जिस तरह अल्लाह की हिकमत इस बात का तक़ाज़ा करती है कि इंसानों की हिदायत के लिए पैग़म्बरों को भेजा जाये इसी तरह उस की हिकमत यह भी तक़ाज़ा करती है कि पैग़म्बरों के बाद भी इंसान की हिदायत के लिए अल्लाह की तरफ़ से हर दौर में एक इमाम हो जो अल्लाह के दीन और पैग़म्बरों की शरीयत की तहरीफ़ से महफ़ूज़ रखे,हर ज़माने की ज़रूरतों से आगाह करे और लोगों को अल्लाह के दीन और पैग़म्बरों के आईन की तरफ़ बुलाये। अगर ऐसा न हो तो इंसान की ख़िल्क़त का मक़सद जो कि तकामुल और सआदत है फ़ोत हो जाये गा,इंसान की हिदायत के रास्ते बन्द हो जायें गे,पैग़म्बरों की शरीयत रायगाँ चली जाये गी और इंसान चारो तरफ़ भटकता फ़िरे गा।
इसी वजह से हमारा अक़ीदह यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम के बाद हर ज़माने में एक इमाम मौजूद रहा है। “या अय्युहा अल्लज़ीना आमिनू इत्तक़ु अल्लाह व कूनू माअस्सादीक़ीन ”[1] यानी ऐ ईमान लाने वालो अल्लाह से डरो और सादेक़ीन के साथ हो जाओ।
यह आयत किसी एक ख़ास ज़माने से मख़सूस नही है और बग़ैर किसी शर्त के सादेक़ीन की पैरवी का हुक्म इस बात पर दलालत करता है कि हर ज़माने के लिए एक मासूम इमाम होता है जिसकी पैरवी ज़रूरी है। बहुत से सुन्नी शिया उलमा ने अपनी तफ़्सीरों में इस बात की तरफ़ इशारा भी किया है।[2]
[1] सूरए तौबा आयत न. 119
[2] फ़ख़रे राज़ी इस आयत के ज़िम्न में बहस करते हुए कहते हैं कि “आयत इस बात पर दलालत करती है कि हर आम इंसान जायज़ुल ख़ता है यानी उस से ग़लती के सरज़द होने के इमकान पाये जाते हैं लिहाज़ा इमाम व पेशवा उस को होना चाहिए जो मासूम हो और मासूम वही हैं जिन को अल्लाह ने सादेक़ीन कहा है। बस यह क़ौल इस बात पर दलालत करता है कि हर जायज़ुल ख़ता इंसान को चाहिए कि वह मासूम के साथ रहे ताकि मासूम उस को ख़ता से महफ़ूज़ रख सके और आयत के यह मअना हर ज़माने के लिए है किसी एक ज़माने से मख़सूस नही है और यह इस बात पर दलालत है कि एक मासूम इंसान हर ज़माने में मौजूद रहता है।”(तफ़्सीरे कबीर जिल्द 16 पोज न. 221)
source : al-shia.org