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Tuesday 10th of December 2024
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तावील पर तफ़सीरे अल मीज़ान का दृष्टिकोण

तावील पर तफ़सीरे अल मीज़ान का दृष्टिकोण

तावील का माद्दा ال یوول ای رجع رجوعا है और लौटने के मायना में है अत: तावील जो मज़ीद फ़ी है उसका अर्थ इरजा यानी लौटाना है। इरजा हर चीज़ के लिये लौटाने को कहते हैं और तावील केवल मफ़ाहीम के लिये प्रयोग होता है।

तावील बाज़ अवक़ात गुफ़तार या गुफ़्तगू के लिये भी इस्तेमाल होता है जिसे आयाते मुताशाबेह की तावील و ما یعلم تاویلہ الا اللہ والراسخون فی العلم )آل عمران ۷)

अनुवाद: बाज़ अवक़ात किरदार के लिये भी इस्तेमाल होता है जैसे हज़रत मूसा से हज़रत ख़िज़्र का यह कहना سانبءک بتاویل ما لم تستطع علیہ صبرا ) szکہف ۷۸)

अनुवाद: मैं अनक़रीब तुम्हे उन तमाम कामों की तावील बता दूँगा जिन पर तुम सब्र नही कर सके।

तावील का अर्थ

तावील चार जगहों पर इस्तेमाल हुआ है जिन में से तीन जगहों पर क़ुरआने मजीद में इस्तेमाल हुआ है और चौथी जगह बुज़ुर्गों के कलाम में आया है।

अ.    मुताशाबेह की तौहीद

यूँ है कि ज़ाहिर मुबहम और शुब्ह पैदा करने वाला हो और उसका हक़ व हक़ीक़त वाला पहलु बातिल की तरह जलवा नुमा हो। गोया हक़ व बातील का एक दूसरे पर शुबहा हो और हैरानगी का कारण बने।

राग़िब इसफ़हानी कहते हैं:المتشابہ ما تشابہ بغیرہ

मुतशाबेह वह है जो दूसरी चीज़ से शबाहत पैदा करे।

दूसरी चीज़ से मुराद वही बातिल है कि जिसका वास्तविक चेहरा बातिल की शक्ल में आ गया हो और देखने वाला हैरत व सरगरदानी में हो और नही जानता हो कि जो देख रहा है वह हक़ या बातिल? एक तरफ़ तो यह कलाम साहिबे हिकमत सादिर हुआ है अत: उसे हक़ होना चाहिये लेकिन दूसरी तरफ़ उसका ज़ाहिर शुबहनाक और बातिल के मुशाबेह है। अब मुतशाबेह (गुफ़तार हो या किरदार) की सही तावील यह है कि उससे इबहाम का हाला दूर किया जाये और उसके शुबह के मवारिद को दूर किया जाये यानी लफ़्ज़ और अमल का चेहरा जिस तरफ़ हक़ हो उसी तरफ़ लौटाना और देखने या सुनने वाले की नज़र को भी उसी तरफ़ मुतवज्जे करना इस तरह उसको हैरत व सरगरदानी से निकालना है। अलबत्ता यह काम सालेह उलामा के हाथों अँजाम पाता है।

लिहाज़ा अहले ज़ैग़ (जिनके दिलों में कजी व इंहेराफ़ है) मुतशाबेहात के पीछे हैं ताकि ग़ैर वाज़ेह सूरते हाल से सूए इस्तेफ़ादा करें और उनकी तावील अपने ज़ाती फ़ायदों और मफ़ादात के लिये करें। यही तावील ग़ैर सही और बातिल है जो ग़ैर सालेह अफ़राद अंजाम देते हैं। इस ऐतेबार से तावील और तफ़सीर के मआनी में फ़र्क है। तफ़सीरे फ़क़त इबहाम का दूर करना है लेकिन तावील इबहाम को दूर करने के साथ साथ शुबह को दूर करना भी है, तावील एक ऐतेबार से तफ़सीर भी है।

ब. ताबीरे ख़्वाब

सूरए युसुफ़ में तावील आठ बार इस मायना में इस्तेमाल हुआ है। मायना व मुराद यह है कि ख़्वाब में रम्ज़ व राज़ की सूरत में बाज मतालिब पेश किये जाते हैं ताकि उसकी सही ताबीर से हक़ीक़ते मुराद को कश्फ़ किया जाये।

हज़रत याक़ूब हज़रत युसुफ़ के बारे में कहते हैं:

و کذالک یجتبیک ربک و یعلمک من تاویل الاحادیث و یتم نعمتہ علیک (یوسف ۶)

अनुवाद: इसी तरह अल्ला तआला तुम्हारा इंतेख़ाब फ़रमायेगा और तुम्हे बातों की तावील (हक़ायक़ को आशकार करने) की तालीम देगा और अपनी नेमत को तुम पर तमाम करेगा। यह उन मतालिब की तरफ़ इशारा है जो ख़्वाब में जलवा गर होते हैं  ताकि उनमें मौजूद पोशिदा हक़ायक़ को उनकी तरफ़ लौटाया जाये जबकि उन हक़ायक़ को हज़रत युसुफ़ जैसी शख़्सियात जानती है। जब अज़ीज़े मिस्र ने ख़्वाब में देखा कि सात दुबली गायों को सात मोटी गायें खा रही है और सात हरी बालियों के साथ, सात ख़ुश्क बालियों का मुशाहिदा किया तो उसने अपने अतराफ़ियों से उसकी ताबीर के बारे में पूछा तो उन्होने जवाब दिया:

