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पवित्र रमज़ान पर विशेष कार्यक्रम-१०

हे ईश्वर मैं तेरा आभार व्यक्त करता हूं कि तूने मुझे दसवां रोज़ा रखने का सामर्थ्य प्रदान किया। हे ईश्वर तुझसे मेरी प्रार्थना है कि मुझे एक क्षण के लिए भी मेरी हाल पर मत छोड़ना और मेरी दुआओं को स्वीकार कर। रमज़ान का महीना मुबारक महीना है। जो चीज़ सबसे पहले इस महीने में प्रभावित होती है वह मोमिन और रोज़ेदार का दिल है। जो दिल हर दूसरे समय से अधिक महान ईश्वर की याद में रहते हैं उससे प्रेम करते हैं वे महान ईश्वर की कृपा दृष्टि के अधिक पात्र बनते हैं। रमज़ान का महीना ईश्वर के भले बंदों
पवित्र रमज़ान पर विशेष कार्यक्रम-१०

हे ईश्वर मैं तेरा आभार व्यक्त करता हूं कि तूने मुझे दसवां रोज़ा रखने का सामर्थ्य प्रदान किया। हे ईश्वर तुझसे मेरी प्रार्थना है कि मुझे एक क्षण के लिए भी मेरी हाल पर मत छोड़ना और मेरी दुआओं को स्वीकार कर।
 
रमज़ान का महीना मुबारक महीना है। जो चीज़ सबसे पहले इस महीने में प्रभावित होती है वह मोमिन और रोज़ेदार का दिल है। जो दिल हर दूसरे समय से अधिक महान ईश्वर की याद में रहते हैं उससे प्रेम करते हैं वे महान ईश्वर की कृपा दृष्टि के अधिक पात्र बनते हैं। रमज़ान का महीना ईश्वर के भले बंदों के लिए उपासना, प्रार्थना और बरकतों का महीना है।
 
 
 
 
 
इंसान को हर समय महान ईश्वर से संबंध की आवश्यकता है। यह एक आधारभूत आवश्यकता है। महान ईश्वर की हर जगह उपस्थिति और उससे संबंध के आभास के बिना इंसान स्वयं को खोखला समझता है और कठिनाइयों के मुकाबले में उसकी शक्ति समाप्त हो जाती है। महान ईश्वर पर आस्था रखने वाला इंसान कठिन से कठिन परिस्थिति में भी यह जानता है कि एक सर्वसमर्थ एवं असीमित शक्ति मौजूद है जो उसकी आवाज़ सुनती है और याद करते ही वह उसकी बात सुनती है। महान ईश्वर ने स्वयं पवित्र कुरआन में अपने बंदों को स्वयं को बुलाने का आदेश दिया है और कहा है कि मुझे बुलाओ मैं तुम्हारी दुआओं का उत्तर दूंगा।
 
महान ईश्वर की याद और उससे संबंध इंसान के शरीर में नया प्राण फूंक देती है और ईश्वर की याद इंसान की उत्सुकता को बढ़ा देती है क्योंकि वह जानता है कि अंततः महान ईश्वर अच्छे मार्ग की ओर उसका मार्गदर्शन करेगा जिस तरह से दुआ इंसान के दिल को महान व कृपालु ईश्वर से जोड़ती है और उसकी सोच एवं दिमाग़ का मार्गदर्शन करती है।
 
 
 
 
 
महान ईश्वर से संबंध कोई छोटी व सामान्य बात नहीं है। इंसान की हर चीज़ इससे संबंधित है। यही वही चीज़ है जो इंसान को वह शक्ति प्रदान करती है जिससे इंसान महान ईश्वर के अतिरिक्त किसी से भी नहीं डरता है। यही संबंध है जो मोमिनों और महान ईश्वर से जुड़ने वालों के दिलों को एक दूसरे से जोड़ता है। यही संबंध है जो इस बात का कारण बनता है कि इंसान हर स्थिति में महान ईश्वर की प्रसन्नता को दृष्टि में रखता है और वह इस बात के लिए तैयार नहीं होता है कि अपने व्यक्तिगत हितों और अपनी ग़लत इच्छाओं के कारण महान ईश्वर के आदेशों की अनदेखी करे।
 
अलबत्ता यह संबंध महिला, पुरूष, जवान, बूढ़ा और धनी- निर्धन और समय व स्थान को नहीं पहचानता। यद्यपि बंदे होने की निशानी दुआ में शिष्टाचार का ध्यान रखना है और पुरुषों ने इस संबंध में हमें आवश्यक शिक्षायें दी हैं। इसी कारण महान ईश्वर और बंदे के मध्य संबंधों को मज़बूत बनाने के हर अवसर को महत्वपूर्ण समझना चाहिये और इस कार्य के लिए रमज़ान का पवित्र महीना बेहतरीन अवसर है।
 
दुआ अर्थात चाहना। वह चाहत जो आवश्यकता के कारण हो। जो इंसान महान ईश्वर के मुक़ाबले में अपनी निर्धनता की वास्तविकता को समझ जाये तो उसकी दुआ क़बूल होगी।
 
