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Wednesday 16th of October 2024
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तव्वाबीन आन्दोलन-2

 

कर्बला में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद कई आंदोलन हुए जिनमें से एक का नाम क़यामे तव्वाबीन था। यह आंदोलन अचेतना की नींद सोये समाज के जागरुक हो जाने के बाद हुआ। क़यामे तव्वाबीन वह पहला आंदोलन था जो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद अस्तित्व में आया। इस आंदोलन की भूमिका कूफा नगर में सुलैमान बिन सोरद खज़ाई के नेतृत्व में तैयार हुई। इस आंदोलन में शामिल लोगों का नाम लिखने और सैनिक उपकरण की तैयारी वर्ष ६१ हिजरी कमरी में आरंभ हो गयी थी जो ६५ हिजरी क़मरी तक चली । इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के हत्यारों से प्रतिशोध लेने के लिए १६ हज़ार लोग इस आंदोलन में शामिल हो गये। 

 

सन् ६५ हिजरी क़मरी में पहली रबीउल अव्वल को नुख़ैला नामक स्थान पर तव्वाबीन आंदोलन के सैनिकों को एकत्रित होना था परंतु १६ हज़ार लोगों में से केवल चार हज़ार लोग ही एकत्रित हुए। इस बात से सुलैमान बिन सोरद खज़ाई बहुत क्षुब्ध हुए। इसके बाद तय यह हुआ कि क़यामे तव्वाबीन के सवार सैनिक कूफा में प्रविष्ठ हों और बाजारों में सैन्य अभ्यास करें और वे यालसरातिल हुसैन अर्थात हुसैन के खून का बदला लेने का नारा लगायें और लोगों। वे शाम अर्थात वर्तमान सीरिया की सरकार के विरुद्ध उठ खड़े होने के लिए प्रोत्साहित करें। उन्होंने कूफा नगर और उसके आस- पास के क्षेत्रों में भारी पैमाने पर प्रचार किया और क़ियामे तव्वाबीन के सैनिक नुखलिया क्षेत्र में तीन दिनों तक रुके रहे ताकि जिन लोगों के बारे में आशा थी कि वे इस आंदोलन से जुड़ जायेंगे वे आ जायें। अंततः एक हज़ार लोग और इस आंदोलन से जुड़ गये पांच हज़ार लोगों के साथ यह आंदोलन शाम की सरकार के विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार हो गया।

 

सोरद बिन ख़ज़ाई ने नुखलिया क्षेत्र से निकलने से पहले अपने सैनिकों को देखा और अपने आंदोलन का लक्ष्य एक बार फिर बयान किया । घोषणा की कि हे लोगों! जो भी ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने और परलोक का पुण्य प्राप्त करने के लिए यहां आया है वह हमसे है और हम उससे हैं और ईश्वर जीवन एवं मृत्यु में उस पर कृपा करे किन्तु जो दुनिया का इच्छुक है ईश्वर की सौगन्ध! हम माले गनीमत अर्थात युद्ध में प्राप्त होने वाले धन की तरफ नहीं जायेंगे हमारे साथ सोना- चांदी नहीं है। हम केवल तलवारों और भालों को अपने साथ ले जायेंगे। खाने- पीने की चीज़ें भी उसी सीमा तक रणक्षेत्र में ले जायेंगे जितनी आवश्यकता है। जिसका भी इरादा इससे हटकर हो वह हमारे साथ न आये

 

निष्ठा से भरी सुलैमान सोरद खजाई की बातों के बाद क़ियामे तव्वाबीन के सैनिक कर्बला की ओर रवाना हुए ताकि सबसे पहले इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथियों की पावन क़ब्रों का दर्शन कर सकें। जब यह लोग कर्बला इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथियों की पावन कब्रों पर पहुंचे तो बहुत रोये। वे लोग इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सहायता न करने में स्वयं को दोषी समझते थे और ईश्वर से क्षमा याचना करते थे। सुलैमान सोरद खज़ाई ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की पावन समाधि पर कहा हे ईश्वर! हुसैन शहीद और शहीद के बेटे हैं तू उन पर अपनी कृपा कर। हे ईश्वर तू गवाह रहना कि हम उनके धर्म पर और उनके मार्ग में हैं उनके हत्यारों के शत्रु और उनके दोस्तों के दोस्त हैं

