पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने धर्म के प्रचार के लिए मदीना नगर में एक सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था की नींव डाली जिसमें आदर्श न्यायिक विभाग, सैनिक संस्था तथा कार्यालय तंत्र था यह इस्लामी सभ्यता धीरे धीरे फैलती गई।
ज्ञान और चिंतन पर इस्लामी शिक्षाओं में विशेष रूप से बल दिया गया है। यह बात निःसंकोच कही जा सकती है कि इस्लाम के अतिरिक्त किसी भी धर्म ने ज्ञान एवं विद्या ग्रहण करने के विषय पर इतना अधिक बल नहीं दिया है। क़ुरआन मजीद और पैग़म्बरे इस्लाम के प्रवचनों के अध्ययन से समझा जा सकता है कि ईश्वर तथा ईश्वरीय दूत मुसलमानों ही नहीं बल्कि दूसरे मतों के अनुयायियों सहित सभी मनुष्यों को चिंतन मनन तथा बुद्धि से काम लेने का निमंत्रण दिया। ईश्वर के निकट अंधा विश्वास और सोच-विचार से रिक्त आस्था स्वीकार्य नहीं है। बुद्धि ऐसा साधन है जो ईश्वर की पहचान प्राप्त करने में मनुष्य की सहायता करता है। ईश्वर तथा एकेश्वरवाद को समझने का मार्ग भी चिंतन मनन ही है। ईश्वर ने सूरए अन्बिया की आयत नम्बर 67 में कहता है कि ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य अस्तित्व को ईश्वर समझ बैठने का करण चिंतन और विचार से दूरी है। आयत में कहा गया है कि धिक्कार हो तुम पर और उस पर जिसे तुम ईश्वर समझ बैठे हो, क्या तुम सोच समझ नहीं रहे हो?!
इस्लाम धर्म ने अज्ञानी व्यक्ति की आलोचना की है। अज्ञानी का अर्थ निरक्षर व्यक्ति नहीं है। संभव है कि कुछ लोग शिक्षित हों किंतु वास्तव में अज्ञानी हों। वे संसार की वस्तुओं की जानकारी एकत्रित करके अपने आप को ज्ञानी समझ बैठे हैं जबकि उनके मन में सूचनाओं के भंडार के अतिरिक्त कुछ नहीं है। वे जीवन के मूल विषयों और मामलों के बारे में कभी कोई सोच विचार नहीं करते इसी लिए सही मार्ग नहीं खोज पाते।
मानव इतिहास में जो लोग धर्म और ज्ञान को एक दूसरे के विपरीत मानते रहे हैं वो इस्लाम धर्म में ज्ञान के स्थान और महत्व को देखकर निश्चित रूप से आवाक रह जाएंगे और उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकलेगा। इस्लाम धर्म के इतिहास तथा ज्ञान स्रोतों में कहीं भी धर्म और ज्ञान का कोई टकराव नहीं दिखाई देता है। जाबिर इब्ने हय्यान, मोहम्मद मूसा ख़्वारज़्मी, मोहम्मद बिन ज़करिया राज़ी, फ़ाराबी, इब्ने हैसम, इब्ने सीना, इब्ने रुश्द और दूसरे अनेक विद्वान इस्लाम में धर्म और ज्ञान के संगम तथा ज्ञान और शिक्षा पर इस्लाम धर्म के विशेष ध्यान के प्रतीक हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम पर उतरने वाले पहले ही सूरे में ईश्वर कहता है कि पढ़ो अपने पालनहार के नाम से कि जिसने रचना की, जमे हुए ख़ून से मनुष्य की रचना की, पढ़ो कि तुम्हारा पालनहार सबसे बड़ा है, वही जिसने क़लम से ज्ञान दिया और मनुष्य को उस बात का ज्ञान दिया जो वो नहीं जानता था। इस विषय का महत्व उस समय और भी विधिवत ढंग से समझ में आएगा जब हम इस बिंदु पर ध्यान केन्द्रित रखें कि जिन दिनों यह आयतें उतरीं मक्के और हिजाज़ के क्षेत्र में न क़लम था और न लिखने वाले। यदि कुछ लोगों को थोड़ा बहुत लिखना पढ़ना आता भी था तो मक्के में, जो धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक केन्द्र था, उनकी संख्या बीस से अधिक नहीं थी। इन परिस्थितियों में ईश्वर ने लिखने और पढ़ने की सौगंध खायी है, जिससे इस्लाम धर्म के निकट ज्ञान और शिक्षा के महत्व का अनुमान होता है।