یا ایھا الملاء افتونی فی رویای ان کنتم للرویا تعبرون

ऐ बुज़ुर्गाने क़ौम मुझे मेरे ख़्वाब की ताबीर बताओ अगर तुम ख़ुब ताबीर जानते हो तो निजात याफ़्ता क़ैदियों में से एक ने कहा:

انا انبءکم بتاویلہ فارسلون یوسف ایھا الصدیق افتنافی سبع بقرات

अनुवाद: मैं तुम्हे उसकी ताबीर से आगाह करता हूँ मगर मुझे भेज दो, युसुफ़ ऐ सच्चे इँसान हमें उन सात गायों के बारे में बताओं। युसुफ़ ने जवाब दिया, यह ग़ल्ले की फ़रावानी और फिर ख़ुश्क साली के सालों की तरफ़ इशारा है।

स. अंजाम कार

وزنوا بالقسطاس المستقیم ذالک خیر و احسن تاویلا (بنی اسراءیل ۳۵)

और जब नापो तो पूरा नापो और जब तौलो तो सही तराज़ू से तौलो (क्योकि) यही बेहतर और बेहतरीन अंजामे कार है।

सूरए आराफ़ की 53वी आयत में इरशाद है:

क्या यह लोग सिर्फ़ अंजामे कार का इंतेज़ार कर रहे हैं तो जिस दिन अंजाम सामने आ जायेगा तो जो लोग पहले उसे भूले हुए थे वह कहने लगे कि बेशक तुम्हारे परवरदिगार के रसूल सही पैग़ाम लाये थे।

सूरए निसा की 59वी आयत में इरशादे बारी ए तआला है:

ऐ ईंमान वालो अल्लाह की इताअत करो और रसूल और साहिबाने अम्र की इताअत करो और अगर किसी अम्र में तुम्हारे दरमियान इख़्तिलाफ़ हो जाये तो उसे अल्लाह और रसूल की तरफ़ पलटा दो अगर तुम अल्लाह और यौमे आख़िरत पर ईमान रखते हो तो तुम्हारे लिये यही बेहतर और बेहतरीन अंजामे कार है।

व. कुल्ली मफ़ाहीम अख़्ज़ करना

शायद बुज़ुर्गाने दीन के कलाम में अहम तरीन मायना यही है यह मअना तंज़ील के मुक़ाबिल में है यह वाज़ेह रहे कि क़ुरआने हकीम रायज किताबों की तरह मुनज़्ज़म व मुनसजिब नही है बल्कि मुख़्तलिफ़ वाक़ेयात व हवादिस की मुनासेबत से नाज़िल हुआ। उन वाक़ेयात को सबबे नुज़ुल या शाने नुज़ुल कहते हैं।

यह अम्र मुजिब बनता है कि हर आयते करीमा का सिर्फ़ एक ख़ास मअना व मफ़हूम हो। अगर ऐसा हो तो यक़ीनन क़ुरआने मजीद से वक़्ती तौर पर इस्तेफ़ादा किया जा सकता है जबकि ऐसा नही है। क़ुरआने मजीद एक ज़िन्दा व जावेद किताब है जो सब ज़माने के इंसानो की रहबरी, हिदायत और रहनुमाई के लिये नाज़िल हुई है पस मवारिदे नुज़ूल, आयत के मआनी व मफ़ाहीम की तख़स्सुस का बाइस नही बनते बल्कि यही क़ुरआने मजीद के क़ुल्ली मफ़ाहीम को ज़िन्दा व जावेद रखते हैं जिनको तारीख़े बशरीयत के मुशाबेह वाक़ेयात से मुताबेक़त दी जा सकती है। इसकी वजह यह है कि "العبرت بعموم اللفظ لا بخصوص المورد" इबरत लफ़्ज़ की उमूमियत से होती है न कि मौरिद की ख़ुसूसियत से। इसी लिये आयते करीमा के ज़ाहिरी पहलुओं को तंज़ील कहते है। क़ुरआने करीम की तमाम आयात इस ऐतेबार से क़ाबिले तावील हैं जबकि इससे क़ब्ल तावील का मअना मुताशाबेह आयात की तौहीह करना बयान हुआ है।

यही कुल्ली मफ़ाहीम जो आयत के पैग़ाम को ज़िन्दा व जावेद बना देते हैं उनको बत्न भी कहा जाता है।

उसको बातिन इस लिये कहा जाता है क्योकि आम और पिनहा मअना ज़ाहिरी लफ़्ज़ के पसे पर्दा होता है।

उसके मुक़ाबिल ज़हर का लफ़्ज़ आता है जिसके मअना वही ज़ाहिरे कलाम के हैं जो मौजूद क़रीनों पर इंहेसार करता है और इस तरह उसको ख़ास मौरिद से मख़सूस कर देता है।

ज़हर व बत्न को रोज़े अव्वल से आँ हज़रत ने तंज़ील व तावील के मुतारादिफ़ के तौर पर इरशाद फ़रमाया: ما فی القرآن آیۃ الا و لھا ظھر و بطن

अनुवाद: क़ुरआन में हर आयत का एक ज़ाहिर और एक बातिन है।

फ़ुज़ैल बिन यसार इमाम अबु जाफ़र (अ) से इस हदीसे नबवी के बारे में सवाल करते हैं कि ज़ाहिर व वातिन से क्या मुराद है? तो हज़रत इरशाद फ़रमाते हैं:

