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Friday 29th of November 2024
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ईदे फ़ित्र का विशेष कार्यक्रम

पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम अपनी एक दुआ में कहते हैं। प्रभुवर! मुहम्मद व उनके परिजनों पर सलाम भेज, इस महीने में हमारी कठिनाइयों की क्षतिपूर्ति कर, फ़ित्र के दिन को हमारे लिए पवित्र ईद बना दे और उसे हम पर गुज़रने वाले उन सबसे अच्छे दिनों में क़रार दे जिसमें तू हमें क्षमा का पात्र बना और हमारे पापों को धो दे। प्रभुवर! ईदे फ़ित्र के इस दिन जिसे तूने ईमान वालों के लिए ईद और ख़ुशी और मुसलमानों के लिए एकत्र होने का दिन बनाया है, हम हर उस पाप और हर उस बुरे कर्म से तौबा करते
ईदे फ़ित्र का विशेष कार्यक्रम

पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम अपनी एक दुआ में कहते हैं। प्रभुवर! मुहम्मद व उनके परिजनों पर सलाम भेज, इस महीने में हमारी कठिनाइयों की क्षतिपूर्ति कर, फ़ित्र के दिन को हमारे लिए पवित्र ईद बना दे और उसे हम पर गुज़रने वाले उन सबसे अच्छे दिनों में क़रार दे जिसमें तू हमें क्षमा का पात्र बना और हमारे पापों को धो दे। प्रभुवर! ईदे फ़ित्र के इस दिन जिसे तूने ईमान वालों के लिए ईद और ख़ुशी और मुसलमानों के लिए एकत्र होने का दिन बनाया है, हम हर उस पाप और हर उस बुरे कर्म से तौबा करते हैं जो हमने किया है और अपनी अंतरात्मा में आने वाली हर बुरी नियत पर क्षमा चाहते हैं। प्रभुवर! इस ईद को सभी ईमान वालों के लिए मुबारक बना और इस दिन हमें इस बात का सामर्थ्य प्रदान कर की कि तेरी ओर लौट आएं और पापों से तौबा कर लें।
 
 
 
ईदे फ़ित्र, मनुष्य के लिए नए जन्म के समान है और उसके मन व अंतरात्मा और इसी प्रकार सामाजिक जीवन में आने वाले सकारात्मक परिवर्तनों की शुभ सूचना देती है। रमज़ान के पवित्र महीने में ईश्वर की उपासना और रोज़े की कठिनाइयां सहन करके मनुष्य अपने नए विचारों के साथ एक नया जन्म लेता है।
 
 
 
ईदे फ़ित्र मुसलमानों की सबसे बड़ी ईदों में से एक है जिसके बारे में अनेक हदीसें मौजूद हैं। रोज़ेदार मुसलमान, जिन्होंने एक महीने तक रोज़े रखे और खाने-पीने सहित अनेक वैध कर्मों को ईश्वर की मर्ज़ी पर छोड़े रखा, अब एक महीना बीतने के बाद शव्वाल महीने के पहले दिन ईश्वर से अपने प्रतिफल की प्रार्थना कर रहे हैं। शव्वाल महीने के पहले दिन को इस लिए ईदे फ़ित्र कहा जाता है क्योंकि इस दिन खाने-पीने पर लगी रोक समाप्त हो जाती है और ईमान वाले लोग दिन में भी खा-पी सकते हैं। फ़ित्र और फ़ुतूर का अर्थ होता है भूखे रहने के बाद खाना-पीना। इसी प्रकार दिन भर रोज़ा रहने के बाद मग़रिब की अज़ान के बाद जब मनुष्य कुछ खाता है तो उसे इफ़्तार कहा जाता है।
 
ईदे फ़ित्र की सुबह लोग ईश्वर का गुणगान करते हुए ईदगाहों और मस्जिदों में पहुंचते हैं। सभी छोटे-बड़े एक दूसरे के साथ पंक्तियों में खड़े हो जाते हैं। लोगों को ऐसा प्रतीत होता है कि उनके पैर ज़मीन पर पड़ ही नहीं रहे हैं और वे निष्ठा, ईश्वरीय भय और ईश्वर के समक्ष नतमस्तकता के वातावरण वाली हवाओं में सैर कर रहे हैं। यह आभास एक महीने तक ईश्वर के लिए पूरी निष्ठा के साथ रोज़ा रखने वालों को प्राप्त होता है। लोग यह सोच कर प्रसन्न हो रहे होते हैं कि उनके सारे पाप क्षमा कर दिए गए और अब वे पूरे साल इस बात की अनुमति नहीं देंगे कि छोटे-बड़े पाप उनके जीवन को कटु बना दें।
 