 
 
 
 
पवित्र कुरआन के सूरे फ़ुरक़ान की ७७वीं आयत में दुआ के महत्व और महान ईश्वर की शरण में जाने के महत्व को बयान किया गया है। महान ईश्वर कहता है” हे पैग़म्बरे आप लोगों से कह दें मेरे पालनहार को तुम्हारी कोई परवाह नहीं है अगर तुम उसे न बुलाओ।“ क्योंकि दुआ हर प्रकार की आवश्यकता से मुक्त महान ईश्वर की बारगाह में आवश्यकता व निर्धनता की सूचक है। महान व सर्वसमर्थ ईश्वर के समक्ष निर्धनता का इज़हार इंसान को परिपूर्णता के शिखर पर पहुंचा देती है और  उसे महान ईश्वर का सामिप्य प्रदान करती है। इंसान की आत्मा को परिपूर्णता के शिखर तक पहुंचाना दुआ के रहस्यों में से है। महान ईश्वर इस ब्रह्मांड का वास्तविक मालिक और वह संसार को आजीविका देने वाला है। महान ईश्वर ने इंसानों को जो नेअमतें दे रखी हैं उनमें से अधिकांश को महान ईश्वर ने बिना मांगे दिया है परंतु कुछ नेअमतें ऐसी हैं जो इंसानों की योग्यता व क्षमता देखकर उन्हें दी जाती हैं। यह क्षमता और योग्यता भी दुआ करने से प्राप्त होती है।
 
हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम अपने एक अनुयाई से फरमाते हैं” ईश्वर के निकट कुछ दर्जे हैं जो दुआ के अतिरिक्त किसी और चीज़ से प्राप्त नहीं होते हैं। अगर बंदा दुआ न करे तो उसे कुछ भी नहीं दिया जायेगा तो मांगो ताकि तुम्हें दिया जाये। कोई द्वार नहीं है जिसे खटखटाया जाये किन्तु इस आशा के साथ कि मांगने वाले को उससे दिया जायेगा।“
 
 
 
 
 
दुआ करने और दुआ पढ़ने में अंतर है। कभी ऐसा भी होता है कि इंसान अपनी आदत के अनुसार दुआ पढ़ता है और शब्दों की पुनरावृत्ति करता है। ऐसी स्थिति में दुआ करने वाले इंसान में कोई परिवर्तन उत्पन्न नहीं होता है परंतु कभी इंसान परेशान होता है और उसके दिल के अतिरिक्त शरीर के दूसरे अंग भी महान ईश्वर से  दुआ करते हैं। इंसान,  महान ईश्वर को उसके विशेष नामों से याद करते हैं उसे सौगन्ध देते हैं और बार बार मांगते हैं वे मांगना नहीं छोड़ते हैं और यह वह चीज़ है जिसे महान ईश्वर पसंद करता और चाहता है।
 
हदीसे क़ुद्सी में आया है कि महान ईश्वर ने हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम से फरमाया” हे ईसा! मुझे उस तरह से बुलाओ जिस तरह एक डूबता हुआ इंसान बुलाता है और उसे कोई बचाने वाला नहीं होता है मेरे दरबार में आओ! हे ईसा! अपने दिल को मेरे सामने निष्ठापूर्ण बना लो और अकेले में मुझे बहुत अधिक याद करो और जान लो कि मैं तुम्हारी विन्रमता से प्रसन्न हूं। तो दुआ में अपने दिल व जान को हाज़िर बना लो और रो व गिड़गिड़ा कर मुझे बुलाओ।“
 
दुआओं के क़बूल होने का एक रास्ता इंसान का तक़वा और सदाचारिता है। क्योंकि पवित्र कुरआन में स्वयं महान ईश्वर ने कहा है कि वह केवल भय रखने वालों और सदाचारी लोगों की दुआओं को स्वीकार करता है।“
 
एक बार की बात है कि किसी महान हस्ती से कहा गया कि मैं ईश्वर से दुआ करता हूं परंतु दुआ क़बूल नहीं होती है। उस महान हस्ती ने कहा ईश्वर को पहचानते हो किन्तु उसके आदेशों का पालन नहीं करते हो। क़ुरआन पढ़ते हो परंतु उस पर अमल नहीं करते हो। ईश्वर की नेअमतें खाते हो परंतु उसका आभार व्यक्त नहीं करते हो। जानते हो कि स्वर्ग को उसके आदेशों का पालन करने वालों के लिए  सजाया व तय्यार किया गया है पंरतु उसके लिए प्रयास नहीं करते हो। नरक को जानते हो किन्तु उससे भागते नहीं हो। जानते हो कि मौत है किन्तु उसके लिए तैयार नहीं होते हो। अपने मांता- पिता को दफ्न करते हो किन्तु उससे पाठ नहीं लेते हो! जानते हो कि शैतान दुश्मन है परंतु न केवल उससे दुश्मनी नहीं करते हो बल्कि उसके साथ संबंध भी स्थापित करते हो। अपने दोष को नहीं छोड़ते हो किन्तु दूसरे के दोषों को देखते हो। जो व्यक्ति इस प्रकार का होगा किस प्रकार उसकी दुआ क़बूल होगी।“
 
