इस्लामी कैलेंडर का साल समाप्त हो रहा है और अब केवल कुछ ही दिन रह गए हैं नया साल आरम्भ होने में इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना मोहर्रम है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद से मोहर्रम केवल एक महीने का नाम नहीं रह गया बल्कि यह एक दुखद घटना का नाम है, एक सिद्धांत का नाम है और सबसे बढ़कर सत्य व असत्य, अत्याचार तथा साहस की कसौटी का नाम है।
वास्तव में करबला की नींव उसी समय पड़ गई थी कि जब शैतान ने आदम से पहली बार ईर्ष्या का आभास किया था और यह प्रतिज्ञा की थी कि वह ईश्वर के बंदों को उसके मार्ग से विचलित करता रहेगा। समय आगे बढ़ता गया। विश्व के प्रत्येक स्थान पर ईश्वर के पैग़म्बर आते रहे और जनता का मार्ग करने का प्रयास करते रहे दूसरी ओर शैतान अपने काम में लगा रहा। ईश्वर के मार्ग पर चलने वालों की संख्या भी कम नहीं थी परन्तु शैतान के शिष्य भी अत्याचार और अन्याय की विभिन्न पद्धतियों के साथ सामने आ रहे थे। जहां भी ज्ञान का प्रकाश फैलता और मानव समाज ईश्वरीय मार्ग पर चलना आरंभ करता वहीं अज्ञानता का अन्धकार फैलाकर लोगों को पथभ्रष्ट करने का शैतानी कार्य आरंभ हो जाता। एक लाख चौबीस हज़ार पैग़म्बरों को ईश्वर ने संसार में भेजा, अन्य महान पुरूष इनके अतिरिक्त थे, परन्तु देखने में यह आया कि इन पैग़म्बरों और महान पुरूषों के संसार से जाते ही उनके प्रयासों पर पानी फेरा जाने लगा। मन गढ़त बातें फैलाई गईं और वास्तविकता, धर्म और ईश्वरीय पुस्तकों में फेर-बदल किया जाने लगा। हज़रत ईसा, मूसा, दाऊद, सुलैमान, इल्यास, इद्रीस, यूसुफ़, यूनुस, इब्राहीम और न जाने कितने एसे नाम इतिहास के पन्नों पर जगमगा रहे हैं परन्तु इनके सामने विभिन्न दानव, राक्षस और शैतान के पक्षधर अपने दुषकर्मों की काली छाया के साथ उपस्थित रहे हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वआलेही वसल्लम का काल भी एसा ही काल था परन्तु इस समय संवेदनशीलता बढ़ गई थी क्योंकि यदि हज़रत मुहम्मद के पश्चात उनके लाए हुए धर्म में, जो वास्तव में अबतक के सभी पैग़म्बरों का धर्म था/फेर बदल हो जाता, उसके सिद्धांतों को मिटा दिया जाता तो फिर संसार में केवल अन्याय और अत्याचार का ही बोलबाला हो जाता। ग़लत और सही, तथा अच्छे और बुरे की पहचान मिट जाती। इसलिए पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के पश्चात उनके परिवार ने आगे बढ़कर उनकी शिक्षाओं को शत्रुओं से बचाने का प्रयास आरंभ कर दिया।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम, अली और फ़ातेमा की गोदी में पले थे। पैग़म्बरे इस्लाम का लहू उनकी रगो में दौड़ रहा था। उनके ज्ञान, चरित्र और पारिवारिक महानता के कारण जनता उनसे अत्याधिक प्रेम करती थी। उनके विरोधी पक्ष में शैतान का प्रतिनिधि यज़ीद था। यज़ीद के पिता मोआविया ने इमाम हुसैन के बड़े भाई इमाम हसन के साथ जो एतिहासिक संधि की थी उसके अनुसार मुआविया को यह अधिकार प्राप्त नहीं था कि वह अपने उत्तराधिकारी का चयन करता। परन्तु मुआविया