लोगों का मानना है कि इसी समय हज़रत अबू तालिब ने भी इस्लाम कुबूल कर लिया था लेकिन मक्के के हालात देखते हुए उन्होंने इसकी घोषणा करना मुनासिब नहीं समझा. जब यह चाल भी नाकाम हो गई तो मक्के के सरदारों ने एक और चाल चली. उन्होंने अकबा बिन राबिया नाम के एक व्यक्ति को पैग़म्बर साहब के पास भेजा और कहलवाया कि “ऐ मोहम्मद! आखिर तुम चाहते क्या हो? मक्के की सल्तनत? किसी बड़े घराने में शादी? धन, दौलत का खज़ाना? यह सब तुम को मिल सकता है और बात पर भी राज़ी हैं कि सारा मक्का तुम्हे अपना शासक मान ले, बस शर्त इतनी है कि तुम हमारे धर्म मैं हस्तक्षेप न करो”. इसके जवाब में हज़रत मोहम्मद ने कुरआन शरीफ कि कुछ आयते (वचन) सुना दीं. इन आयातों का अकबा पर इतना प्रभाव हुआ कि उन्होंने मक्के वालों से जाकर कहा कि मोहम्मद जो कुछ कहते हैं वे शायरी नहीं है कुछ और चीज़ है। मेरे ख़याल में तुम लोग मोहम्मद को उनके हाल पर छोड़ दो अगर वह कामयाब हो कर सारे अरब पर विजय हासिल करते हैं तो तुम लोगो को भी सम्मान मिलेगा अन्यथा अरब के लोग उनको खुद ख़तम कर देंगे।
लेकिन मक्के वाले इस पर राज़ी नहीं हुए और हज़रत मोहम्मद के विरुद्ध ज़्यादा कड़े कदम उठाये जाने लगे. (हज़रत मोहम्मद को परेशान करने वालो में अबू सुफ्यान, अबू जहल और अबू लहब सबसे आगे थे). हज़रत मोहम्मद और उनके साथियों का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया. कष्ट की इस घड़ी में एक बार फिर हज़रत मोहम्मद के चाचा हज़रत अबू तालिब ने एक शिविर का प्रबंध किया और मुसलमानों को सुरक्षा प्रदान की।
इस सुरक्षा शिविर को शोएब-ए-अबू तालिब कहा जाता है. इस दौरान हज़रत अबू तालिब हज़रत मोहम्मद की सलामती को लेकर इतना चिंतित थे कि हर रात मोहम्मद साहब के सोने की जगह बदल देते थे और उनकी जगह अपने किसी बेटे को सुला देते थे. तीन साल की कड़ी परीक्षा के बाद मुसलमानों का बायकाट खत्म हुए। लेकिन मुसलमानों को ज़ुल्म और सितम से छुटकारा नहीं मिला और मक्का वासियों ने मुसलामानों पर तरह तरह के ज़ुल्म जारी रखे।
हज़रत अबू तालिब के देहात के बाद अत्याचार और बढ़ गए (इसी साल पैग़म्बर साहब की चहीती पत्नी हज़रत ख़दीजा का भी देहांत हो गया) और मोहम्मद साहब की जान के लिये खतरा पैदा हो गया।
मक्के की मुस्लिम दुश्मन शक्तियां मोहम्मद साहब को क़त्ल करने की साजिशें करने लगीं, लेकिन दस वर्ष के समय में पैग़म्बर साहब का फैलाया हुआ दीन मक्के की सरहदें पार कर के मदीने के पावन नगर में फ़ैल चुका था इसलिए मदीने के लोगो ने पैग़म्बर साहब को मदीने में बुलाया और उनको भरोसा दिया की वे मदीने में पूरी तरह सुरक्षित रहेंगे।
एक रात मक्के के लगभग सभी क़बीले के लोगो ने पैग़म्बर साहब को जान से मार देने की साज़िश रच ली लेकिन इस साज़िश की खबर मोहम्मद साहब को पहले से लग गई और वेह अपने चचेरे भाई हज़रत अली से सलाह मशविरा करने के बाद मदीने के लिए प्रस्थान करने को तैयार हो गए।
लेकिन दुश्मनों ने उनके घर को चारो तरफ से घेर रखा था. इस माहोल में हज़रत अली मोहम्मद साहब के बिस्तर पर उन्ही की चादर ओढ़ कर सो गए और मोहम्मद साहब अपने एक साथी हज़रत अबू बक्र के साथ रात के अँधेरे में ख़ामोशी से मक्का छोड़ कर मदीने के लिए चले गये. जब इस्लाम के दुश्मनों ने पैग़म्बर साहब के घर पर हमला किया और उनके बिस्तर पर हज़रत अली को सोता पाया तो खीज उठे।
