रमज़ान के अनुकंपाओं और प्रकाश से भरे हुए दिनों में हम ईश्वरीय दरबार में गिड़गिडा के दुआ करते हैं कि हम सभी को इस ईश्वरीय मेहमानी के महीने में अधिक से अधिक ईश्वर की उपासना और ईश्वरीय गुणगान की कृपा प्रदान कर। मित्रो आपकी उपासनाओं व नमाज़ रोज़ों के स्वीकार होने की कामना और इस आशा के साथ कि इस्लाम धर्म की प्रकाशमयी शिक्षाओं की छत्रछाया में आप सौभाग्यशाली, सुखद व ईश्वरीय प्रसन्नता के क्षण व्यतीत कर रहे होंगे, आज की चर्चा हम पवित्र क़ुरआने मजीद में वर्णित एक दुआ से कर रहे हैं। पवित्र क़ुरआन के सूरए फ़ुरक़ान की आयत नंबर 74 में ईश्वर कहता है कि हे पालनहार मेरी पत्नी व मेरे बच्चों को मेरी आंखों की ठंडक बना और हम को ईश्वर से भय रखने वालों का इमाम बना। इस पवित्र महीने की महत्त्वपूर्ण शुभसूचनाओं में से ईश्वरीय क्षमा का आन्नद व स्वाद है। ईश्वर ने अपनी अपार, असीमित और अथाह विभूतियों से उन लोगों के लिए वापसी का मार्ग खोल दिया है जो अपने ग़लत व्यवहार के कारण पश्चाताप करते हैं। यह मार्ग तौबा और उससे क्षमा याचना है। इसीलिए वह लोग जो पापों के दुःखों में ग्रस्त हैं और पवित्रता की प्राप्ति के मार्ग को ढूंढ रहे हैं, तौबा के माध्यम से अपने हृदय से पापों की गंदगी को धो सकते हैं। इस प्रकार से हर पश्चाताप करने वाला पापी ईश्वर की ओर लौट सकता है इस शर्त के साथ कि उसकी तौबा वास्तविक हो। अर्थात ईश्वर से अपने पापों का प्रायश्चित करने के बाद सदकर्म, भलाई और शालीन कार्य करके पिछले बुरे कर्मो की भरपायी करे। इस स्थिति में ईश्वर भी पश्चाताप करने वाले व्यक्ति पर विशेष कृपा दृष्टि रखता है और शुभ वचन देता है। सूरए फ़ुरक़ान की अंतिम आयतों में ईश्वर ने पापियों को पाप का वचन दिया है किन्तु इसी सूरए की 70वीं आयत में इस विषय को अलग और अपवाद करते हुए कहता है कि मगर वह जो तौबा करे ईमान लाए और सदकर्म करे कि ईश्वर इस गुट के पापों को भलाईयों और सदकर्मों में परिवर्तित कर देता है ईश्वर बहुत क्षमा करने वाला और कृपालु है।
इस आयत में महत्त्वपूर्ण बिंदु यह है कि प्रायश्चित और सदकर्म करने के प्रयास से ईश्वर बुरे कार्यों को, भलाई और अच्छे कार्यों में परिवर्तित कर देता है। यह पश्चाताप करने वाले अपने बंदों पर ईश्वर की महान कृपा और अनुकंपा की एक छोटी सी निशानी है, क्योंकि दिल की गहराईयों से किया जाने वाला सच्चा प्रायश्चित, प्रभावी पारस की भांति मनुष्य के पूरे अस्तित्व और व्यक्तित्व में बहुत गहरा प्रभाव डालता है। मानो मनुष्य दोबारा पैदा हुआ हो। जिस प्रकार से एक नवजात शिशु हर प्रकार की बुराईयों से दूर होता है उसी प्रकार सच्चे मन से प्रायश्चित करने वाले की बुराईयां धुल जाती है और वह नवजात शिशु की भांति बुराईयों से दूर होता है। इस स्थिति में बुराईयों से भरा व्यक्तित्व प्रायश्चित के माध्यम से पवित्र और बुराईयों से ख़ाली व्यक्तित्व में परिवर्तित हो जाता है। वास्तव में कितना अधिक पश्चाताप