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने एक महत्वपूर्ण काम यह किया कि उन्होंने ज्ञान और शिक्षा को सार्वजनिक किया। उन्होंने मदीना नगर में परिश्रम करके ज्ञान और शिक्षा के साधनों और संभावनाओं तक हरेक की पहुंच को संभव बनाया। इस प्रकार किसी भी वर्ग से संबंध रखने वाला कोई भी व्यक्ति अपने प्राकृतिक क्षमताओं के आधार पर तथा अपने प्रयासों और परिश्रम के अनुसार परिपूर्णता तक पहुंच सकता था। बद्र युद्ध में मुसलमानों को विजय प्राप्त हुई और नास्तिकों के कुछ लोग युद्धबंदी बन गए। इन युद्ध बंदियों में कुछ पढ़े लिखे थे। पैग़म्बरे इस्लाम ने घोषणा कर दी कि हर युद्ध बंदी दस मुसलमानों को लिखना-पढ़ना सिखाकर रिहाई प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार बहुत से मुसलमानों को शिक्षा प्राप्त हो गई। ज़ैद बिन साबित उन लोगों में थे जिन्होंने इन्हीं युद्धबंदियों से शिक्षा प्राप्त की। पैग़म्बरे इस्लाम के इस पक्ष से जहां ज्ञान और शिक्षा पर इस्लाम धर्म के विशेष ध्यान का पता चलता है वहीं युद्ध बंदियो के अधिकारों की रक्षा के संबंध में इस्लाम का दृष्टिकोण भी सामने आता है जो मानव समाजों के लिए शिक्षाप्रद बिंदु है।
क़ुरआन की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम तथा उनके परिजनों के प्रवचनों में ज्ञान और शिक्षा के बारे में जो कुछ कहा गया है यदि उसे बिना किसी विवरण और विशलेषण के एकत्रित कर दिया जाए तो कई बड़ी पुस्तकें तैयार हो जाएंगी। यह निश्चित है कि यदि इस्लाम धर्म के महापुरुषों ने ज्ञान और शिक्षा के महत्व पर इतना अधिक बल न दिया होता तो इस्लाम को इतना महान स्थान पर भी प्राप्त न हो पाता। इतिहास में भी यह बात सिद्ध हो चुकी है कि इस्लमी सभ्यता के काल में इस्लामी जगत में विभिन्न विषयों और ज्ञान का बड़ा विकास हुआ तथा मुसलमनों ने ज्ञान ग्रहण करने के साथ ही कुछ नए विषयों का अविष्कार भी किया। विभिन्न शिक्षा केन्द्रों में विभिन्न विषयों की शिक्षा दी जाती थी। धार्मिक एवं ज्ञान केन्द्रों में बहुत बड़े पुस्तकालय तथा अध्ययन केन्द्र बनाए गए तथा धर्म व ज्ञान का एक साथ प्रसार हुआ। महान इस्लामी बुद्धिजीवी एवं धर्मगुरू शहीद मुरतज़ा मुतह्हरी ने ज्ञान एवं ईमान के विषय पर चर्चा करते हुए ज्ञान और ईमान के टकराव के बारे में ईसाई धर्म के विचार की ओर संकेत किया है और कहा है कि धर्म और ज्ञान के आपसी संबंध के बारे में ईसाई मत के लोगों के ग़लत निष्कर्ष के कारण यूरोप के सभ्य समाज का इतिहास ज्ञान और धर्म के टकराव का साक्षी बना। किंतु इस्लामी इतिहास के हर युग में चाहे उत्थान का काल हो या पतन का ज्ञान और धर्म दोनों सदैव एक साथ दिखाई देते हैं। शहीद मुतह्हरी इसके बाद कहते हैं कि हमें ईसाइयों के इस विचार से स्वयं को दूर रखना चाहिए और इस पर कदापि विश्वास नहीं करना चाहिए कि धर्म और ज्ञान के बीच टकराव पाया जाता है। उनका कहना है कि ज्ञान और धर्म एक दूसरे के पूरक और सहायक हैं और इन दोनों के सहारे मनुष्य परिपूर्णता तक पहुंचता है।
इस्लामी विचारधारा के अनुसार धर्म और ज्ञान एक दूसरे से अलग नहीं हैं बल्कि दोनों के बीच बहुत निकट संबंध है। क़ुरआन में अस्सी बार अनेक स्थानों पर ज्ञान का शब्द आया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस्लाम ज्ञान को विशेष महत्व की दृष्टि से देखता है और उसे विशेष सम्मान देता है। ईश्वर ने क़ुरआन के सूरए मुजादेला की आयत नम्बर ११ में कहा है कि ईश्वर ईमान लाने वालों और ज्ञान प्राप्त करने वालों को उच्च स्थान प्रदान करता है।
