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Friday 27th of December 2024
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इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का अंतिम निर्णय

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का अंतिम निर्णय

जिस समय महापुरुषों की बात आती है क़लम कांपने लगता है क्योंकि क़लम कभी इन महापुरुषों के व्यक्तित्व के सभी आयामों का भलिभांति चित्रण नहीं कर सकता। पैग़म्बरे इस्लाम के नाती हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मानव इतिहास पर प्रभाव डालने वाले मुख्य लोगों में हैं जिनके व्यक्तित्व के प्रकट व निहित आयामों की परिधि असीमित है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का महाआंदोलन पूरे इतिहास में अत्याचार के विरुद्ध सबसे महत्वपूर्ण आंदोलन है। यह भव्य व एतिहासीक संघर्ष अत्याचारों व उमवी शासकों के काल में धर्म में बाहर से शामिल किए गए विषयों के विरुद्ध था इसलिए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने अतिमूल्यवान प्राण की आहूति देकर धर्म से बिदअत अर्थात बाहर से शामिल किए गए विषयों को निकाल कर सूर्य के समान चमकते इस्लाम के मुखड़े को लोगों के सामने पेश किया जो बिदअत के बादलों के पीछे छिप गया था। उस संवेदनशील परिस्थिति में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम उमवी शासक मोआविया द्वारा इस्लाम में शामिल की गई नई बातों के विरुद्ध डट गए। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने उस काल में इमामत अर्थात ईश्वर की ओर से इस्लामी जगत के मार्गदर्शन के दायित्व को संभाला जब इस्लामी जगत पर धार्मिक व राजनैतिक भ्रष्टता फैल गयी थी। उस काल में हर ओर षड्यंत्र व धार्मिक ढोंग फैला हुआ था और धर्म में अलग से विषय शामिल किए जा रहे थे। तत्कालीन उमवी शासक मोआविया हज़रत अली के साथियों को शहीद कर रहा था। उदाहरण स्वरूप हुज्र बिन उदय तथा हज़रत के कुछ और गिने चुने निष्ठावान साथियों को मोआविया ने बहाने से तत्कालीन इस्लामी जगत के केन्द्र शाम बुलाया। जब वे वहां पहुंचे तो उनसे हज़रत अली को अपशब्द कहने तथा उनसे विरक्तता की घोषणा करने के लिए कहा गया किन्तु हज़रत अली के इन निष्ठावान साथियों ने इसके जवाब में कहाः जो तुम हमसे चाहते हो उसके मुक़ाबले में गर्म तलवार खाना आसान है। यह जवाब सुनकर मोआविया के सिपाहियों ने हज़रत अली के इन निष्ठावान साथियों को शहीद कर दिया। इस दुखद घटना के पश्चात इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने मोआविया को कड़ा ख़त लिखा और हुज्र की शहादत तथा मोमिनों पर मोओविया के अत्याचार की कड़ी भर्त्सना की। उमवी शासकों की प्रशासनिक नीति ही भेदभाव व अत्याचार पर आधारित थी। जनता के साथ मोआविया के दरबारियों के व्यवहार की समीक्षा से यह तथ्य सामने आता है कि वे जनता को न्यूनतम महत्व भी नहीं देते थे बल्कि केवल अपने व अपने आस पास के लोगों के लिए सुख सुविधा मुहैया करने व धन संपत्ति बटोरने में लगे रहते थे। इसी वास्तविकता का इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने कुछ शेरों में इसप्रकार उल्लेख किया है। हम ग़लतियों, समस्याओं, और ईश्वरीय आदेशों की अवहेलना के काल में हैं। भलाई का दूर दूर तक नामो निशान नहीं, सदाचारी अपमानित व मूर्ख शासक बने हुए हैं और उन्हें सम्मान प्राप्त है। लोगों में कोई नहीं जो दूसरों को बुराई से दूर रहने का उपदेश दे। कुलीन, दासों के दास बन गए इसलिए कुलीन लोगों का अब कोई महत्व व स्थान नहीं रह गया है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को न तो सत्ता और न ही संसार का मोह था बल्कि वे सामाजिक न्याय व ईश्वरीय आदेशों के क्रियानवयन चाहते थे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का मानना थाः सच्चा मार्गदर्शक वह है जो ईश्वरीय किताब क़ुरआन के आदेशों का पालन करे और न्याय की स्थापना में आगे आगे रहे। सत्य का पालन करे और अपने अस्तित्व को ईश्वर के आदेश के आगे समर्पित कर दे किन्तु उस समय इस्लामी जगत के नेतृत्व की लगाम उन लोगों के हाथों में थी जो सत्ता को सांसारिक विलास की प्राप्ति तथा समाज में भ्रष्टाचार फैलाने के लिए चाहते थे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम इस