम हुसैन अलैहिस्लाम महानता और सम्मान के आधार पर लोगों के प्रशिक्षण के इच्छुक थे क्योंकि प्रत्येक स्थिति में व्यक्ति के मन-मस्तिष्क के स्वास्थ्य को जो तत्व सुनिश्चित बनाता है वह आत्म सम्मान है। यदि आत्म सम्मान न हो तो मनुष्य हर प्रकार के बुरे काम और हर प्रकार का पाप करने के लिए तैयार रहता है। इसी आधार पर व्यक्ति और समाज के सुधार का सबसे अच्छा मार्ग लोगों में आत्म सम्मान की भावना को उत्पन्न करना है। यही महान भावना इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के सुधार आन्दोलन पर छाई हुई थी। यही कारण है कि उनका आन्दोलन समस्त कालों के लिए अमर आदर्श बन गया। वर्तमान समय में हम इस बात के साक्षी हैं कि मध्यपूर्व के मुस्लिम राष्ट्रों की मांगों का महत्वपूर्ण भाग इमाम हुसैन के आन्दोलन से प्रेरित है अर्थात वे न्याय के आधार पर एक स्थाई आत्म सम्मान और गौरव प्राप्त करना चाहते हैं ऐसी संप्रभुता जो मनुष्य के सम्मान को सुरक्षित रखते हुए उसे उसके अधिकार दिला सकें और समाज में ईश्वरीय आदेशों को लागू और प्रचलित करने का कारण बने।
source : abna.ir