ईश्वर बुद्धिमान लोगों को सृष्टि, धरती की रचना, आसमान, सितारों, सूर्च और चंद्रमा की उत्पत्ति के बारे में चिंतन का निर्देश देता है। कुरआन की कुछ आयतों का मुसलमानों को गणित और खगोल शास्त्र की शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करने में विशेष प्रभाव रहा है। ईश्वर सूरए युनुस की आयत क्रमांक ५ में कहता है कि वो (ईश्वर) वही है जिसने सूर्य को प्रकाश तथा चंद्रमा को ज्योति बनाया तथा उनके लिए कुछ स्थान निर्धारित किए हैं ताकि तुम वर्षों की संख्या और हिसाब को समझ सको, ईश्वर ने इनकी रचना नहीं की सिवाए इसके कि हक़ के साथ। वो निशानियों को बुद्धि रखने वालों के लिए बयान करता है।
आयतों और प्रवचनों में ज्ञान के महत्व तथा ज्ञानियों के उच्च स्थान को विशेष रूप से बयान किया गया है। एक दिन पैग़म्बरे इस्लाम के एक साथी उनकी सेवा में पहुंचे और कहा कि हे ईश्वर के दूत किसी जनाज़े के अंतिम संस्कार में सम्मिलिति तथा ज्ञान की सभा में उपस्थिति में आपके निकट कौन अधिक प्रिय है? पैग़म्बरे इस्लाम ने उत्तर दिया कि यदि अंतिम संस्कार के लिए कुछ लोग उपलब्ध हैं तो एक ज्ञानी की सभा में जाना हज़ार मृतकों के अंतिम संस्कार में भाग लेने, एक हज़ार बीमारों को दखने जाने, हज़ार रातों की उपासना, एक हज़ार रोज़े रखने, ग़रीबों को दान स्वरूप एक हज़ार दिरहम देने, एक हज़ार बार हज करने, ईश्वर के मार्ग में एक हज़ार युद्धों में भाग लेने से भी बहुत बेहतर है। क्या तुम नहीं जानते कि ईश्वर की उपासना केवल ज्ञान के माध्यम से ही की जा सकती है। लोक परलोक की भलाई ज्ञान में है तथा लोक परलोक की बुराई अज्ञानता में।
पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के जीवन काल में विशेष रूप से इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के युग में ज्ञान और शिक्षा का बड़ा विकास हुआ। इन महापुरुषों ने अपने अनुयायियों और श्रद्धालुओं को ज्ञान अर्जित करने के लिए बहुत अधिक प्रोत्साहित किया। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने कहा है कि यदि कोई ज्ञान और तत्वदर्शिता के बिना कोई काम करता है तो एसा ही है जैसे कोई पथिक सही मार्ग के अतिरिक्त किसी अन्य मार्ग पर चल निकला है अतः वो जितना आगे बढ़ेगा उतना ही सही मार्ग से दूर होता जाएगा।
आयतों और प्रवचनों से पता चलता है कि इस्लाम के निकट धर्म और ज्ञान में न केवल यह कि कोई टकराव नहीं है बल्कि दोनों एक दूसरे के लिए अनिवार्य हैं। इसके अतिरिक्त इस्लामी सभ्यता की ज्ञान के क्षैत्र में प्रकाशमय गतिविधियां भी इस बात की सूचक हैं कि मुसलमान ज्ञानी विभिन्न विषयों में ज्ञान संबंधी गतिविधियों को उपासना का दर्जा देते थे और यह लोग प्रायः धर्म पर गहरी आस्था रखने वाले होते थे। शरफ़ुद्दीन ख़ुरासानी ने इस्लामी विश्वकोष में लिखते हैं कि प्रख्यात दार्शनिक एवं चिकित्सक अबू अली सीना ने अपनी जीवनी में कहा ह कि जब भी उन्हें तर्क शास्त्र के अध्ययन के समय कोई गुत्थी परेशान कर देती थी वे उठकर मस्जिद जाते थे और नमाज़ पढ़ते थे तथा ईश्वर से इस समस्या का समाधान प्राप्त करने की दुआ मांगते थे।
इस बिंदु पर भी ध्यान रखना आवश्यक है कि इस्लाम में ज्ञान ग्रहण करने के कुछ संस्कार निर्धारित किए गए हैं। इस्लाम में ज्ञान, उपासना तथा शिष्टाचार को एक दूसरे के लिए अभिन्न ठहराया गया है और तीनों को एक साथ रखने की आवश्यकता पर बल दिया गया है। वस्तुतः इस्लाम धर्म में ज्ञानी एक प्रतिबद्ध एवं ज़िम्मेदार मनुष्य होता है जबकि शिष्टाचार से वंचित ज्ञानी समाज के लिए हानिकारक सिद्ध होता है। यह इस्लाम धर्म की एक अद्वितीय विशेषता है कि उसने ज्ञान एवं प्रशिक्षण के विषय में निर्धारित सिद्धांत रखे हैं।
source : hindi.irib.ir