उन लोगों ने पैग़म्बर साहब का पीछा करने की कोशिश की और उन तक लगभग पहुँच भी गए लेकिन जिस गार(गुफा) में हज़रत मोहम्मद छुपे थे उस गुफा के बाहर मकड़ी ने जाला बुन दिया और कबूतर ने घोंसला लगा दिया जिससे कि पीछा करने वाले दुश्मन गुमराह हो गए और पैग़म्बर साहब की जान बच गई. कुछ समय बाद हज़रत अली भी पैग़म्बर साहब से आ मिले।
इस तरह इस्लाम के लिए एक सुनहरे युग की शुरुआत हो गई. मदीने में ही पैग़म्बर साहब ने अपने साथियो के साथ मिल कर पहली मस्जिद बनाई. यह मस्जिद कच्ची मिट्टी से पत्थर जोड़ कर बनाई गई थी और इस पर सोने चांदी की मीनार और गुम्बद नहीं थे बल्की खजूर के पत्तों की छत पड़ी हुई थी।
मक्का छोड़ने के बाद भी इस्लाम के दुश्मनों ने मोहम्मद साहब के खिलाफ़ साजिशें जारी रखीं और उन पर लगातार हमले होते रहे. मोहम्मद साहब के पास कोई बड़ी सेना नहीं थी. मदीने में आने के बाद जो पहली जंग हुई उसमे पैग़म्बर साहब के पास केवल तीन सो तेरह आदमी थे, तीन घोड़े, सत्तर ऊँट, आठ तलवारें, और छेह ज़िर्हे (ढालें) थी. इस छोटी सी इस्लामी फ़ौज का नेतृत्व हज़रत अली के हाथों में था, जो हज़रत अली के लिए पहला तजुर्बा था. लेकिन जिन लोगों को अल्लाह ने प्रशिक्षण दे कर दुनिया में उतारा हो, उन्हें तजुर्बे की क्या ज़रुरत? इतनी छोटी सी तादाद में होने के बावजूद मुसलमानों ने एक भरपूर लश्कर से टक्कर ली और अल्लाह पर अपने अटूट विश्वास का सबूत देते हुए मक्के वालों को करारी मात दी. इस जंग में काफ़िरो को ज़बरदस्त नुकसान उठाना पड़ा. जंगे-बद्र के नाम से मशहूर इस जंग में पैग़म्बर साहब के चचाज़ाद भाई हज़रत अली और मोहम्मद साहब के चाचा हज़रत हम्ज़ा ने दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए और मक्के के फ़ौजी सरदार अबू सुफ्यान को काफ़ी ज़िल्लत(बदनामी) उठानी पड़ी. उसके साथ आने वाले बड़े बड़े काफिर सरदार और योद्धा मारे गए।
मोहम्मद साहब न तो किसी की सरकार छीनना चाहते थे न उन्हें देश और ज़मीन की ज़रुरत थी, वे तो सिर्फ इस धरती पर अल्लाह का सन्देश फैलाना चाहते थे. मगर उन पर लगातार हमले होते रहे जबकि खुद मोहम्मद साहब ने कभी किसी पर हमला नहीं किया और न ही इस्लामी सेना ने किसी देश पर चढाई की. इस का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि पैग़म्बर साहब और उनके साथियों पर कुल मिला कर छोटे बड़े लगभग छियासी युद्ध थोपे गये और यह सारी लड़ाईयाँ मदीने के आस पास लड़ी गई. केवल जंगे-मौता के मौके पर इस्लामी फ़ौज मदीने से आगे बढ़ी क्योंकि रोम के बादशाह ने मुसलमानों के दूत को धोके से मार दिया था।
मगर इस जंग में मुसलमानों की तादाद केवल तीन हज़ार थी और रोमन लश्कर(सेना) में एक लाख सैनिक् थे इसलिए इस जंग में मुसलमानों को कामयाबी नहीं मिली. इस जंग में पैग़म्बर साहब के चचेरे भाई हज़रत जाफर बिन अबू तालिब और कई वीर मुसलमान सरदार शहीद हुए. यहाँ पर यह कहना सही होगा कि मोहम्मद साहब ने न तो कभी किसी देश पर हमला किया, न ही इस्लामी शासन का विस्तार करने के लिए उन्होंने किसी मुल्क पर चढ़ाई की बल्कि उन को ही काफ़िरो(नास्तिको) ने हर तरह से परशान किया. जंगे-अहज़ाब के मौके पर तो काफ़िरो ने यहूदियों और दूसरी इस्लाम दुश्मन ताकतों को भी मिला कर मुसलमानों पर चढ़ाई की, लेकिन इस के बाद भी वे मुसलमानों को मात नहीं दे सके।