और पछतावा इस बात का होगा कि रमज़ान के पवित्र महीने में व्यक्ति ईश्वरीय क्षमा का पात्र न बने जबकि पैग़म्बरे इस्लाम सल्ल्लाहो अलैह व आलेही वसल्लम का कहना है कि रमज़ान के पवित्र महीने के दिनों में इफ़्तार के समय ईश्वर एक हज़ार लोगों पर आधारित एक हज़ार गुटों को नरक से मुक्ति दिलाता है और बृहस्पतिवार की रात और शुक्रवार के दिन हर घंटे एक हज़ार लोगों वाले एक हज़ार गुटों को स्वतंत्र करता है जिनमें से हर एक ईश्वरीय प्रकोप का पात्र बन चुका था और पवित्र रमज़ान के महीने के अंतिम दिनों व रातों में इतने लोगों को स्वतंत्र करता है जितने उसने पूरे महीने स्वतंत्र किए हैं। अलबत्ता ईश्वरीय विभूतियों की ओर पलटने के लिए कुछ शर्तें हैं। यदि ईश्वर अपनी विभूतियों भरी बाहें अपने बंदों की ओर फैलाता है तो बंदों के भीतर भी तत्परता का होना आवश्यक है। उन्हें अपने भीतर परिवर्तन लाना चाहिए और अपने पूरे अस्तित्व से अपने कार्यों में पुनर्विचार का इच्छुक होना चाहिए। ईश्वरीय विभूतियों की ओर पलटने के बाद भी अपने चरित्र व ईमान के आधारों का, जो पापों के तूफ़ान में ढह गये हैं, पुनर्निमाण करना चाहिए। इस स्थिति में लोग आशा व उत्साह से भरे दिल के साथ अपनी बुराईयों और कमियों की भरपाई कर सकते हैं और ईश्वरीय प्रसन्नता को प्राप्त कर सकते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि हमारी गिनती निश्चेत लोगों में कब होने लगती है? जब जीवन के उतार चढ़ाव मनुष्य को स्वयं में इस प्रकार से व्यस्त कर देते हैं और उलझा देते हैं कि मनुष्य बड़ी बड़ी वास्तविकताओं व सच्चाईयों से निश्चेत हो जाता है। इन्हीं वास्तविकताओं में से सृष्टि में मनुष्य का मुख्य और महत्त्वपूर्ण स्थान है। दूसरे शब्दों में मनुष्य अपने प्रतिदिन के कामों में इतना उलझ जाता है कि स्वयं को ही भूल जाता है। यही स्वयं को भूलना, मनुष्य द्वारा ईश्वर को भूलने की भूमिका भी बन जाता है। संभव है कि इस स्थिति के विपरीत भी स्थिति सामने आए अर्थात ईश्वर को भूलना और जीवन में उसकी अथाव व अपार विभूतियों व कृपाओं से निश्चेतना के कारण मनुष्य सृष्टि में अपने स्थान और महत्त्व को याद करे। इसीलिए हर हाल और हर स्थिति में ईश्वर पर ध्यान और उसके सदैव मौजूद व उपस्थित रहने का विश्वास, ईश्वरीय दूतों के प्रशिक्षण कार्यक्रमों में सर्वोपरि और उनका मुख्य एजेन्डा था। ईश्वर पवित्र क़ुरआन के सूरए हश्र की 19वीं आयत में कहता है कि उन लोगों की भांति न हो जो ईश्वर को भूल गये और ईश्वर ने भी उन्हें स्वयं को भूलने में ग्रस्त कर दिया और वह धर्म भ्रष्ट और पापी हैं। स्पष्ट सी बात है कि ईश्वर को भूलने के कारण मनुष्य इस बात का आभास करने लगता है कि वह सृष्टि में स्वतंत्र और सर्वसमर्थ व सक्षम ईश्वर से आवश्यकता मुक्त है और बेपरवाह अपने आपको उद्दंडी लोगों के हवाले कर देता है। इस स्थिति में मनुष्य अपनी रचना के आरंभ और अंत के मुख्य लक्ष्यों को भूल जाता है और अपनी