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Tuesday 10th of December 2024
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इस्लाम और सेक्योलरिज़्म

इस्लाम और सिक्योलरिज़्म आज की दुनिया के दो महत्वपूर्ण दृष्टिकोण (नज़रियात) हैं और इन्हीं की वजह से आज दुनिया दो गुरूप में विभाजित है।

इनमें से एक इस्लामी दृष्टिकोण है और दूसरा सिक्योलरिज़्म ,यानी इंसानों का पेश किया हुआ दृष्टिकोण ।

यह एक स्पष्ट हक़ीक़त है कि इंसान की तखलीक़ (सृष्टि) से लेकर आज तक कभी भी इल्हामी और एलाही दृष्टिकोण में किसी क़िस्म का फेर बदल नहीं हुआ वह क़तई (निश्चित) है। तौहीद (एकेश्वरवाद) और मलाएका का तसव्वुर (कल्पना), रिसालत और आखिरत का अक़ीदा, क़द्रो क़ज़ा पर ईमान और हज़रत आदम के अख़लाक़ से लेकर आज तक और आज से लेकर क़्यामत तक के लिए यकसाँ और ग़ैर मुतग़य्यर (अपरिवर्तित) हैं जबकि दूसरी तरफ इसी अर्से में हज़ारों इंसानी नज़रियात (दृष्टिकोण) वजूद में आए। पहले पहल लोगों और समाज नें उनको हाथों हाथ लिया मगर कुछ समय बाद खुद इंसानों नें न केवल इस दृष्टिकोण को झुटलाया बल्कि नौबत यहाँ तक पहुँच गई कि इंसान नें इसका मज़ाक़ तक उड़ा डाला। आसमानी ज्ञान में सूरज के सुकून का नज़रिया (दृष्टिकोण), हैवानात के ज्ञान में जानदार चीज़ों के बेजान होने का नज़रिया (दृष्टिकोण), इल्मे कीमिया (रसायन का ज्ञान) में धातुओं की संख्या का नज़रिया (दृष्टिकोण), ज़मीनी ज्ञान में ज़लज़ले के कारणों का नज़रिया वग़ैरह इसकी रौशन मिसालें हैं और अगर निज़ामे हयात के हवाले से देखा जाए तो माज़ी (अतीत) क़रीब में फाशज़म, कम्यूनिज़्म, सोशलिज़्म इसकी मिसालें हैं कि कभी तो यह नज़रियात छा गए मगर कुछ साल बाद यह इंसानों के लिए घातक (मोहलिक) सिद्ध होने की वजह से रद्द कर दिए गए। बहस का खुलासा यह है कि एलाही नज़रियात (दृष्टिकोण) क़तई होते हैं और कोई भी इंसानी नज़रिया क़तई (निश्चित) नही हो सकता।

अंग्रेज़ी शब्द Secular वास्तव में लैटीन भाषा के “सेक्यूलम” शब्द से लिया गया है। जिसका अर्थ है “आज का दौर ” और उर्दू में प्रायः इसका अनूवाद ला-दीनियत (अधर्मता) किया जाता है। सेक्यूलर नज़रिया (दृष्टिकोण) के मानने वाले लोगों की तरफ से इस अनूवाद पर यह आपत्ती की जाती है कि सेक्योलरिज़्म धर्म का इंकार नहीं करता, यह तो सिर्फ रोज़ाना की ज़िन्दगी और सामूहिक विषय (मआमले) में मज़हब के हस्तक्षेप का विरोधी है, इस लिए लोग सेक्योलरिज़्म का अनूवाद ला-दीनियत (अधर्मता) के बजाए “दुनवियत ” करते हैं। अगर ज़रा सा गहराई में जायें तो यह हक़ीक़त स्पष्ट हो जाती है कि वह खुद उसको ला-दीनियत (अधर्मता) क़रार दे रहे हैं। दीन का अर्थ है “ज़िन्दगी करने का नियम और दस्तूर ”। अगर यह किसी धर्म की बुनियाद पर है तो यह उस धर्म का दीन है जैसे इस्लामी तर्ज़े ज़िन्दगी का अर्थ दीने इस्लाम है और अगर यह तर्ज़े ज़िन्दगी किसी भी मज़हब की राहनुमाई के बग़ैर चल कहा है तो यह ला-दीनी निज़ाम या ला-दीनियत है ।