 
 
 
 
रमज़ान के पवित्र महीने का एक लाभ यह है कि बहुत से इंसान पवित्र स्थलों पर अधिक ध्यान देते हैं। बहुत से लोग रमज़ान का पवित्र महीना आने से कई दिन पहले ही मस्जिदों और दूसरे पवित्र धार्मिक स्थलों की सफाई- सुथराई करते हैं। साथ ही बहुत से लोग रमज़ान का पवित्र महीना आरंभ होने पर नमाज़ पढ़ने, दुआ करने और पवित्र कुरआन की तिलावत करने के लिए पवित्र स्थलों पर जाते हैं और अपने अध्यात्म में वृद्धि करते हैं।
 
इस मध्य हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की ज़ियारत पढ़ने की सिफारिश विशेषकर चांद रात पंद्रहवी और आख़िरी रात क़द्र की विशेष रातों को की गयी है। जैसाकि हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम से रवायत है कि जब क़द्र की रात हो जाती है तो सातवें आसमान पर एक फरिश्ता आवाज़ देता है कि जो भी हुसैन की क़ब्र की ज़ियारत के लिए आया है ईश्वर ने उसे क्षमा कर दिया है।
 
 
 
एक अन्य रवायत में है कि जो भी क़द्र की रात को इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की क़ब्र के निकट हो और वह दो रकअत नमाज़ पढ़े या जो कुछ उससे हो सकता है उसे अंजाम दे और वह ईश्वर से स्वर्ग मांगे और नरक की आग से शरण मांगे तो ईश्वर उसे स्वर्ग देगा और उसे नरक की आग से बचाए गा।
 
महान विद्वानों एवं धर्मगुरूओं की जीवन शैली इस महीने में इस प्रकार रही है। वे पवित्र स्थलों में उपस्थित होकर पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों से अपनी श्रृद्धा व्यक्त करते हैं।
 
एक महान विद्वान व धर्मगुरू दिवंगत अल्लामा तबातबाई जब ईरान के पवित्र नगर क़ुम में रहते थे तो उस समय वे शाम को रमज़ान महीने में हज़रत फातेमा मासूमा सलामुल्लाह अलैहा के पवित्र रौज़े में चले जाते थे और उनकी पावन ज़रीह अर्थात उनकी समाधि पर बनी विशेष प्रकार की जाली को चूमने के बाद रोज़ा खोलते थे।
 
 
 
 
 
ईरान के महान बुद्धिजीवी शहीद मुर्तज़ा मुतह्हरी जब भी दिवंगत अल्लामा तबातबाई का नाम लेते थे तो कहते थे मेरी जान उन पर क़ुर्बान। किसी विद्वान ने शहीद मुर्तज़ा मुतह्हरी से पूछा आप इतना अधिक अल्लामा तबातबाई का सम्मान करते हैं इसका कारण क्या है? उसके जवाब में शहीद मुर्तज़ा मुतह्हरी ने कहा मैंने बहुत अधिक दर्शनशास्त्री और परिज्ञानी देखे हैं मैं अल्लामा तबातबाई का इस कारण सम्मान नहीं करता हूं कि वे दर्शनशास्त्री थे बल्कि इस कारण सम्मान करता हूं क्योंकि वे पैग़म्बरे इसलाम के परिजनों के प्रेमी थे। क्योंकि अल्लामा तबातबाई रमज़ान के महीने में अपना रोज़ा हज़रत मासूफा की ज़रीह को चूम कर खोलते थे। उस बुढ़ापे की उम्र में भी वह हरम पैदल जाते थे। पवित्र ज़रीह चूमते थे उसके बाद वह घर जाते और खाना खाते थे।
 
 
 
इसी प्रकार उनके बारे में लिखा गया है कि अल्लामा तबातबाई परिज्ञान एवं अध्यात्म के उच्च शिखर पर थे। वह उपासक, दुआ व प्रार्थना करने वाले थे। जब वह रास्ता चलते थे तो महान ईश्वर का गुणगान करते थे।
 
ज्ञान की सभाओं में भाग लेते थे जब सभा में मौन होता था तो वह महान ईश्वर का गुणगान करते थे। ग़ैर अनिवार्य अर्थात मुसतहब नमाज़ें पढ़ने के प्रति वे कटिबद्ध थे। कभी यह भी देखा जाता था कि वह रास्ते में ग़ैर अनिवार्य नमाज़ पढ़ते थे। रमज़ान महीने की रातों को सुबह तक जागते थे कुछ समय तक किताबों का अध्ययन करते थे और उसके बाद शेष समय में दुआ करते थे नमाज़ पढ़ते थे और पवित्र क़ुरआन की तिलावत करते थे। MM


source : irib.ir
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