ने अपने जीवन के अन्तिम दिनों में पैग़म्बरे इस्लाम के नाती इमाम हसन के साथ हुई संधि को अनदेखा करते हुए यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। यज़ीद ने ख़लीफ़ा बनते ही अन्याय पर आधारित और मानवता एवं धर्म विरोधी अपने कार्य आरंभ कर दिये। उसने शाम अर्थात सीरिया की राजधानी से मदीने में अपने राज्यपाल को तुरंत यह आदेश भेजा कि वह पैग़म्बरे इस्लाम के नाती इमाम हुसैन से कहे कि वे मेरी बैअत करें वरना उनका सिर काट कर मेरे पास भेज दो। बैअत का अर्थ होता है आज्ञापालन या समर्थन का वचन देना। इमाम हुसैन ने यह बात सुनते ही स्थिति का आंकलन कर लिया। वे पूर्णतयः समझ गए थे कि यज़ीद अपने दुष्कर्मों पर उनके द्वारा पवित्रता की मुहर और छाप लगाना चाहता है तथा एसा न होने की स्थिति में किसी भी स्थान पर उनकी हत्या कराने से नहीं चूकेगा। अतः इमाम हुसैन ने निर्णय लिया था कि जब मृत्यु को ही गले लगाना है तो फिर अत्याचार और अन्याय के प्रतीक से एसी टक्कर ली जाए कि वर्तमान विश्व ही नहीं आने वाले काल भी यह पाठ सीख लें कि महान आदर्शों की रक्षा जीवन की बलि देकर ही की जा सकती है।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को यह भी ज्ञात था कि उनकी शहादत के पश्चात यज़ीदी दानव यह प्रयास करेंगे कि झूठे प्रचारों द्वारा उनकी शहादत के वास्तविक कारणों को छिपा दें। यही नहीं बल्कि शहादत की घटना को ही लोगों तक पहुंचने न दे अतः अली व फ़ातेमा के सुपूत ने समस्त परिवार को अपने साथ लिया। इस परिवार में इमाम हुसैन के भाई, चचेरे भाई, भतीजे, भान्जे, पुत्र, पुत्रियां, बहनें पत्नियां और भाइयों की पत्नियां ही नहीं बल्कि परिवार से प्रेम करने वाले दास और दासियां भी सम्मिलित थे। यह कारवान ६० हिजरी क़मरी वर्ष के छठे महीने की २८ तारीख़ को मदीने से मक्का की ओर चला था।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के भाई मुहम्मद बिन हनफ़िया ने ही नहीं बल्कि मदीना नगर के अनेक वरिष्ठ लोगों ने इमाम हुसैन को रोकने का प्रयास किया था परन्तु वे हरेक से यह कहते थे कि मेरा उद्देश्य, अम्रबिल मारुफ़ व नहि अनिल मुनकर है अर्थात मैं लोगों को भलाई का आदेश देने और बुराई से रोकने के उद्देश्य से जा रहा हूं।
हुसैन जा रहे थे। पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों से नगर लगभग ख़ाली होने वाला था। वे जिन लोगों को घर में छोड़े जा रहे थे उनमें पैग़म्बरे इस्लाम की बूढ़ी पत्नी हज़रत उम्मे सलमा, इमाम हुसैन के प्रिय भाई अब्बास की माता उम्मुल बनीन और इमाम हुसैन की एक बीमार सुपुत्री हज़रत फ़ातिमा सुग़रा थीं। फ़ातिमा सुग़रा के बारे में इतिहासकारों ने लिखा है कि वे अपने परिवार के साथ जाने के लिए अत्याधिक व्याकुल थीं परन्तु इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने इन महिलाओं को इसलिए मदीने में छोड़ दिया था ताकि इनकी व्याकुलता और आंसू, इस बात का प्रचार कर सकें कि यज़ीद के शासन को वैधता प्रदान न करने के कारण हुसैन को अपना प्रिय वतन मदीना छोड़ना पड़ा है।