उस ईश्वर का बहुत अधिक आभार है जिसने हमें यह शक्ति प्रदान की कि हम पवित्र रमज़ान के ग्यारहैं दिन की विभूति समझ सकें। रमज़ान के इस पवित्र दिन हम ईश्वर से यह दुआ करते हैं कि वह हमें स्वास्थ्य की अनुकंपा से मालामाल कर दे ताकि पूरी शालीनता के साथ उसकी उपसना कर सकें।
पवित्र रमज़ान के आते ही पूरी दुनिया के मुसलमान रोज़ा रखते हैं और इस पवित्र महीने में ईश्वर की पहले से अधिक उपासना करते हैं और अपनी आत्मा को पवित्र करते हैं। बहुत से लोगों के मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि क्या पूरे दिन बिना खाये पिये रहने से स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता?
स्वास्थ्य एक अनुकंपा है और इसका महत्व किसी से छिपा नहीं है। पवित्र धर्म इस्लाम ने जिसने मनुष्य की समस्त व्यक्तिगत और सामाजिक आवश्यकता को उत्तर दिया है, इस विषय पर विशेष रूप से ध्यान दिया है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम नहजुल बलाग़ा में तीन वस्तुओं को मनुष्य के लिए बड़ी अनुकंपाओं में मानते हैं, उनमें से एक स्वास्थ्य की अनुकंपा है। रोज़ा मनुष्यों के आत्म निर्माण के आदेशों में से एक है जो मनुष्य के स्वास्थ्य और उसकी शारीरिक बीमारियों के उपचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विभिन्न हदीसों और कथनों में रोज़े के शारीरिक लाभों के बारे में बताया गया है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कहना है कि रोज़ा रखो ताकि तुम्हारे शरीर स्वस्थ्य रहें।
अमाशय और पाचन तंत्र, मनुष्य के शरीर के सबसे सक्रिय अंग हैं। सामान्य रूप से मनुष्य जो तीन समय आहार लेता है, उसको पचाने में पाचन तंत्र दिन भर व्यस्त रहता है। रोज़े के कारण इन अंगों को विश्राम मिलता है, उसको कमज़ोर होने से बचाता है और एक नई शक्ति प्रदान करता है।
इसी प्रकार पूरे वर्ष किसी भी कारण मनुष्य के शरीर में एकत्रित होने वाले हानिकारक वसा को जलाने के लिए शरीर को पूरे वर्ष में एक महीने का अवसर मिलता है और इस प्रकार शरीर हल्का होता है। इसी प्रकार रोज़ा रखना और खाने पीने से रुकना, उपचार की बेहतरीन शैली है।
पवित्र रमज़ान दुआओं का महीना है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) इस महीने में दुआ करने के बारे में कहते हैं कि हे लोगो, रमज़ान में नमाज़ के समय अपने हाथों को अपनी दुआओं के लिए ईश्वर की ओर बढ़ाओ क्योंकि इस प्रकार के क्षण, तुम्हारे जीवन के सबसे बेहतरीन क्षण हैं और उस समय ईश्वर बहुत ही प्रेम भरी नज़रों से अपने बंदों को देखता है। अलबत्ता दुआ के लिए कुछ शर्तें और क़ानून हैं। एक ओर ईश्वर की शक्ति और उसके वैभव के दृष्टिगत और दूसरी ओर मनुष्य की निर्धनता और आवश्यकता, मनुष्य को इस वास्तविकता की ओर ले जाती है कि यदि वह ईश्वर के दरबार में उपस्थित होना चाहता है और उसकी अपार अनुकंपाओं और विभूतियों से स्वयं को मालामाल करना चाहता है तो उसे दुआ के संस्कारों का ध्यान रखना चाहिए। जिस प्रकार यदि कोई व्यक्ति किसी के पास कोई मांग लेकर जाता है तो वह आरंभ में मांग पेश करने से पहले भूमिका बयान करता है, संस्कार को दृष्टिगत रखता है और विशेष शैली द्वारा अपनी मांग को पेश करता है। जिस समय हम ईश्वर के दरबार में उपस्थित