 
 
 
 
जब हमारा जीवन, दिनचर्या और आदत में बदल जाता है तो स्वाभाविक सी बात है कि वह साधारण जीवन से आगे नहीं बढ़ता और एक समय सीमा में निर्धारित हो कर रुक जाता है किंतु रमज़ान का पवित्र महीना और ईदे फ़ित्र अपनी विशेषताओं के चलते साधारण व्यवहार और रीति-रिवाजों से गुज़र कर समय की सीमा से बाहर निकल जाते हैं। वस्तुतः इस एक महीने की उपासना का लक्ष्य, ईद के बाद सामने आता है। इस्लाम चाहता है कि हमें ऐसे मनुष्यों में परिवर्तित कर दे जो अपने शारीरिक आयामों से इतर व्यवहार करते हैं। ऐसे लोग, ईश्वर की उपासना को दूसरों की सेवा और दरिद्रों व वंचितों की सहायता में निहित समझते हैं।
 
दूसरे शब्दों में ईदे फ़ित्र के बाद मनुष्य का व्यवहार, एक बेहतर समाज के गठन के लिए ईश्वर को पसंद आने वाले कर्मों और प्रयासों पर आधारित होता है। इस मनुष्य के अस्तित्व के आयाम, उसके पिछले आयामों से बहुत भिन्न होते हैं। वह अधिक व्यापक समझ-बूझ के साथ जीवन बिताता है। रोज़ा उसे कठिनाइयां सहन करने वालों और दरिद्रों की पीड़ा से अवगत कराता है। इस प्रकार का मनुष्य अपने अस्तित्व में बहुत गहरे परिवर्तन का आभास करता है और वह परिपूर्णता की चोटियों तक उड़ कर पहुंचने की मनोकामना रखता है। ईद की सुबह जब वह फ़ितरा देता है, अपने पालनहार को याद करता है और नमाज़ पढ़ता है तो अपने आपसे प्रतिज्ञा करता है कि वह अपने व्यक्तिगत मामलों से ऊपर उठ कर अपनी आत्मा को स्वार्थ के जाल से मुक्त कराएगा।
 
 
 
 
 
ईश्वर, असत्य की ओर उन्मुख होने वाले बनी इस्राईल के एक ज्ञान व तत्वदर्शी बलअम बाऊरा की घटना में इस बिंदु का उल्लेख करता है कि हम चाहते थे कि वह आकाशों की ओर उड़ान भरे किंतु उसने धरती को प्राथमिकता दी और स्वयं को हमेशा के लिए मुसीबत में डाल दिया। सूरए आराफ़ की 176वीं आयत में कहा गया है। और अगर हम चाहते थे तो उन निशानियों के माध्यम से उसका मूल्य ऊंचा उठा देते किंतु वह दुनिया की ओर झुक गया और उसने अपनी आंतरिक इच्छाओं का अनुसरण किया। ईश्वर ने आरंभ से ही सभी मनुष्यों को प्रगति की अनुकंपा प्रदान की है किंतु यह मनुष्य है जो अपने कर्मों और व्यवहार के कारण उड़ान की क्षमता खो बैठता है। पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के विचार में पाप, उन भारी बोझ के समान हैं जिनके रहते हुए उड़ान का कोई अर्थ ही नहीं है। वे कहते हैं। ईश्वर ने बंदों को नेमतें इस लिए नहीं दी हैं कि उससे छीन ले सिवाय इसके कि वह स्वयं कोई ऐसा पाप करे जिसके कारण वह नेमतें उनसे छिन जाएं। यही कारण है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम हर उस दिन को ईद बताते हैं जिसमें कोई पाप न किया जाए। ईदे फ़ित्र को भी इसी कारण महत्व प्राप्त होता है वह ईश्वर की निशानियों में शामिल हो जाती है।
 
 
 
 
 