ظھر تنزیلہ و بطنہ تاویلہ منہ ما قد مضی و منہ ما لم یکن یجری کما تجری الشمش والقمر

अनुवाद: उसका ज़ाहिर (वही) तंज़ील है और उसका बातिन उसकी तावील है। उसमें से कुछ तो वह है जो गुज़र गया और कुछ वह है जो न था और जारी हो जाता है जैसे शम्स व क़मर हरकत में हैं।

यहाँ सबसे अहम मअना पहला और आख़िरी मअना है जो बुज़ुर्गाने इस्लाम के कलाम में नज़र आते हैं उन के लिये तफ़सीर की इस्तेलाह इस्तेमाल होती रही है।
तावील के मअना मुताशाबेह की तौजीह करना ख़ुसूसन मुताशाबेह आयात की। तावील ब मअना बातिन जबकि आयत का पैग़ाम उमूमी है और यह चीज़ सारे क़ुरआने करीम में जारी व सारी है।

ऐनियते तावील का नज़रिया

तावीले के गुज़श्ता मआनी मशहूर उलामा ए इस्लाम का नज़रिया है कि जिस को सबसे पहले इब्ने तैमिया ने पेश किया और उसी को अल्लामा तबातबाई ने इँतेहाई गहराई व गीराई और बहुत साफ़ व शफ़्फ़ाफ़ अंदाज़ से बयान फ़रमाया है गोया हक़्क़े मतलब अदा किया है।

इब्ने तैमिया का कहना है कि तावील तफ़सीर के मुक़ाबिल में एक इस्तेलाह है जो मुताअख़्ख़ेरीन में रायज है उससे बातिनी मुराद लेते हैं जो ज़ाहिरी मआनी के मुक़ाबिल हैं जबकि ज़ाहिरी मआनी को तफ़सीर कहते हैं।

एक और मक़ाम पर इब्ने तैमिया के बक़ौल गुज़श्ता उलामा की इस्तेलाह में तावील के दो मआनी हैं।
कलाम का मअना और तफ़सीर बनाया करना। तबरी की इबारत यूँ है:

الکلام فی تاویل ھذہ الآیۃ इस आयत की तावील में कलाम यह है या اختلاف اہل التاویل فی ھذہ الآیۃ इस आयत के मअना में अहले तावील ने इख़्तिलाफ़ किया है। यहाँ तावील से मुराद आयत की तफ़सीर है।

2. जाने कलाम और हक़ीक़ते मुराद, यानी अगर कलाम में तलब पाई जाती हो तो उसकी तावील दर हक़ीक़त मतलूब है और अगर ख़बर मौजूद हो तो उसकी तावील दर हक़ीक़त वह चीज़ है जिससे ख़बर दी गई है। तावील इस ऐतेबार से एक तीसरे मअना और गुज़श्ता दो मआनी से बहुत मुख़्तलिफ़ है क्योकि उन दो मअना में तावील, इल्म और कलाम (गुफ़तगू) की तरह है कि जिस तरह तफ़सीर या शुरुह व तौज़ीह है। उसमें तावीले क़ल्ब व ज़बान की तरह है जो ज़हनी व कतबी वुजूद रखती है लेकिन तावील का तीसरा मअना सिर्फ़ वुजुदे ख़ारेजी रखता है गुज़श्ता या आईन्दा। अगर कहा जाये طلعت الشمس तो उसकी तावील की वही तुलूए आफ़ताब है जो ख़ारिज में मुतहक्क़क़ है। यह तीसरा मअना वही लुग़ते क़ुरआन है जिस पर नाज़िल हुआ है।

अल्लामा तबातबाई का नज़रिया

अल्लामा तबातबाई इब्ने तैमिया के नज़रिये के बाज़ जवानिब को क़ाबिले ऐतेराज़ क़रार देते हैं अलबत्ता अस्ल नज़रियों को कबूल करते हैं। इब्ने तैमिया के कलाम को पेश करने के बाद फ़रमाते हैं:

لکنہ اخطاء فی عد امر خارجی مرتنط بمضمون الکلام حتی مصادیق الاخبار الحاکیۃ عن الحوادث الماضیۃ والمستقبلۃ تاویلا للکالام۲

अनुवाद: लेकिन इब्ने तैमिया ने मज़मुनुल कलाम से मरबूत हर अम्रे ख़ारेजी (हत्ता माज़ी व मुसतक़बिल के हवादिस की हिकायत करने वाली ख़बरों के मसादीक़) ो भी कलाम की तावील क़रार देते हुए ख़ता की है।

الحق فی التفسیر التاویل انہ الحقیقۃ الواقعیۃ التی ۔۔۔ قال تعالی والکتاب المبین انا جعلناہ قرّنا عربیا لعلکم تعقلون و انہ فی ام الکتاب لدینا لعلی حکیم۳

