पैग़म़्बरे इस्लाम के पौत्र और उनके उत्तराधिकारी हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम का शुभ जन्म दिवस है। यह वह महान हस्ती हैं जिन्होंने एक हज़ार साल से अधिक समय पहले ईरान की धरती पर क़दम रखे और उनके ईरान आगमन से पूरा देश भाव विभोर हो उठा और हर ओर ख़ुशियों की लहर दौड़ गई। हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम का रौज़ा ईरान के मशहद नगर में स्थित है जो आज भी हर समय श्रद्धालुओं से भरा रहता है। यह शहर ईरान के पूर्वोत्तरी भाग में स्थित है।
इस समय हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम के रौज़े पर श्रद्धालुओं की भीड़ देख कर इतिहासकार यह कहते हैं कि यह वही दृष्य है जो ईरान के नीशापूर शहर से हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम के कारवां के गुज़रते समय उत्पन्न हो गया था। इस शहर के लोग कई दिन पहले से ही इमाम के स्वागत के लिए जमा हो गए गए थे। जब इमाम का कारवां क़रीब पहुंचा तो श्रद्धालुओं का ठांठें मारता समंदर दहाड़ें मार कर रोने लगा लोग भाव विभोर हो गए थे। हर व्यक्ति अपने तरीक़े से अपनी श्रद्धा का प्रदर्शन कर रहा था। स्वागत के लिए इतनी बड़ी भीड़ एकत्रित हो गई थी कि हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम के कारवां को रुकना पड़ा। सारी निगाहें इमाम के चेहरे पर टिकी हुई थीं और सब के सब इमाम की आवाज़ सुनने के लिए व्याकुल थे। हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम ने लोगों की इच्छा को देखते हुए कुछ बातें बयान कीं।
हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम ने एक हदीस बयान की जिसमें ईश्वर ने पैग़म्बरे इस्लाम से कहा है कि ला इलाहा इल्लल्लाह का कलेमा मेरा दुर्ग है, जो भी इस दुर्ग में प्रवेश कर ले वह मेरे प्रकोप से सुरक्षित हो गया।
यह हदीस बयान करने के बाद हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम ने कहा कि लेकिन इसकी कुछ शर्तें हैं और इन शर्तों में से एक में हूं। इस हदीस को बयान करके इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम ने यह बता दिया कि इस्लामी समाज के नेतृत्व में पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों की भूमिका ध्रुवीय है महत्व रखते हैं और इन परिजनों में वह स्वयं भी शामिल हैं।
हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम का जन्म वर्ष 148 हिजरी क़मरी बराबर 765 ईसवी में मदीना नगर में हुआ। पिता इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने उनका पालन पोषण किया और उन्हें इस्लामी समाज के नेतृत्व के ईश्वरीय दायित्व अर्थात इमामत के लिए तैयार किया। हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम ज्ञान और गुणों का स्रोत थे। उनकी वाणी और उनके व्यवहार से ईश्वर के प्रति समर्पण और संतुष्टि झलकती थी। इसी लिए उन्हें रज़ा की उपाधि मिली। रज़ा का अर्थ वह व्यक्ति है जो ईश्वर की तरफ से मिलने वाली हर चीज़ और पेश आने वाली हर स्थिति पर ख़ुश और संतुष्ट रहता है। हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम ने लगभग 20 साल तक इमामत का पदभार संभाला। बीस साल की इस अवधि का अधिकतर भाग मदीना नगर में गुज़ारा जबकि अंतिम तीन साल ख़ुरासन के मर्व नगर में बीते। अब्बासी वंश के शासक मामून ने उन्हें मदीना नगर छोड़ने पर विवश कर दिया और वह मजबूर होकर अब्बासी शासकों की राजधानी मर्व नगर गए।
उस काल में मर्व नगर ज्ञान का केन्द्र माना जाता था। हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम ने इस स्थिति का सदुपयोग करते हुए इस शहर में ज्ञान का एक व्यापक मिशन शुरू कर दिया। मामून ने राजनैतिक स्वार्थों के लिए स्वयं को हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम के क़रीब करने का मन बनाया लेकिन साथ ही उसका यह प्रयास भी रहता था कि ज्ञान के क्षेत्र में हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम को नीचा दिखाए अतः बड़े ज्ञानियों से उनकी बहसें करवाता था किंतु प्रतिवाद के इन मुक़ाबलों में हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम का ज्ञान इस प्रकार प्रकाशमान होता कि सब चकित रह जाते और सभी लोग बहुत प्रभावित होते थे। आज की चर्चा में हम हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम की प्रतिवाद शैली के कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं के बारे में बताएंगे।
इस्लाम ऐसा धर्म है जो नए नए प्रश्नों और जिज्ञासा का स्वागत करता है। ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी व्यक्ति ने बारह इमामों में से किसी से कोई सवाल पूछा हो और उसे जवाब न मिला हो। हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम भी जो इस्लामी समाज का नेतृत्व कर रहे थे हमेशा सवालों के जवाब देते थे और प्रतिवाद के मुक़ाबलों में शामिल होते थे। हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम की बहसों और प्रतिवाद से इस्लामी संस्कृति के प्रसार में बड़ी तेज़ी आई। इन बहसों के माध्यम से हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम लोगों का मार्गदर्शन करते और धर्म के विशुद्ध सिद्धांतों का व्याख्यान करते थे अपनी श्रेष्ठता दर्शाना उनकी दृष्टि में कभी भी नहीं होता था। ठोस तर्कों के आधार पर वे इस्लाम धर्म की आस्थाओं को प्रमाणित करते थे क्योंकि ठोस तर्कों से ही विचारों में पाए जाने वाले विरोधाभासों को दूर किया जा सकता है। हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम कहते थे कि यदि लोगों को हमारी बात और संदेश की सुंदरता और मिठास का आभास हो जाए तो वे निश्चित रूप से हमारा अनुसारण करने लगेंगे। शायद वाद प्रतिवाद और तर्कों की इन्हीं बैठकों का असर था कि बहुत से शत्रु भी हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम के श्रद्धालु बन बए।