सेक्योलरिज़्म का तारीख़ी पस मंज़र (पृष्ठभूमि) इस परिभाषा (इस्तेलाह) को समझने में बहुत लाभदायक सिद्ध होगा। इस दृष्टिकोण का संस्थापक जार्ज जैकब होली ओक को कहा जाता है। यह सन 1818 में बर्मिंघम (इंग्लैंड) में पैदा हुआ था। यह समय चर्च की हुक्मरानी का दौर था। यह दौर इतिहास के उन पृष्ठों से सम्बन्धित है जब चर्च ने धर्म के नाम पर लोगों पर ज़ुल्म किया दरहालांकि हज़रत ईसा खुदा के नबी थे उन्होनें खुदा की इबादत का पाठ पढ़ाया था और आखिरत के दिन की सज़ा का एहसास दिलाया था मगर चर्च और उसके मानने वालों नें हज़रत ईसा के बताए हुए ज्ञान और चीज़ों को बदल डाला और इसी बदलाव के ज़रिए चर्च की इस्टेबलिश्मेंट क़ायम कर दी और सब को इसके शिकंजे में जकड़ दिया।

दीन शब्द का अर्थ खुदा की इबादत था मगर जब चर्च ने खुदा की इबादत के बजाए इंसानों की इबादत करना सिखानी शुरूअ कर दी तो यह प्रकृति (Nature) के खिलाफ बग़ावत थी और इसका नतीजा तबाही की सूरत में ज़ाहिर होना ही था। एक तरफ चर्च के लोग मज़हब के ठेकेदार बन गए थे और हज़रत ईसा को खुदा का बेटा बना डाला। करोड़ों लोगों ने इस दृष्टिकोण को मान लिया जबकि यह प्रकृति (फितरत) के खिलाफ था। इस लिए एक मुद्दत बाद इसके खिलाफ प्रतिक्रिया हुई। दूसरी तरफ चर्च ने ज्ञान की वास्तविकता को अपनी इजारा दारी क़रार देकर इंसानी अक़्ल के प्रयोग के दरवाज़े बंद कर दिए। यह वह समय था जब चर्च की इस बढ़ती हुई इजारा दारी के खिलाफ विद्रोह प्रकट हुआ और धर्म के विरूद्ध इस विद्रोह को सिक्योलरिज़्म का नाम दिया गया। सिक्योलरिज़्म के मानने वालों ने धर्म को ज़िन्दगी के निज़ाम (व्यवस्था) से अलग करके आज़ादी के उसूल की बुनियाद पर एक निज़ामे ज़िन्दगी तरतीब (क्रम) दिया। उन्होंने जहाँ धर्म को एक तरफ रख कर ज्ञान की हक़ीक़त की तलाश शुरू कर दी और किसी भी ग़ैर मरई क़ुव्वत के वजूद को मानने से इनकार कर दिया वहीं उन्होंने चर्च के विरोध में यह नज़रिया (दृष्टिकोण) भी क़ायम किया कि तरक़्क़ी की वजह से लोगों की अक़्ल इस क़दर तरक़्क़ी कर चुकी है कि जिस तरह वह फितरत (Nature) के क़ानून से वाक़िफ हो गई है यूं ही अपनी ज़ात से सम्बंधित उसे किसी तरह की इल्हामी हिदायात की ज़रूरत कतई नहीं रही उनकी इस सोच नें धर्म का सम्बंध उनके निज़ामे ज़िन्दगी से पूरी तरह से खतम कर दिया।