अनुवाद: तावील की तशरीह व तफ़सीर में हक़्क़े मतलब यह है कि एक ऐसी हक़ीक़त है जिस पर क़ुरआनी हेकम, मौएज़ा और हिकमत दलालत करते हैं  और यह क़ुरआन हकीम की तमाम मोहकम व मुताशाबेह आयात में मौजूद है। यह उन मफ़ाहीम की तरह नही है जिन पर अल्फ़ाज़ दलालत करते हैं बल्कि उसका ताअल्लुक़ उन ऐनी व मुताआली उमूर (अज़ीम ख़ारेजी उमूर) से है जो दायरा ए अल्फ़ाज़ से बाहर हैं। उन उमूर को अल्लाह तआला ने अल्फ़ाज़ के साथ इसलिये मुक़य्यद फ़रमाया है ताकि वह हमारे ज़हनों के क़रीब हो जाये। पस यह अल्फ़ाज़ मिसालों की तरह है जिन को मक़ासिद व अहदाफ़ से क़रीब तर होने के लिये पेश किया जाता है और उनकी तशरीह सामेअ या मुताख़ब के फ़हम व इदराक के मुताबिक़ की जाती है। इरशादे बारी तआला है: और क़ुरआने मुबीन, हमने क़ुरआन को अरबी में क़रार दिया ता कि तुम तअक़्क़ुल से काम लो और बेशक यह हमारे पास लौहे महफ़ूज़ (उम्मुल किताब) में निहायत बुलंद दर्जा और पुर अज़ हिकमत है।

अल्लामा तबातबाई एक और मक़ाम पर इरशाद फ़रमाते हैं कि आयत की तावील से मुराद वह मफ़हूम मुराद नही है जिस पर आयत दलालत करती है मुसावी है कि यह मफ़हूम ज़ाहिरे आयत के मुवाफ़िक़ हो या मुख़ालिफ़ बल्कि तावील उमूरे ख़ारेजिया में से है अलबत्ता अम्रे ख़ारेजी नही ता कि ख़बर का ख़ारेजी मिसदाक़ उसकी तावील क़रार पाए बल्कि यह एक ख़ास अम्रे ख़ारेजी है। कलाम से उसकी निस्बत ऐसे है जैसे मुमस्सिल की निस्बत मिसाल से और बातिन की ज़ाहिर से एक और जगह फ़रमाते हैं:

و تاویل القرآن ھو الماخذ الذی یاخذ منہ معارفۃ ۵   

क़ुरआन की तावील वह माख़ज़ है जिससे क़ुरआनी मआरिफ़ को अख़्ज़ किया जाता है।

इन इबारतों में तीन ताबीरात इस्तेमाल हुई है:
हक़ीक़त वाकेईयत ऐनियत

पस अल्लामा की नज़र में तावील आलमें ज़हन से एक जुदा हक़ीक़त है क्योकि अज़हान में मफ़ाहीम से बढ़ कर कुछ नही होता बस मफ़ाहीम कियी चीज़ का सर चश्मा क़रार नही पा सकते क्योकि मफ़ाहीम तो ख़ुद हक़ायक़े वाकेइया से निकलते हैं।

दूसरे यह कि तावील चुँकि क़ुरआने मजीद का बातिन है और बातिन ज़ाहिर का मम्बअ  है जबकि ज़ाहिर जो कुछ होता है वह पोशिदा हक़ायक़ का एक परतव है। पस क़ुरआन की हक़ीक़त उसके बातिन और तावील से तशकील पाती है इस तरह कि अल्फ़ाज़ व इबारात के ज़वाहिर का सर चश्मा यही हैं उसकी मिसाल जिस्मे इँसानी में रुह की तरह है।

क़ाबिल ज़िर्र नुक्ता यह है कि मज़कूरा तीनों ताबीरात में एक क़ैदे ऐहतेरीज़ी मौजूद है गोया वाक़ेइयत कहने से तवहुमात और अवहाम की नफ़ी की है।

हक़ीक़त जो कहा है तो इस लिये कि कहीं उमूरे ऐतेबारिया ए महज़ का गुमान न हो और ऐनियत के कहने से ज़ेहनियत (उमूरे ज़हनी) की नफ़ी की है ता कि यह गुमान न हो कि उसका ताअल्लुक़ मफ़ाहीम से है और उसका मक़ाम ज़हन है अलबत्ता ऐनियत से मुराद ऐनियते मिसदाक़ी नही है जैसा कि इब्ने तैमिया के कलाम में है बल्कि फ़क़त ख़ारिज अज़ ज़हन होना मक़सूद है। इसी ऐतेबार से सूरए निसा की 59वी आयत की तफ़सीर में फ़रमाते हैं:

التاویل القرآن ھوالماخذ الذی یاخذ منہ معارفۃ

इस सिलसिले में अल्लामा तबातबाई फ़रमाते हैं कि जो कोई भी क़ुरआने हकीम की आयात में तदब्बुर करे तो नाचार इस नतीजे पर पहुचेगा कि क़ुरआन जो पैग़म्बरे इस्लाम (स) पर तदरीजन नाज़िल हुआ उसका इसी हक़ीक़त पर इंहेसार है ऐसी हक़ीक़त जो उमूमी अज़हान के इदराक से मा वरा है। नफ़सानी ख़्वाहिशात और कसाफ़तों से आलूदा हाथ इस को दर्क या लम्स नही कर सकते।

لا یمسہ الا المطھرون

क़ुरआन का मक़सूदे निहाई और मतलूबे ग़ाई जो कुछ भी था सब का सब शबे क़द्र में अल्लाह तआला ने आँ हज़रत (स) को सिखा दिया और इस हक़ीक़त को एक ही मक़ाम पर यकजा नाज़िल फ़रमाया।10

मज़ीद फ़रमाते हैं: तावील एक ऐसी ख़ारेजी हक़ीकत है जो मुजिब बनती है कि कोई हुक्म वज़अ हो, कोई मारेफ़त बयान हो या कोई वाक़ेया बयान किया जाये। यह हक़ीक़त ऐसी चीज़ नही है जिस पर क़ुरआनी ज़वाहिर सराहतन दलालत करें अलबत्ता यह ज़वाहिर उसी हक़ीक़त से माख़ूज़ हैं और यह भी कि उसका एक है इस तरह कि इस हक़ीक़त की हिकायत या उसकी तरफ़ इशारा करते हैं।11