प्रतिवाद की कला में पूर्ण दक्षता रखने वाले हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम जब बहस शुरू करते थे तो बहस के विषय की सभी आयामों का ध्यान रखते थे। उस समय की सांस्कृतिक परिस्थितियों के अनुसार शब्दों का चयन करते थे तथा बहस में शामिल व्यक्ति की क्षमता के स्तर के अनुसार तर्क वितर्क करते थे। दूसरे धर्म के मानने वालों से बहसों में अनेक अवसरों पर एसा भी होता था कि हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम उसी धर्म के सिद्धांतों और मान्यताओं को आधार बनाकर अपना तर्क पेश करते थे। जब ईसाइयों से बहस होती थी तो हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम इंजील की बातों को और यहूदियों से बहस में तौरैत की शिक्षाओं को आधार बनाकर अपने तर्क पेश करते थे।
हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम के ज्ञान की स्तर और उसकी ऊंचाई अतुल्य थी किंतु इसके बावजूद वे बहस में शामिल प्रतिवादी को कभी अपमानित नहीं करते थे बल्कि यदि इन बहसों की समीक्षा की जाए तो यह तथ्य सामने आएगा कि वे अपने प्रतिवादी का बहुत सम्मान करते थे। यदि बहस में वह निरुत्तर हो जाता और घबरा जाता तो उसकी सहायता भी करते थे या कोई ऐसा सवाल पेश करते थे जिससे बहस एक नतीजे पर पहुंच जाए। कभी अपने प्रतिवादी के सवाल पर उसे टोकते थे कि यदि तुम यह सवाल करोगे तो यह तुम्हारे दावे का विरोध होगा।
हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम की बहसों का जायज़ा लेने से यह बात साफ हो जाती है कि वह अपने प्रतिवादी के लिए कठोर शब्दों का प्रयोग करने से भी बचते थे। इमरान साबी नाम का एक व्यक्ति था जिसका यह मानना था कि ईश्वर का अस्तित्व नहीं है। हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम से इमरान साबी की बहस हुई और ठोस तर्कों के सामने इमरान साबी निरुत्तर हो गया और उसने मान लिया कि ईश्वर का अस्तित्व है और उसने कलमा पढ़ लिया। बहस के दौरान हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम अपने प्रतिवादी को इमरान कहकर संबोधित करते रहे जिसके कारण अपनाइयत का माहौल बन गया। बहस के दौरान हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम ने इमरान साबी के सवाल का जवाब देने के बाद बड़े प्रेम से उससे पूछा कि क्या तुम समझ गए? इस स्वभाव और बर्ताव को देखकर इमरान भी पूरी बहस के दौरान विनम्र रहा और सम्मानपूर्ण स्वर में बात की। वह जवाब में जी मेरे सरदार, हां मेरे मालिक जैसे शब्दों का प्रयोग करता रहा।
बहस का लक्ष्य सत्य को सामने लाना होना चाहिए। यह लक्ष्य तभी पूरा होगा जब बहस हर प्रकार की शत्रुता और हठ से बचकर की जाए। हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम ने अपनी हर बहस में शिष्टाचार का बड़ा ध्यान रखा और कभी अपने प्रतिवादी के लिए उसका मज़ाक़ उड़ाने वाले शब्द और वाक्य का प्रयोग नहीं किया। वह किसी भी व्यक्तित्व पर टिप्पणी करने से बचते थे।
हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम की बहसों की बरकतें इस्लामी जगत को हासिल हुईं। इन बहसों से इस्लाम का स्वतंत्रता प्रेम का सिद्धांत स्पष्ट हुआ। इन बहसों में हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम ने साबित किया कि शत्रुओं के आरोपों के विपरीत इस्लाम धर्म तलवार के ज़ोर पर लोगों पर थोपा नहीं गया है बल्कि इस्लाम धर्म के विरोधीयों को इमाम अपनी बात बयान करने का अवसर देते थे। चाहे वे इस्लाम और एकेश्वरवाद के विरुद्ध ही कोई बात क्यों न कह रहा हो।
हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम की बहसों का एक और प्रतिफल यह था कि उन्होने इस्लामी ज्ञान के प्रसार का रास्ता इन्हीं बहसों में खोज लिया और विरोधियों को तर्क वितर्क से चुप करा देने की शैली पर काम किया। भ्रामक विचारों की जो इस्लामी वातावरण में घुस गए थे रोकथाम के लिए हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम ने अपनी बहसों से लाभ उठाया। इस बीच पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों की महानता भी साबित हुई।
हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम ने इन्हीं बहसों के माध्यम से कट्टर विरोधियों को इतना बदल दिया कि वे चाहने वाले श्रद्धालु बन गए और इस्लाम धर्म का बचाव करने लगे। हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम की बहसें सार्थक संवाद का अच्छा आदर्श हैं और यह बताती हैं कि बहस को यदि अच्छे और प्रभावी नतीजे तक पहुंचाना है तो शिष्टाचार को दृष्टिगत रखना चाहिए।
source : irib.ir