इस तरह मग़रिब (पश्चिम) की बनाई हुई इस्तलाह (परिभाषा), सिक्योलरिज़्म का अर्थ हुआ धर्म को पूरी तरह से रद्द करते हुए आज़ादी के उसूल की बुनियाद पर निज़ामे ज़िन्दगी को बनाना। उनके इंसान आज़ाद हैं,क़ौम आज़ाद है ,पार्लियामेंट आज़ाद है। आज़ादी का यह उसूल ऐसा है कि इस से ऊपर कुछ नहीं, इसमें कोई बदलाव मुम्किन नहीं। यही आज़ादी आज मग़रिब (पश्चिम) वालों का धर्म है और और यह चर्च और उसकी हिदायात से बड़ी है जिसकी स्पष्ट मिसाल यह है कि 17 देशों में मर्द मर्द से औरत औरत से की शादियों को क़ानूनी बना दिया गया है। यह आज़ादी तो है लेकिन धर्म और मज़हब से इसका दूर का भी सम्बंध नही है सिक्योलरिज़्म के इस तारीखी पस मंज़र ने इस हक़ीक़त को बेनक़ाब किया कि इस से मुराद व्यक्तिगत और सामुहिक मआमलात में धर्म का कोई हस्तक्षेप नही है।

सिक्योलरिज़्म के मानने वालों के नज़दीक धर्म और मज़हब की क़द्रो क़ीमत क्या है ? हम देखते हैं कि एक दौर में चर्च की हुकूमतों और लोगों, दोनों पर हुक्मरानी थी मगर सिक्योलरिज़्म के इस जुहूर के बाद यूरोप और अमरीका में सिक्योलरिज़्म को अपनाया गया और मज़हब को वेटीकन सिटी में बंद कर दिया गया। सिक्योलर हुकूमतों की सरहदें (सीमा) धीरे धीरे बढ़ती गयीं और धार्मिक हुकूमत वेटीकन सिटी आज दुनिया की सबसे छोटी हुकूमत का नम्बर पा गई जिसका रक़बा 17 मुरब्बा मील है। सिक्योलरिज़्म के मानने वालों नें केवल धर्म से विरोध पर निर्भर न थे बल्कि एक हाथ और आगे बढ़कर तरक़्क़ी का नज़रिया पेश कर दिया जिसका अर्थ है इंसान का आग़ाज़ इंसान नहीं था बल्कि उसकी अस्ल जानवर है। इस नज़रिये (दृष्टिकोण) पर उन्होने अपने इल्मी ढ़ांचे की बुनियाद रखी। अगर इस नज़रिये (दृष्टिकोण) की बुनियादों पर ग़ौर किया जाए तो यह ख़ुद ब ख़ुद मरदूद क़रार पाता है सबसे पहले यह कि जिन हक़ीक़तों पर इस नज़रिये (दृष्टिकोण) का दारोमदार है वह अब तक मालूम नहीं हैं साइंसदाँ (Scientist) अब भी नबाताती इरतेक़ा के वाक़ेए होने की अस्ल तरकीब के लिए सरगरदाँ हैं और यह Logic का उसूल है कि किसी चीज़ को नामालूम हक़ीक़तो की बुनियाद पर सिद्ध नही किया जा सकता वह सिर्फ मालूम हक़ीक़तो की बुनियाद पर ही सिद्ध की जा सकती है। फिर यह कि अगर मान भी लिया जाए कि इंसान की मौजूदा शक्ल व सूरत और कैफियते इरतेक़ा का नतीजा है कि इरतेक़ा के अमल को जारी रखने से किसने रोक दिया ? और ज़्यादा बदलाव क्यों नही हो रहा है ? क़दीम ज़माने से इंसान ने खुद को ऐसा ही इंसान पाया है जैसा वह आज है वही दो टांगें, दो हाथ, दो आँखें, एक नाक और मुंह वग़ैरा। अगर यह सूरते इरतेक़ा का मज़हर है तो फिर और तब्दीलियाँ भी होनी चाहिए जो कि नही हो रहीं। इससे सिद्ध हुआ कि इस नज़रिये की कोई इल्मी और अक़्ली बुनियाद नही। । सिक्योलरिज़्म के दिए हुए इस नज़रिये की बदौलत इंसान ख़ुद को जानवरों की एक क़िस्म समझ कर उनके जैसे काम करने लगता है। कभी लिबास से आरी, कभी अख़लाक़ से खाली, कभी खाहिशे नफ्स का पैरवी करने वाला तो कभी ज़िम्मेदारियों का एहसास नही।