इस मतलब की तशरीह मज़ीद फ़रमाते हैं:

जो कोई असक़नी का हुक्म देता है यह हुक्म उसकी उस फ़ितरत से है जो तालिबे कमाल है। यह ख़ारेजी हक़ीक़त (तलबे कमाल की फ़ितरत) तक़ाज़ा करती है कि इंसान अपने वुजूद की हिफ़ाज़त और अपनी बक़ा की कोशिश करे।

इसी तरह उसके बदन से अगर कोई चीज़ तहलील या ज़ाया हो गई हो तो उसका तदारुक करे।

मुनासिब ख़ुराक तलब करे, प्यास बुझाने का तक़ाज़ा करे नतीजा पानी पीने का हुक्म करे।

فتاول قولہ اسقنی ھو ما علیہ الطبیعۃ الخارجیۃ الانسانیۃ من القضاء الکمال فی وجودہ و بقاءہ ۱۳

पस तावील और पानी की फ़राहमी के हुक्म में बाज़ गश्त इंसानी तलबे कमाल की फ़ितरत है यह हुक्म इस हक़ीक़त की हिकायत कर रहा है और इस वाक़ेइयत की तरफ़ इशारा है उसकी मज़ीद तौज़ीह सूर ए कहफ़ की 83 वी आयत ما لم تستطع

  علیہ صبرا    

की तफ़सीर में फ़रमाते हैं:

क़ुरआनी उर्फ़ में किसी चीज़ की तावील एक ऐसी हक़ीक़त है जिस पर उस शय की बुनियाद और असास होती है और उसी की तरफ़ वह बोलती है जैसे ख़्वाब की ताबीर उसकी ताबीर है, हुक्म की तावील उसकी मेयार व कसौटी है, फ़ेअल की तावील उसकी मसलहत व हक़ीक़त व ग़ायत है, वाक़ेया की तावील उसकी हक़ीक़ी इल्लत व सबब है और इसी तरह। 14

हुक्म (वजई और तकलीफ़ी शरई अहकाम) की तावील उस हुक्म की तशरीह (क़ानून साज़ी) का मेयार है क्योकि शरई अहकाम हक़ीक़ी मेयारात या मसलहतों के ताबेअ हैं। यही मेयारात व मसलहतें उस हुक्म की तशरीह का मुजिब बनते हैं।

हर फ़ेअल (अँजाम शुदा या अँजाम पाने वाला)  की तावील उसी फ़ेल की मसलहत व ग़ायत है क्योकि आक़िल कोई फ़ेल भी अँजाम नही देता मगर यह कि उसमें कोई मसलहत पाई जाती हो और किसी हदफ़ के हुसूल की ख़ातिर हो।

पस हर चीज़ की तावील उसके अपने दायरा ए वुजूद में उसकी बुनियाद व असास है जो उसके हदफ़ व ग़ायत को तशकील देती है।

तावील का लफ़्ज़ क़ुरआने करीम में 17 बार, 15 आयात और सात सूरतों में इस्तेमाल हुआ है। 15

उनके बारे में फ़रमाते हैं:

لم یستعمل القرآن لفظ التاویل فی الموارد التی استعمل الا فی ھذا لایعنی ۱�

अनुवाद: क़ुरआने करीम ने जिन मवारिद में भी लफ़्ज़े तावील इस्तेमाल किया है फ़कत उसी मअना में इस्तेमाल किया है। उस मक़सद के लिये हम बाज़ आयात की तशरीह कर रहे हैं।

आराफ़ 52, 53 ولقد جءناھم بکتاب۔۔۔۔ ھل ینظرون الا تاویلہ یوم یاتی تاویلہ۔۔۔

उन आयात की तफ़सीर में अल्लामा तबातबाई बयान फ़रमाते हैं یوم یاتی تاویلہ में ज़मीर पूरी किताब की तरफ़ लौटती है क्योकि क़ुरआन की इस्तेलाह में तावील वही हक़ीक़त है जिस पर क़ुरआन का इंहेसार है।   ھل ینظرون الا تاویلہ के मअना यह है कि किस का इँतेज़ार कर रहे हैं सिवाए इस हक़ीक़त के जो क़ुरआन का मुहर्रिक और बुनियाद है और अब ख़ुद अपनी आँखों से देख रहे हैं। 17

2. सूर ए युनुस आयत 39    بل کذبوا بما لم یحیطوا بعلمہ و لما یاتھم تاویلہ

 उन्होने ऐसी चीज़ की तकज़ीब की जिसको जान नही सके थे। पस उनकी नादानी व जिहालत उनके झुटलाने का सबब बनी यानी उसकी तावील जानने से क़ब्ल उन्होने उसको झुटला दिया। क़यामत के दिन की हक़ीक़त आशकार हो जायेगी और उसका मजबूर मुशाहेदा करेगें। उस दिन जिस दिन पर्दे हट जायेगें और तमाम के तमाम हक़ायक़ बरमला हो जायेगें।

अलबत्ता इन आयात में मुशाहेदे से मुराद लम्से हक़ीक़ी है जिसका पहले से इंकार कर चुके थे  ख़ुद अल्लामा फ़रमाते है و بالجملۃ ما یظھر حقیقتہ یوم القیامۃ من انباء النبوۃ و اخبارھا۱۸