हों तो हमें उन सिद्धांतों और क़ानूनों पर अमल करना चाहिए जिनका वर्णन पवित्र क़ुरआन और हदीसों में बयान किया गया है। इन संस्कारों में सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु यह है कि जो व्यक्ति दुआ के लिए हाथ उठा रहा है तो उसे हर चीज़ से पहले ईश्वर पर पूरी तरह भरोसा होना चाहिए और उस पर पूरी निष्ठा होनी चाहिए। दुआ करने वाले को अपने पूरे अस्तित्व से और दिल व जान की गहराईयों से दुआ करना चाहिए और उसे यह पता होना चाहिए कि ईश्वर हर चीज़ को जानता और सुनता है। जो कुछ वह कर रहा है या बयान कर रहा है, हर चीज़ को ख़ुदा देख रहा है और उसकी हर मांग व दुआ को ईश्वर पूरी करने की पूर्ण क्षमता रखता है।
ईश्वर के दरबार में सिर झुकाना और उसके दरबार में उपस्थित होने के लिए हृदय की पवित्रता, सद्भावना और दिल का वर्जित चीज़ों से ख़ाली होना आवश्यक है। इतिहास में मिलता है कि बनी इस्राईल का एक व्यक्ति पुत्र की प्राप्ति के लिए तीन साल से ईश्वर से दुआ कर रहा था किन्तु उसकी दुआ पूरी होने का नाम ही नहीं ले रही थी। उसने ईश्वर से शिकायत भरे लहजे में कहा कि हे मेरे पालनहार क्या मैं तुझसे इतना दूर हो गया कि तू मेरी दुआ सुन नहीं रहा है या यह कि मैं इतना निकट हूं लेकिन मेरी दुआ स्वीकार नहीं कर रहा है। उसने रात में सपने में सुना कि तूने तीन साल तक बड़बड़ाते हुए, दुषित मन से और अपवित्र दिल से मुझे बुलाया, यदि तू चाहता है कि मैं तेरी दुआ स्वीकार करूं तो अपनी ज़बान की रक्षा कर और अपने दिल को अपने ईश्वर के लिए पवित्र कर और सद्भावना का प्रदर्शन करो। जैसे ही उसकी आंख खुली, उसने अपना इरादा मज़बूत किया और जिसका उसे आदेश मिला था उस पर अमल आरंभ कर दिया और एक वर्ष बाद उसकी दुआओं का परिणाम सामने आ गया।
दूसरों के लिए दुआ करना, बढप्पन और मानवता की निशानी है। जो किसी की समस्या के समाधान के लिए दुआ करता है और उसके लिए भलाई की मांग करता और स्वयं के लिए दुआ करने से पहले दूसरों के लिए दुआ करता है तो वास्तव में उसने अपनी आत्म मुग्धता को कुचल दिया है और ईश्वर की प्रसन्नता से अधिक निकट होता है। इस प्रकार से उसकी दुआएं शीघ्र स्वीकार होती हैं। पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कहना है कि जिसने भी अपनी दुआ से पहले चालीस मोमिनों के लिए दुआ की, उसकी की और उन चालीस लोगों की दुआएं पूरी होंगी। हदीस में आया है कि इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि जो भी किसी मोमिन की अनुपस्थिति में उसके लिए दुआ करे तो आकाश से उसके लिए आवाज़ आती है कि हे अमुक तुने जो अपने भाई के लिए दुआ की वह उसे दी जाएगी बल्कि उसको एक लाख गुना तुझे उससे अधिक दिया जाएगा।
दुआ के स्वीकार होने का एक अन्य कारक मिलकर दुआ करना है और इसके लिए इस्लाम धर्म ने विशेष रूप से ध्यान दिया है। इसका कारण यह है कि जितने अधिक लोग होंगे, हर एक अपनी भलाई और ईश्वर से निकटता के कारण ईश्वर की दृष्टि को अधिक अपनी ओर आकृष्ट करेगा और इससे दुआ शीघ्र स्वीकार होगी। हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम का कहना है कि जब भी हमारे पिता इमाम मुहम्मद बाक़िर को किसी विषय से दुख पहुंचता था, महिलाओं और बच्चों को एकत्रित करते थे, दुआ करते थे और वे लोग आमीन कहते थे, क्योंकि ईश्वर ने स्वयं वचन दिया है कि कभी भी चालीस आदमी किसी दुआ के लिए एकत्रित नहीं हुए किन्तु ईश्वर ने उनकी दुआ स्वीकार की। यदि चालीस लोग न हों तो चार ही लोग मिलकर दस बार ईश्वर को पुकारें, ईश्वर उनकी दुआ स्वीकार करेगा। यदि चार लोग भी न हों तो एक ही व्यक्ति चालीस बार दुआ करे,ईश्वर उसकी दुआ अवश्य स्वीकार करेगा।