बात से बहुत दुखी थे कि उमवी शासन ने लोगों की जान माल और इससे अधिक महत्वपूर्ण उनके विचारों को पंगु बना दिया था। वे ईश्वर से प्रार्थना में एक स्थान पर सत्ता के खेल से दूरी की घोषणा करते हुए अपने उद्देश्य का इन शब्दों में उल्लेख करते हैः हे प्रभु! तू जानता है कि जो हम कर रहे हैं वह लोगों पर वर्चस्व जमाने व संसार की मूल्यहीन व मिट जाने वाली वस्तुओं की प्राप्ति के लिए नहीं है बल्कि इसका उद्देश्य तेरे धर्म की निशानियों को स्पष्ट करना और तेरी भूमि पर सुधार करना है ताकि तेरे पीड़ित बंदों को सुख मिले और वे तेरे अनिवार्य व ग़ैर अनिवार्य आदेशों का पालन करें। हे लोगो! यदि तुमने हमारी सहायता नहीं की तो अत्याचारी और भी तुम पर हावी हो जाएंगे और तुम्हारे पैग़म्बरे के प्रकाश को बुझाने का प्रयास कर रहे हैं। पैग़म्बरे इस्लाम के नाती इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम विभिन्न शैलियों से उमवी शासन के क्रियाकलापों से जनता को जागरुक बना कर उनके असली चेहरे को सामने लाते थे। उस समय की अनियोजित स्थिति से लोगों को अवगत कराते हुए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम कहते थेः हे लोगो सचेत रहो! इन लोगों ने ईश्वरीय आदेशों की अवहेलना व शैतान के अनुसरण को अपने लिए अनिवार्य कर लिया है। भ्रष्टाचार का प्रचार कर रहे हैं और ईश्वरीय आदेशों को भुला दिया है और जो कुछ पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों से विशेष है उसे स्वंय से विशेष कर लिये हो। मोआविया के शासन के अंतिम समय में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ईश्वीय घर काबे के दर्शन के लिए गए। उस समय उन्होंने मेना नामक स्थान पर मुसलमानों को अपने तंबु के निकट इकट्ठा किया और उनके मौन धारण किए रहने व सत्य का साथ न देने पर कहाः कामों व ईश्वरीय आदेशों को व्यवहारिक बनाने के दायित्व ईश्वरीय धर्म के ज्ञानियों के हाथ में है जो ईश्वर की ओर से वैध व अवैध की गई चीज़ों को भलिभांति जानते हैं और उसके अमानतदार हैं। हे लोगो! सत्य से तुम्हारी दूरी और पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण के संबंध में मतभेद ने तुम्हारे इस स्थान को तुमसे ले लिया है। तुमने अत्याचारियों को अपने स्थान पर बिठा दिया और ईश्वरीय मामले उनके हवाले कर दिए ताकि वे अपने ग़लत मार्ग पर चलते रहें। हे लोगो! देख रहे हो कि ईश्वरीय आदेशों की अवहेलना हो रही है किन्तु तुम तनिक भी चिंतित नहीं हो। अंधों, व काम करने में अक्षम लोगों व गूंगों को नगरों में कोई पूछने वाला नहीं और तुम दया नहीं करते अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते और अत्याचारियों की साठगांठ पर मौन धारण कर लिये हो।इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम सत्य से दूरी को समाज के आध्यात्मिक व इस्लामी विकास में बाधा का मुख्य कारण मानते थे इसलिए वे लोगों को कल्याण के मार्ग पर बुलाने के लिए उठ खड़े हुए।उमवी शासक मोआविया की वर्ष 60 हिजरी क़मरी में मृत्यु के पश्चात उसका रक्तपाती व भ्रष्ट पुत्र यज़ीद ने मदीना के राज्यपाल को आदेश दिया कि इमाम हुसैन से उसके आज्ञापालन का वचन ले। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने पूरी वीरता व साहस के साथ मदीना के राज्यपाल से कहाः हम ईश्वरीय दूत के परिजन हैं। हमारा परिवार फ़रिश्तों व ईश्वरीय अनुकंपाओं के उतरने का स्थान है। ईश्वर ने हमारे द्वारा इस्लाम को पहचनवाया और हमारे द्वारा इसे आगे बढ़ाएगा। यज़ीद शराबी, और निर्दोष व्यक्तियों का हत्यारा है। ईश्वरीय आदेशों की पवित्रता का सम्मान नहीं करता और सबके सामने पाप करता है। यज़ीद ने मदीना के राज्यपाल से कहलवा भेजा था कि यदि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम उसके आज्ञापालन न करे तो उनकी हत्या कर उनके सिर को उसके पास भेज दे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने यज़ीद की बैअत अर्थात उसके आज्ञापालन का वचन देने से इंकार कर दिया और वे जानते थे कि उमवी शासन उन्हें जीवित नहीं रहने देंगे। इसलिए अपने परिजन व अनुयाइयों के साथ यात्रा पर निकल पड़े और मक्का गए। उनका उद्देश्य अपने कर्तव्य का निर्वाह था न कि मृत्


source : www.abna.ir
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