अँबिया(अ) की दावत व अख़बार में जो कुछ बयान हुआ है क़यामत के दिन उसकी सारी हक़ीक़त ज़ाहिर हो जायेगी।

अलबत्ता इस दुनिया में हक़ायक़ का आशकार होना और आलमें आख़िरत में हक़ायक़ का आशकार होना उन दोनो में फ़र्क़ है इस बारे में फ़रमाते हैं: उस दिन पर्दो का आँखों से हटना और उस वक़्त आँखों का बहुत रौशन होना इस मतलब की तरफ़ इशारा है कि उस दिन अंबिया (अ) और इलाही शरीयतों के बताए हुए मामलात का देखना हिस्सी मुशाहेदात से हट कर है जिसके हम लोग आदी हो चुके हैं। इसी तरह से ख़बरों का अंजाम पाना और मुहक़्क़क़ होना और उस दिन का हाकिम निज़ाम सब कुछ उस चीज़ के अलावा है जिससे हम इस दुनिया में आशना हैं।

सूरए बनी इसराइल आयत 35 و اوفوا الکیل اذا کلتم و زنوا بالقسطاس المستقیم ذالک خیر و احسن تاویلا

इस आयत की तफ़सीर के बारे में फ़रमाते हैं: आयत का ज़ाहिर यह है कि तावील एक ख़ारेजी अम्र और ऐनी असर है जो ख़ारेजी फ़ेल पर मुतरत्तब होता है क्योकि तावील एक ख़ारेजी अम्र है जो एक दूसरे अम्रे ख़ारेजी के लिये मम्बअ व मरजअ बनता है।

पस इस आयत की इस तफ़सीर को क़बूल नही फ़रमाते। कैल का पूरा करने और वज़्न क़ायम करने की तावील वही मसलहत है जो उन दो पर मुतरत्तब होती है और वह मसलहत मुआशेरती उमूर का क़याम व इसतहकाम है।

उसके क़बूल न करने की वजह बयान फ़रमाते हैं कि यह उमूर ऐनी नही है। 19

ता हम इस आयते करीमा के ज़ैल में इस नज़रिये को क़बूल करते हैं। 20

सूरए कहफ़ आयत 87 سانبءک بتاویل ما لم تستطع علیہ صبرا

इस आयत की तफ़सीर में फ़रमाते हैं: इस आयते करीमा में तावील से मुराद वह सूरत नही जो हज़रत मूसा ने अंजाम शुदा उमूर में देखी।

कश्ती में सूराख के वाक़ेया में उसके सवार अफ़राद के डूब जाने की बुरी तसवीर हज़रत मूसा ने तसव्वुर की लेकिन आपके राहनुमा ने एक दूसरा रुख पेश किया और कहा यह कश्ती चंद मसाकीन की थी जो समंदर में बारबरदारी का काम करते थे मैंने चाहा कि उसको ऐब दार बना दूँ कि उनके पीछे एक बादशाह था जो हर कश्ती को ग़स्ब कर लिया करता था।

बच्चे के क़त्ल के वाक़ेया में हज़रत मूसा ने जो महसूस किया वह यह था कि मूसा ने कहा कि आप ने एक पाकीज़ा नफ़्स को बग़ैर किसी नफ़्स के क़त्ल कर दिया है यह बड़ी अजीब सी बात है। (सूरए कहफ़ आयत 74)

लेकिन हज़रत मूसा के रहनुमा ने इस वाक़ेया की एक और सूरत पेश की।

और यह बच्चा उसके माँ बाप मोमिन थे और मुझे ख़ौफ़ मालूम हुआ कि यह बड़ा होकर सरकशी और कुफ्र की बुनियाद पर उन पर सख़्तियाँ करेगा तो मैंने चाहा कि उनका परवरदिगार उन्हे उसके बदले में ऐसा फ़रज़न्द दे दे जो पाकीज़गी में उससे बेहतर हो और सिल ए रहम में भी। (सूरए कहफ़ आयत 80,81)

दीवार खड़ी करने को वाक़ेया में भी हज़रत मूसा का तसव्वुर उनके रहनुमा के तसव्वुर से मुख़्तलिफ़ था।

इसके आख़िर में अल्लामा तबातबाई फ़रमाते हैं: पस उन आयात में तावील से से मुराद हर चीज़ की बाज़ गश्त उसकी हक़ीक़ी सूरत और उसके असली उनवान की तरफ़ है। 21

यहाँ नुक्ता बहुत क़ाबिल तवज्जो है कि हज़रत मूसा के राहनुमा के कलाम ख़ुद से शुरु किया और इँतेहा ए अम्र ख़ुदा ए तआला के सुपुर्द किया मसलन:

कश्ती के ग़र्क के मामले में कहते है कि फ़अरदतो.... मैंने चाहा कि कश्ती को नुक़सान पहुचाऊँ..। लड़के के क़त्ल के बारे में कहते हैं कि फ़ख़शीना अय युरहेक़ा हुमा ... हमें ख़ौफ़ था कि उसके वालेदैन पर ग़ालिब आ जाये। आख़िर में फ़क़त अल्लाह तबारका व तआला के कलाम को नक़्ल किया है कि फ़अरादा रब्बुका... पस तुम्हारे रब ने चाहा। इस तरह अपने ऊपर से ज़िम्मेदारी की नफ़ी करते हुए कहा कि व मा फ़अलहू अन अमरी... मैने ख़ुद से कोई काम अंजाम नही दिया..। और उन्होने वालेदैन को तख़्त के बुलंद मक़ाम पर जगह दी और सब लोग युसुफ़ के सामने सजदे में गिर पड़े और युसुफ़ ने कहा बाबा यह मेरे उस ख़्वाब की तावील है जिसे मेरे परवरदिगार ने सच कर दिखाया है। (सूर ए युसुफ़ 100)