इसके बाद क़यामे तव्वाबीन आंदोलन के सैनिक रास्ता तैय करके एनुल वरदह क्षेत्र में पहुंचे और वहां पर उन्होंने शाम की सेना पहुंचने से पहले तंबू लगा लिये। वहां पर पांच दिन तक रहे। तव्वाबीन आंदोलन का सैन्य अभ्यास प्रतिदिन जारी था। यहां तक कि एक दिन शाम के सैनिकों की छाया दूर से दिखाई पड़ी। उन्होंने भी एनुलवरदा क्षेत्र में आकर अपने तंबू लगा लिए। सुलैमान बिन सोरद खज़ाई ने अपने सैनिकों को एकत्रित किया और उनके मध्य बहुत ही जोशीला भाषण दिया। शाम के सैनिक भी लगभग ३० हज़ार थे और उनका नेतृत्व उबैदुल्लाह बिन ज़ियाद कर रहा था । वे सैनिक संसाधनों से लैस थे। युद्ध आरंभ होने का दिन आ गया। युद्ध आरंभ होने से पहले सुलैमान बिन सोरद खज़ाई ने अपने सैनिकों को अपने युद्ध की पद्धति से अवगत कराया और अपने बाद के उत्तराधिकारी से भी अवगत कर दिया। लड़ाई शुरू हो गयी तो शाम की सेना ने चारों ओर से तव्वाबीन पर हमला कर दिया। तव्वाबीन ने भी स्वयं से अभूतपूर्व साहस व बहादुरी का परिचय दिया। शाम और तव्वाबीन के सैनिक दिनों को लड़ते और रातों को विश्राम करते और घायल सैनिकों का उपचार करते थे। यद्यपि शत्रु की सेना तव्वाबीन से बहुत अधिक थी परंतु युद्ध के आरंभिक दो दिनों में ईमान, बहादुरी और साहस के कारण वे शाम की सेना पर हावी रहे परंतु तीसरे दिन घोर युद्ध हुआ और उसके बाद युद्ध का नक्शा पलटा और शाम की सेना की जीत आरंभ हो गयी। दुश्मन की जीत में तीर चलाने वालों की विशेष भूमिका थी। तव्वाबीन के बहुत से सैनिक शहीद और घायल हो गये और धीरे धीरे उनकी संख्या कम हो गयी। सुलैमान बिन सोरद खज़ाई अदम्य साहस और बहादुरी का परिचय देने के बाद अंततः शहीद हो गये और केवल रोफाआ बिन शद्दाद बाकी बच गये। उन्होंने रात को तव्वाबीन को कूफे की ओर पीछे हटने का आदेश दे दिया और बहुत कम बाक़ी बचे लोग उनके साथ कूफा लौट आये। इस प्रकार तव्वाबीन आंदोलन समाप्त हो गया।

 

आरंभ से ही तव्वाबीन का उद्देश्य पवित्र था। वे बनी उमय्या की सरकार को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहते थे क्योंकि वह अत्याचार की प्रतीक थी। तव्वाबीन का प्रयास था कि वे बनी उमय्या की सरकार का अंत करके सत्ता की बागडोर उसके हाथ में सौंप देगें जो उसके सही पात्र हैं यानी पैग़म्बरे इस्लाम के पविज परिजन। तव्वाबी आंदोलन की समीक्षा से जो बात सामने आती है वह यह है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सहायता न करने के कारण तव्वाबीन बहुत शर्मिन्दा थे और वे केवल अपने पापों के प्रायश्चित के बारे में सोचते थे। वे लोग केवल यही सोचते थे कि इस पाप के प्रायश्चित के लिए क्या करें। तव्वाबीन जब अपने शहर से निकले थे तो इस विचार के साथ निकले थे कि अब वे लौट कर नहीं आयेंगे और यह वह बातें थीं जिसे सुलैमान बिन सोरद खजाई ने उनसे कह दिया था । तव्वाबीन ने सुलैमान के उत्तर में कहा था कि हमने दुनिया और सत्ता प्राप्त करने के लिए आंदोलन नहीं किया है । हमारे आंदोलन का उद्देश्य अपने पापों से प्रायश्चित और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के हत्यारों से प्रतिशोध लेना है। तव्वाबीन का प्रतिरोध और उनकी शहादत का अपेक्षाकृत मुसलमानों के लिए अच्छा परिणाम हुआ। इस आंदोलन से बनी उमय्या की सरकार के विरुद्ध उठ खड़े होने की भावना और तेज़ी से फैल गयी और अमवी शासकों के मध्य भय व चिंता व्याप्त हो गयी। तव्वाबीन के आंदोलन ने कूफा में मोहम्मद सक़फी यानी हज़रत मुख्तार के आंदोलन की भूमि प्रशस्त कर दी।

 

वास्तव में तव्वाबीन आंदोलन धार्मिक स्वाभिमान का प्रतिफल था और अत्याचार के विरुद्ध उठ खड़े होने की भावना आशूरा के दिन इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महाबलिदान का परिणाम था। इस महाबलिदान से अनगिनत सीख मिलती है। बहुत से इतिहासकारों का मानना है कि अगर तव्वाबीन अपने आंदोलन का आरंभ कूफा से करते तो वे बहुत आसानी से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के उन हत्यारों की हत्या कर सकते थे जो कूफा में रहते और आवाजाही करते थे। इसी तरह इन इतिहासकारों का मानना है कि यदि तव्वाबीन अपने कबाएली हितों व बातों को दृष्टि में न रखते तो बेहतर परिणाम प्राप्त कर सकते थे। अगर सुलैमान बिन सोरद खज़ाई और उनके निकटवर्ती अधिक दूरदर्शिता और सुव्यवस्थित कार्यक्रम के साथ काम करते तो मुसलमान विशेषकर शीया उस समय के वातावरण में अधिक स्थिति में पहुंच जाते।

बहरहाल तव्वाबीन ने पूरी निष्ठा के साथ अपने प्राण न्यौछावर कर दिये और उनका उद्देश्य महान ईश्वर की कृपा व दया का पात्र बनना और अपने पापों का प्रायश्चित करना था। तव्वाबीन आंदोलन में कुछ एसे लोग भी शामिल थे जिनका विभिन्न युद्धों में हज़रत अली अलैहिस्सलाम की सहायता करने में उज्वल अतीत था। अगर वे सही ढंग से समय की पहचान करते और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से जुड़ने के बारे में उचित व तार्किक निर्णय लेते तो कर्बला में जो कुछ हुआ शायद वह किसी और ढंग से हुआ होता।

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