मानवीय प्रतिष्ठा को परे रखते हुए पाप और धर्मभ्रष्टता में डूब जाता है। संसार में मनुष्य की उदंडता के कारणों में से एक सत्ता में पहुंचने के बाद अपने कमज़ोर बिंदुओं को भूल जाना है। वह व्यक्ति जो संपत्ति की प्राप्ति के बाद अपने निर्धनता के काल को भूल जाए या उच्च स्थान और ख्याति प्राप्त करने के बाद स्वयं को भूल जाए तो उसकी संपत्ति और उसका स्थान उसके लिए ऐसा जाल है जिसने उसे ईश्वर से निश्चेत कर दिया है। मित्रो आइये ईश्वर के समक्ष यह दुआ करें कि हे पालनहार हमें इतनी शक्ति प्रदान कर कि सांसारिक मायामोह, हमें स्वयं और ईश्वर से निश्चेत न कर सके। (आमीन) चर्चा के इस भाग में एक शिक्षाप्रद कहानी आपको सुनाते हैं। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के महान साथी अबूज़र के पास एक पत्र आया। उन्होंने उसे खोला और पढ़ा। पत्र बहुत ही दूर से आया था। एक व्यक्ति ने पत्र के माध्यम से उनसे नसीहत व उपदेश करने की अपील की थी। वह उन लोगों में से था जो अबूज़र को पहचानता था और यह भी जानता था कि पैग़म्बरे इस्लाम (स), अबूज़र पर विशेष ध्यान देते हैं और पैग़म्बरे इस्लाम (स) ही ने अपने तथ्यपूर्ण और उच्च बातों से उन्हें तत्वदर्शिता व ज्ञान का पाठ दिया है। अबूज़र ने इस पत्र के उत्तर में छोटी सी बात लिखी। वह छोटी सी बात यह थी कि जिस चीज़ को तुम सबसे अधिक चाहते हो उससे बुराई व शत्रुता न करो। अबूज़र ने यह पत्र उस व्यक्ति की ओर रवाना कर दिया। उस व्यक्ति को जब पत्र मिला और उसने खोलकर पढ़ा तो उसकी समझ में कुछ नहीं आया। उसने स्वयं से कहा इसका क्या अर्थ है? इसका क्या उद्देश्य है? क्या यह संभव है कि कोई व्यक्ति किसी चीज़ को चाहे और वह भी दिल की गहराईयों से और उसके साथ बुराई करे? न केवल बुराई नहीं करेगा बल्कि उसके क़दमों में जान व माल की बलि चढ़ा देगा।
दूसरी ओर उसने स्वयं यह सोचा कि यह बात लिखने वाला व्यक्ति कोई और नहीं अबूज़र है जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती, कोई विकल्प नहीं है उन्हीं से इसके विवरण की मांग की जाए, इसमें कोई बात छिपी है। उसने दोबारा उन्हें पत्र लिखा और अपनी बातों की व्याख्या करने की इच्छा व्यक्त की। अबूज़र ने उत्तर में लिखा कि तुम्हारे निकट सबसे प्रिय और सबसे पसंदीदा व्यक्ति से मेरा उद्देश्य, तुम स्वयं ही हो, कोई दूसरा नहीं है। तुम स्वयं को हर व्यक्ति से अधिक चाहते हो, इसीलिए तुमसे कहा कि अपनी सबसे प्रिय चीज़ से शत्रुता न करो, अर्थात स्वयं से शत्रुतापूर्ण व्यवहार न करो। क्या तुम नहीं जानते कि मनुष्य जो भी अशोभनीय या कोई बुरा कार्य करता है, इसका सीधा नुक़सान उस पर पड़ता है और हानि उसका पल्लू नहीं छोड़ती है। इस प्रकार से पैग़म्बरे इस्लाम के महान साथी अबूज़र ने अपने सूक्षम, प्रभावी और दिल में जगह बना लेने वाले बयान से उस व्यक्ति को पाप और बुरे कार्य से रोक दिया
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