अल्लामा तबातबाई फ़रमाते हैं: इस आयत में तावील रुजू के मअना में है ता हम यह मिसाल का मुमस्सिल (जिसकी मिसाल दी गई है) से रुजू है। अज़ीज़े मिस्र का ख़्वाब, हज़रत युसुफ़ के हमराह क़ैदियों का ख़्वाब और इस सूरह की दीगर आयात उन तमाम मवारिद में तावील यानी वाक़ेईयत व हक़ीक़त की सूरत है जो ख़्वाब में पेश की गई है और मिसाल के तौर पर है। यह मिसाल इस सूरत में एक पोशिदा हक़ीक़त की हिकायत कर रही है।22

आख़िर में नतीजा निकालते हुए फ़रमाते हैं:

तावील इस मअना में आयाते मुताशाबेह से मख़्सूस नही है। तावील मफ़ाहीम (मआनी ए ज़ेहनिया) में से नही है जो अल्फ़ाज़ व इबारात का मदलूल हो बल्कि उमूर ख़ारेजी में है कि जो ऐनियत रखते हैं। 23 अलबत्ता अल्लामा का मक़सूद ख़ारेजी मिसदाक़ नही बल्कि हक़ीक़त व वाक़ेईत है जो कलाम के हदफ़ को तशकील देती है और उसका तहक़्क़ुक़ ऐनी तौर पर है फ़क़त वहम या ऐतेबारे महज़ नही है। हज़रत मूसा के साथ कलाम में तग़य्युर मुम्किन है। असरारे आलम से आहिस्ता आहिस्ता आगाह करने के लिये हुआ और यह कि आलमे आफ़रिनिश के निज़ाम पर हाकिम मसलहतें तमाम की तमाम इराद ए मशीयते इलाही के ताबेअ हैं। इसी को सुन्नते इलाही कहते हैं जो निज़ामे ख़िलक़त में जारी व सारी है।

و لن تجد لسنۃ اللہ تبدیلا (سورہ فتح آیت ۲۳)

अनुवाद: और अल्लाह की सुन्नत में हरगिज़ तब्दिली न पाओगे।

अलबत्ता अल्लामा तबातबाई का यह नज़रिया मौरिदे तंक़ीद वाक़े हुआ है जिसका ख़ुलासा यह है कि न तो मुतशाबेह की तावील और न ही आयत के बातिन का मअना कोई भी तफ़सीर के दायरे से बाहर नही हैं और उनको हक़ीक़ते ऐनी या वाक़ेईयते ख़ारेजी के मअना में क़बूल नही किया जा सकता।

बातिन, ज़ाहिर की निस्बत: क़ुरआनी तावील अल्फ़ाज़ व मआनी के पसे पर्दा एक पोशिदा हक़ीक़त है। वुजूदे बातिनी, वुजूदे ज़ाहिरी के मुक़ाबिल एक इस्तेलाह है और इसका मतलब एक हक़ीक़ी वुजूदे साबित या साबित चीज़ का ज़ाहिरी वुजूद या ज़ायल होने वाली चीज़ के मुक़ाबिल होता है।

अल्लामा क़ुरआने करीम के लिये वुजूदे लफ़्ज़ी व कतबी के अलावा एक और वुजूद के क़ायल हैं जबकि क़ुरआने करीम की हक़ीक़त इसी से वाबस्ता है। यह वुजूद, जिस्म में रुह की मानिन्द है यह वही है कि शबे क़द्र एक ही मक़ाम पर पैग़म्बर (स) पर नाज़िल हुआ। इस आयत शहरो रमज़ान अल लज़ी उनज़िला फ़ीहिल क़ुरआन...(सूरए बक़रा आयत 185 के बारे में फ़रमाते हैं:

क़ुरआने करीम की जिस हक़ीक़त को हम दर्क करते हैं उससे एक जुदा हक़ीक़त भी रखता है और वह तजज़िया व तफ़सील से ख़ाली है।

کتاب احکمت آیاتہ ثم فصلت من لدن حکیم خبیر(سورہ ھود آیت ۱

यहाँ अहकाम (हिकमत) तफ़सील (फ़ुस्सेलत) के मुक़ाबिल है। क़ुरआने करीम दर हक़ीक़त वहदते कामिल की सूरत में था। उसमें जो तफ़ासील नज़र आती हैं वह बाद में उस पर आरिज़ हुई है।

सूरए आराफ़ की 152वी और सूर ए युनुस की 39 वी आयत भी इस अम्र की तरफ़ इशारा हैं कि क़ुरआने करीम का सूरह, सूरह होना, आयत आयत होना या उसका तदरीजी नुज़ूल या आरिज़ और अजज़ा से जुदा एक हक़ीक़त रखती है जो बहुत ही बा अज़मत और लौहे महफ़ूज़ में नापाकों की दस्तरसी से दूर है जैसा कि इलाहल आलमीन का इरशादे क़ुदसी है।