ईश्वर कहता है जो कोई ईश्वरीय निशानियों का सम्मान करेगा तो यह दिल से ईश्वरीय भय की निशानी है। ईश्वरीय निशानियों का सम्मान ईदे फ़ित्र की विशेषताओं में से है। इस दिन ईश्वर का गुणगान उन कर्मों में से है जिनका विशेष प्रतिबिंबन होता है। एक मुसलमान का दायित्व यह है कि वह विभिन्न शैलियों से एकेश्वरवाद की जीवनदायक आवाज़ संसार के कानों तक पहुंचाए। इन्हीं शैलियों में से एक धार्मिक नारे हैं। पैग़म्बरे इस्लाम सल्ल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का कहते है कि अपनी ईदों को अल्लाहो अकबर के नारे से सुशोभित करो। एक अन्य हदीस में वे कहते हैं। ईदे फ़ित्र और ईदे अज़हा को ला इलाहा इल्लल्लाह, अल्लाहो अकबर, अलहमदो लिल्लाह और सुबहानल्लाह के नारों से सुशोभित करो।
 
पैग़म्बरे इस्लाम स्वयं भी ऐसा ही किया करते थे। वे ईदे फ़ित्र के दिन अपने घर से बाहर आते और नमाज़ के स्थान तक पहुंचने तक ऊंची आवाज़ से ला इलाहा इल्लल्लाह और अल्लाहो अकबर कहते थे। वे ईद की नमाज़ के ख़ुत्बों में और ख़ुत्बों के बाद भी ऊंची आवाज़ में इन वाक्यों को दोहराया करते थे। पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ईदे फ़ित्र के दिन अधिक तकबीरें या ला इलाहा इल्लल्लाह कहने के कारण का उल्लेख करते हुए कहते हैं। तकबीर, ईश्वर का महिमागान और एक प्रकार से उसके मार्गदर्शन एवं अनुकंपाओं पर कृतज्ञता है।
 
 
 
 
 
ईरान के प्रख्यात धार्मिक विद्वान आयतुल्लाह जवादी आमोली ईदे फ़ित्र के दिन मुसलमानों के बड़ी संख्या में नमाज़ के लिए जाने को प्रलय के एक दृश्य के समान बताते हैं। वे कहते हैं कि जिन लोगों ने रमज़ान के पवित्र महीने में रोज़े रखे और अपने दायित्वों का पालन किया वे तीन गुटों में बंटे हुए हैं जो ईश्वर से अपना प्रतिफल और पारितोषिक प्राप्त करेंगे। इसी लिए ईदे फ़ित्र के दिन को यौमुल जवाएज़ या पारितोषिक का दिन भी कहा गया है। जिन लोगों ने इस महीने में अपने कर्तव्यों का निर्वाह किया और रातों को उपासना में जाग कर गुज़ारा वे ईश्वर के फ़रिश्तों से जो पारितोषिक प्राप्त करेंगे वह नरक से मुक्ति है। जिन लोगों ने स्वर्ग में जाने के लिए रमज़ान के पवित्र महीने के अपने दायित्वों को पूरा किया उनका पारितोषिक स्वर्ग की प्राप्ति है। तीसरा गुट उन लोगों का है जिन्होंने केवल ईश्वर की प्रसन्नता और उसके प्रति कृतज्ञता जताने के लिए उपासना की। ऐसे लोगों की वापसी स्वयं ईश्वर की ओर है और वे ईश्वर से ही अपना पारितोषिक प्राप्त करेंगे। यह पारितोषिक प्रतिष्ठा व ईश्वर की ओर से प्रेम है। जब ईश्वर उनसे प्रेम करेगा तो वे नरक से भी सुरक्षित रहेंगे और स्वर्ग से भी लाभान्वित होंगे। अतः हमें ईद की रात व दिन में जो पारितोषिक प्राप्त करना चाहिए वह इतना सशक्त और अधिक होना चाहिए कि वह इस महीने के अतिरिक्त बाक़ी ग्यारह महीनों में भी हमारी समस्याओं को दूर कर दे।
 
 
 
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही के पौत्र हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ईद की नमाज़ से पहले अपनी दुआओं में कहते थे। प्रभुवर! हर किसी ने प्रतिफल, पारितोषिक और तोहफ़े की चाह में अपने आपको, किसी न किसी से निकटता के लिए तैयार कर रखा है किंतु हे मेरे मालिक मैंने अपने आपको और अपनी क्षमताओं को तेरी ओर आने के लिए तैयार कर रखा है।
 
आशा है कि हम सब उन उपासकों की श्रेणी में होंगे जिन्होंने ईश्वर के प्रेम में उसकी सही पहचान प्राप्त की है। समय, रमज़ान के पवित्र महीने को तो अपने साथ ले जा रहा है किंतु वह इस महीने में लोगों द्वारा अर्जित की गई ईश्वरीय पहचान को समाप्त नहीं कर सकता। (HN)


source : irib.ir
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