इस्लाम एक मुकम्मल निज़ामे हयात है यह इंसान के व्यक्तिगत और सामुहिक दोनो मआमलों में शामिल होता है। इसकी बुनियाद, ठोस अक़ीदे जिसमें किसी तरह का बदलाव नही हो सकता और इंसान की फलाह (मुक्ति) के लिए बना निज़ामे इबादत, पर रखी गई है। इस्लाम का मक़सद इंसान को तमाम ज़ंजीरों के शिकन्जे से निकाल कर सब बनाए हुए खुदाओं की खुदाई को रद्द करते हुए एक खुदा के आगे झुकाना है दूसरे शब्दों में इस्लामे हक़ीक़ी (वास्तविक) आज़ादी का दूसरा नाम है, फिक्र व इज़हार की आज़ादी, अज़्म व अमल की आज़ादी। जबकि दूसरी तरफ सिक्योलरिज़्म एक ऐसा निज़ामें ज़िन्दगी है जो मज़हब से संबन्धित नही है। इस नज़रिये (दृष्टिकोण) ने रोज़ाना की ज़िन्दगी के मआमलों में खुदा का हिदायत की ज़रूरत को रद्द कर दिया है इसके अनुसार इरतेक़ा के अमल के नतीजे में अक़्ल, शऊर, और समझ के इस मर्तबे पर पहुंच चुका है कि अब वह खुद को किसी ग़ैर मरई क़ुव्वत के हवाले किए बग़ैर अपनी दूनिया के मआमलों को चला सकता है यानि एक सेक्यूलर आदमी के लिए उसकी मरज़ी उसका तर्ज़े हयात है उसकी अक़्ल और इल्म (ज्ञान) उसकी मार्ग दर्शक है।

एक सवाल ???

आज का मार्डन ज़माना इस्लाम और सिक्योलरिज़्म को एक बताने पर तुला हुआ है। ऊपर लिखी गई तहरीर से सिक्योलरिज़्म का मफहूम (अर्थ) तो स्पष्ट है जाता है अब इस बात का जायज़ा लेते हैं कि इस्लाम और सिक्योलरिज़्म का एक होना तो कहाँ, वह तो एक दूसरे की अपोज़िट बुनियादों पर खड़े हैं।

सबसे पहली बात यह है कि सिक्योलरिज़्म चर्च के विरूद्ध विरोध का नाम है और इस्लाम में कोई चर्च है ही नही जैसा कि खुदा का इर्शाद हैः व रोहबानिया इब्तदऊहा मा कतबना अलैहिम...

और रसूल (स) की हदीस है: इस्लाम में रोहबानियत नही है।

और जब आयत : इत्तख़ज़ू अहबारहुम व रोहबानहुम अरबाबन मिन दूनिल्लाह, नाज़िल हुई तो अदी इब्ने हातिम ने इस पर एतिराज़ किया कि हम तो ऐसा नही करते थे मगर रसूले खुदा (स) के तवज्जोह दिलाने पर उन्होने यह बात तस्लीम की कि हम अपने उलमा के हलाल किए हुए को हलाल और हराम किए को हराम मानते थे आपने (अ) फरमाया कि तुम्हारे इसी काम को खुदा ने रब मानने से ताबीर किया है मगर इस्लाम की तारीख में हज़ारों कमियों और कोताहियों के बावजूद आज तक किसी ने चर्च की तरह हलाल और हराम को निश्चित करने की हिम्मत नही की तो फिर इस्लाम के मानने वालों को इनकार कर दिया है सिक्योलरिज़्म की ज़रूरत कहाँ ? इस्लाम में हरगिज़ इस बात की गुन्जाइश नही कि कोई विशेष तबक़ा मज़हब का इजारा दार बन जाए। पहले युग (क़र्न) में सब लोग बग़ैर किसी रोक टोक के क़ुरआन और सुन्नत से मदद लेते थे और आज भी बुनियादी उसूल यही है कि जिस तरह हर इंसान के लिए डाक्टर बनना ज़रूरी नही है लेकिन सेहत के बुनियादी उसूल की जानकारी ज़रूरी है इसी तरह हर इंसान के लिए शरियत में महारते ताम्मा हासिल करना तो ज़रूरी नही लेकिन बुनियादी उसूल से संबन्धित उनकी तालीम और ज्ञान से आगाही ज़रूरी है। इस तरह इस्लाम ने मज़हबी इजारा दारी का खात्मा कर दिया।