पवित्र रमज़ान महीने की एक अन्य सुन्दर परंपरा, अनाथों का सम्मान और उनका पालन पोषण है जिस पर इस्लामी शिक्षाओं में विशेष रूप से बल दिया गया है। पैग़म्बरे इस्लाम का कहना है कि ईश्वर ने अनाथों पर भलाई करने के लिए प्रेरित किया है क्योंकि वे अपने माता पिता से छूट गये हैं, जिसने भी उनकी रक्षा की, ईश्वर उसकी रक्षा करेगा। इस महीने में मुसलमान अनाथों पर विशेष रूप से ध्यान देते हैं और रमज़ान के अवसर से लाभ उठाते हुए अनाथों का ध्यान रखने में एक दूसरे से आगे रहने का प्रयास करते हैं। ईश्वर ने भी मोमिनों को वचन दिया है कि वह उनकी एक भलाई का दस गुना पारितोषिक देगा।
इतिहास में मिलता है कि एक परिज्ञानी थे जिनका नाम अब्दुल जब्बार मुस्तौफ़ी था। वह हज पर जाना चाहते थे इसके लिए उन्होंने एक हज़ार दीनार एकत्रित कर रखे थे। कूफ़े की एक गली से गुज़रते हुए वह एक खंडहर में पहुंचे। खंडहर में एक महिला कुछ ढूंढ रही थी, उसकी नज़र एक मुर्दा मुर्ग़ी पर पड़ी, उसने तुरंत उसे उठा लिया और अपनी अबा के नीचे छिपा लिया और घर की ओर चल पड़ी। अब्दुल जब्बार ने स्वयं से कहा चलो चलकर देखते हैं मामला क्या है?
वह उस महिला के पीछे हो लिए। महिला घर में पहुंची और उसके बच्चे बहुत ख़ुशी से उसकी ओर आए। मां हमारे लिए क्या लाई हो, भूख से दम निकला जा रहा है। महिला ने कहा प्यारे बच्चों मैं तुम्हारे लिए मुर्ग़ लाई हूं और अभी तुम्हारे लिए भूनती हूं। अब्दुल जब्बार ने जब यह सुना वह ज़ोर से रोने लगे और उन्होंने उक्त महिला के पड़ोसियों से उसके बारे में पूछा, लोगों ने कहा कि वह अब्दुल्लाह बिन ज़ैद की पत्नी है, हज्जाजे सक़फ़ी ने उसके पति की हत्या कर दी और उसके कई अनाथ बच्चे हैं।
अब्दुल जब्बार स्वयं सोचने लगे और बाद में उन्होंने घर का दरवाज़ा खटखटाया, उन्होंने वह एक हज़ार दीनार उस महिला को दे दिए और लौट आए। उस वर्ष वे कूफ़े में घूम घूम कर भिश्ती का काम करते रहे और हज पर नहीं गये। जब हज का मौसम समाप्त हुआ और मक्के से कारवां लौट रहे थे, लोग उनके स्वागत के लिए दौड़े। अब्दुल जब्बार भी उनकी ओर दौड़े, उन्होंने देखा कि एक अनजान उनकी ओर आ रहा हैं। उस अनजान ने उन्हें सलाम किया और कहा कि हे अब्दुल जब्बार जब से तुम ने वह हज़ार दीनार मुझे दिया है, मैं तब से तुम्हें तलाश कर रहा हूं, यह अपने पैसे लो, उसने एक थैली अब्दुल जब्बार को दी और नज़रों से ओझल हो गया। उन्होंने थैली में देखा तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ, थैली में दस हज़ार दीनार थे। तभी आकाश से आवाज़ आई, तुमने मेरे मार्ग में एक हज़ार दीनार ख़र्च किए और मैंने तुम्हें दस गुना अधिक दिया और तुम्हारी ओर से एक फ़रिश्ते को यह ज़िम्मेदारी सौंप दी है कि वह जीवन भर तुम्हारे लिए हज करे, जान लो कि मैं किसी भला करने वाले का पारितोषिक बर्बाद नहीं करता। (AK)
source : irib.ir