بل ھو قرآن مجید فی لوح محفوظ (سورہ بروج ۲۱،۲۲

अनुवाद: बल्कि यह क़ुरआने मजीद है जो लौहे महफ़ूज़ में (महफ़ू़ज़) है।

فی کتاب مکنون لا یمسہ الا المطھرون (سورہ واقعہ آیت ۷۸،۷۹)

अनुवाद: यह (क़ुरआने करीम) एक पोशिदा किताब में है जिसे पाक व पाकीज़ा इंसानों के अलावा कोई मस नही कर सकता।

यह वही किताबे मुबीन है कि जिसको अरबीयत का लिबास पहनाया गया है।

حم والکتاب المبین انا جعلناہ قرآنا عربیا لعلکم تعقلون و انہ فی ام الکتاب لدینا لعلی حکیم(سورہ زخرف آیت ۱،۴)

अनुवाद: हा मीम उस रौशन किताब की क़सम, बेशक हमने उसे अरबी में क़ुरआन क़रार दिया है ता कि तुम समझ सको और बेशक यह तुम्हारे पास लौहे महफ़ूज़ (उम्मुल किताब) में निहायत बुलंद दर्जा और पुर अज़ हिकमत है।

पस क़ुरआने करीम का अरबी के लिबास से आरास्ता होना और उसमें नज़र आने वाला तजज़िया व तफ़सील, यह अस्ल व हक़ीक़ते क़ुरआन से जुदा है और वह हक़ीक़त इसी तरह अपने बा अज़मत मक़ाम पर मुसतक़र है। इस बारे में अल्लामा तबातबाई फ़रमाते हैं:

किताब मुबीन को क़राअत व अरबीयत का लिबास पहनाया गया है ता कि इंसान तअक़्क़ुल करें वर्ना यह अल्लाह तआला के यहाँ उम्मुल किताब में महफ़ूज़ है यह किताब अली है यानी इंसानी उक़ूल की उस तक दस्त रसी नही और हकीम है यानी उसमें फ़स्ल फ़स्ल या जुज़ जुज़ नही है। पस किताबुल मुबीन, जो आयत में है यह अल क़ुरआनिल अरबियिल मुबीन की अस्ल है। क़ुरआने करीम की मौक़ेईयत अलकिताबिल मकनून में है जबकि तंज़ील उस बाद में हासिल हुई है उम्मुल किताब जिस को हम हक़ीक़तुल किताब कहते हैं। यह मअना कि क़ुरआने करीम, किताबे मुबीन की निस्बत मरतब ए तंज़ील पर है यानी मुलतबिस के लिबास की तरह है, हक़ीक़त की मिसाल की मानिन्द है या ग़रज़ व मक़सूदे कलाम की मिसाल के तौर पर है। 24

3. मुमस्सिल (जिस की मिसाल दी गई हो) की निस्बत मिसाल: कलाम में मिसाल

मक़सूद व मुराद को रौशन करने के लिये लाई जाती है। المثال یوضح المقال  

मिसाल से मतलब बेहतर आशकार होता है। मिसाल अज़हान को क़रीब करने के लिये होती है मिसाल जितनी गहरी होगी मतलब उतना ही रौशन व वाज़ेह हो जाता है। यही सबब है कि क़ुरआने करीम ने इस रविश से ख़ूब इस्तेफ़ादा किया है।

ان اللہ لا یستحی ان یضرب مثلا ما بعوضۃ فما فوقھا

अल्लाह तआला ने बेशक मच्छर या उससे भी छोटी मिसाल देने से नही झिझकता। (सूरह बक़रा आयत 26)

وتلک الامثال نضربھا لعلھم یتفکترون (الحشر ۲۱)

यह मिसालें हम लोगों के लिये इस लिये बयान करते हैं ताकि तफ़क्कुर करें।

ویضرب اللہ الامثال لعلھم یتذکرون (سورہ ابراہیم آیت ۲۵)

अल्लाह तआला लोगों के लिये मिसालें इस लिये बयान फ़रमाता है ताकि शायद उन के लिये याद दहानी हो जाये।

इस बारे में अल्लामा तबातबाई फ़रमाते हैं: मिसाल अगरचे मौरिदे मिसाल पर मुनतबिक़ नही होती ता हम उससे हिकायत करती है क्योकि मौरिदे मिसाल की वज़ईयत और हालत को रौशन करती है। तमाम आयाते क़ुरआनी में क़ुरआनी अवामिर व नवाही और ज़वाहिरे क़ुरआन में तावील भी उसी तरह है जो उसकी कामिल हक़ीक़त को बयान नही करती। अगर चे उसी कलाम के गोशा व किनार में हक़ीक़त भी जलवा नुमाई कर रही होती है।
स्रोत:

बसाएरुद दरजात सफ़्फ़ार पेज 195 तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज 48 तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज 49 तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज 46 तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज 21 तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज 428 तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज 21 तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज 26 तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज 16 तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज 53 मुझे सैराब करो तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज 53 तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज 376 सूरए आले इमरान आयत 7, सूरए निसा आयत 59, सूरए आराफ़ आयत 53, सूरए युनुस आयत 39, सूरए युसुफ़ आयत 21,6, 36, 37, 45, 44, 1, 100, 10,

सूरए बनी इसराईल आयत 35, सूरए कहफ़ आयत 78, 82
तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज 49 तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज 137 तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज 24,33 तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज 23 तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज 96 तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज 23,24 तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज 24,25 तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज 25 तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज 14,16 तफ़सीरे अल मीज़ान जिल्द 3 पेज 14,16

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