चर्च ने खुद को खुदा और लोगों के दरमियान लाज़मी (आवश्यक) वसीला क़रार दिया इसके अपोज़िट इस्लाम ने: व इज़ा सालका एबादी अन्नी फानी क़रीबुन ओजिबो दावतद-दा इज़ा दआन,का पैग़ाम देकर इंसानी तकरीम (अभीवादन) को चार चांद लगा दिए। हज़रत (स) ने अपनी बेटी को खुद अपनी निजात का सामान करने को कहा और उनकी निजात की ज़िम्मेदारी की ज़िम्मेदारी क़ुबूल नही की। इसमें भी दर हक़ीक़त इंसानी तकरीम (अभीवादन) का यह पहलू सब पर भारी है कि हर इंसान का मआमला उसके खुदा के साथ होगा। चर्च ने हज़रत ईसा के सूली पर चढ़ने की कहानी खुद बना करके हर आदमी के लिए गुनाहों को अंजाम देने का रास्ता खोल दिया। जब कि इस्लाम ने ला तज़दू ज़ुर्रतन व ज़िद उख़रा... का सुनहरा उसूल देकर हर शख्स को अपने आमाल की जज़ा और सज़ा का ज़िम्मेदार ठहराया और इसमें और इसमे इंसाफ को इतना ज़्यादा ध्यान में रखा कि: तब्बत यदा अबी लहब व तब..... कहकर रिश्तेदारी के लिहाज़ का मुकम्मल तौर पर सफाया कर दिया।

चर्च ने पहले औरत की मज़म्मत (निन्दा) की , उसको बुराई की जड़ बताया और फिर उसको यह यक़ीन दिलाया कि इज़्ज़त का मक़ाम पाने के लिए तुम्हे मर्द के साथ साथ चलना पड़ेगा और जब औरत मर्द वाले काम करती भी है तो हक़ीक़त में बड़ाई उसकी नही मर्द की साबित होती है मगर इस्लाम ने मर्द और औरत के लिए फ़रीज़ों और ज़िम्मेदारियों को बताने के बाद दोनों को बराबर की सज़ा और जज़ा के वादे दिए। ज़ात की बुनियाद पर दोनों के मक़ाम में कोई टकराव नही रखा।

चर्च की ऊपर बताई हुई कमियों और बुराई का नतीजा सिक्योलरिज़्म था और इस्लाम में तो यह खामियां है ही नहीं सिक्योलरिज़्म की गुन्जाइश कहाँ ?

आज के सिक्योलरिज़्म तबक़े की एक दलील यह भी है कि हम टेक्नालाजी पश्चिम वालों से ले रहे हैं तो इसके चलाने का तरीक़ा क्यों नहीं ? इसमे क्या बुराई है ? इसका सादा सा जवाब यह है कि हम उनसे टेक्नालाजी तो ले सकते है मगर निज़ामे ज़िन्दगी नही, दूसरा यह कि उन्होने भी नए उलूम (ज्ञान) हम से लिए थे, क्या उन्होने हमारा निज़ामे ज़िन्दगी क़ुबूल किया था ?

ऊपर बयान हुई हक़ीक़तों से हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि सिक्योलरिज़्म पश्चिम से आई हुई इस्तलाह (परिभाषा) है हमे इसकी हरगिज़ ज़रूरत नही है, फिर यह कि इस्लाम की तारीख में कभी भी ऐसे हालात पैदा ही नही हुए कि हमे भी चर्च के ज़ुल्म के शिकार लोगों की तरह मज़हब के खिलाफ बग़ावत और सिक्योलरिज़्म की ज़रूरत पड़ती।

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