पालन-पोषण की परिभाषा के दृष्टिगत हर तरह के लालन पालन को पालन-पोषण नहीं कहा जा सकता। यूं तो जानवर भी अपने बच्चों का लालन पालन करते हैं, उनकी ज़रूरतों की आपूर्ति करते हैं और उन्हें सुरक्षा प्रदान करते हैं। इसलिए मां-बाप द्वारा अपने बच्चों की भौतिक आवश्यकताओं की आपूर्ति और उनके लालन पालन को ही पालन-पोषण नहीं कहा जा सकता, बल्कि इसके अलावा कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जिनके आधार पर लालन पालन को पालन-पोषण का नाम दिया जा सकता है। जिससे मानव का पालन-पोषण जानवरों के लालन पालन से भिन्न होता है। आप अपने चारों ओर के वातावरण पर ध्यान देंगे तो पायेंगे कि जानवर अपने बच्चों को जन्म देने के बाद उनके खाने पीने या दाने पानी की व्यवस्था करते हैं। गर्मी सर्दी में उनकी देखभाल करते हैं और शत्रुओं से उन्हें सुरक्षा प्रदान करते हैं, यहां तक कि उनके बच्चे शारीरिक रूप से इतने बलवान हो जाएं कि स्वयं अपने जीवन की आवश्यकताओं की आपूर्ति कर सकें।
इसलिए जैविक माता-पिता द्वारा बच्चों को जन्म दे देना और उनकी भौतिक ज़रूरतों की आपूर्ति को ही पालन-पोषण नहीं कहा जा सकता। जैसा कि पालन-पोषण की परिभाषा में उल्लेख किया गया था कि पालन-पोषण से तात्पर्य भौतिक आवश्यकताओं के अलावा बच्चों की आध्यात्मिक ज़रूरतों की आपूर्ति यानी उन्हें संस्कारित बनाना भी मां-बाप का कर्तव्य है। इस बिंदु के दृष्टिगत माता-पिता द्वारा अपने बच्चों के सही लालन पालन और उनकी देखभाल के साथ साथ व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों के स्थानांतरण को ही पालन-पोषण का नाम दिया जा सकता है।
इसी प्रकार कहा जाता है कि बच्चों का सही पालन-पोषण किया जाना चाहिए और उन्हें अच्छे संस्कार सिखाए जाने चाहिएं। इसका मतलब यह निकलता है कि पालन-पोषण और संस्कार की कम से कम दो क़िस्में हैं, यानी सही पालन-पोषण और ग़लत पालन-पोषण। इसी प्रकार अच्छे संस्कार और बुरे संस्कार। इसी के मद्देनज़र जब हम अच्छी संतान और बुरी संतान कहते हैं तो अच्छे मां-बाप और बुरे मां-बाप भी कह सकते हैं। मां-बाप अगर अपने बच्चों का सही पालन-पोषण करने में अपना कर्तव्य निभाते हैं और उन्हें संस्कारित बनाते हैं तो उन्हें अच्छा मां-बाप कहा जाएगा। लेकिन अगर वे अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं कर रहे हैं और बच्चों के साथ उनका बर्ताव वैसा नहीं है जैसा होना चाहिए तो उन्हें अच्छा मां-बाप नहीं कहा जा सकता।
अब यहां यह सवाल उठता है कि मां-बाप किस प्रकार अपने बच्चों को संस्कारित बनाएं और किस तरह उन तक व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों को स्थानांतरित करें?
इस सवाल का उत्तर देने से पहले यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि पालन पोषण से तात्पर्य मानवीय प्रतिभाओं को कुशल बनाना है जिसमें मानसिक एवं शारीरिक दोनों प्रकार की प्रतिभाएं शामिल होती हैं। पारम्परिक रूप से बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के विशेषज्ञों का मानना है कि नैतिक सिद्धांतों की बच्चों में ऐसी आदत डाल दी जानी चाहिए कि वह एक प्रकार से उनके अस्तित्व का भाग बन जाए और मानवीय गुणों के रूप में ज़ाहिर हो। उनका मानना है कि अगर शिक्षा-दीक्षा द्वारा नैतिक गुण इंसान के स्वभाव में शामिल नहीं हुए हैं तो वे स्थायी नहीं हैं और प्रतिकूल परिस्थितियों में समाप्त हो जाते हैं। उदाहरण स्वरूप बच्चों को सच्चाई का महत्व इस तरह बताया जाए और उनमें सच्च बोलने की ऐसी आदत डाल दी जाए कि वे किसी भी परिस्थिति में झूठ न बोलें और असत्य का सहारा न लें।
हालांकि इस संदर्भ में पश्चिमी समाजशास्त्रियों और बाल विशेषज्ञों का दृषिट्कोण कुछ भिन्न है। उनका मानना है कि पालन पोषण का मतलब बच्चों की देखभाल के अलावा केवल उनकी तार्किक शक्ति और नैतिक संकल्प को मज़बूत बनाना है। लेकिन इंसान को किसी भी चीज़ का आदी नहीं बनाना चाहिए। इसलिए कि आदत अच्छी हो या बुरी वह बुरी ही है। इसलिए कि इंसान, आदत का ग़ुलाम हो जाता है और उसके बाद उसके पास अपनी आदत के अनुसार क़दम उठाने के स्थान पर कोई और विकल्प नहीं बचता है। अब वह जो कोई भी काम अंजाम देता है इसलिए नहीं कि वह काम स्वयं, बुद्धि या नैतिकता के अनुसार अच्छा या बुरा है, बल्कि वह अपनी आदत के हाथों ऐसा करने पर मजबूर है। और अगर कभी वह अपनी आदत के अनुसार कोई काम न कर सके तो इसे दुख होता है और मन भारी रहता है। दूसरी ओर आदत किसी भी काम के नैतिक मूल्य को समाप्त कर देती है। 18वीं शताब्दी के प्रसिद्ध दार्शनिक जैक रूसो ने अपनी किताब ऐमील ऑर ट्रीटीज़ ऑफ़ एजुकेशन (Émile, Or Treatise on Education) में लिखा है कि ऐमील को इस बात की आदत डालना पड़ेगी कि वह किसी चीज़ आदी न बने। यह दृष्टिकोण उस पारम्परिक दृष्टिकोण के बिल्कुल विपरीत है कि जिसमें इस बात पर बल दिया गया था कि बच्चों का पालन पोषण इस प्रकार से किया जाए कि वे अच्छे कार्यों के आदी हो जाएं, इस तरह से की सद्गुण उनके स्वभाव का एक भाग बन जाएं। लेकिन रूसो और अन्य पश्चिमी समाजशास्त्री यहां तक बल देते हैं कि इंसान को किसी भी काम की आदत से बचने के लिए उसके विपरीत कामों को भी अंजाम देना चाहिए, यद्यपि वह काम अच्छा ही क्यों न हो।
वास्तव में पश्चिमी समाजशास्त्री और दार्शनिक बच्चों के पालन पोषण में नैतिक स्वतंत्रता को बहुत महत्व देते हैं। उनका मानना है कि हमें चाहिए कि हम ऐसे वातावरण में अपने बच्चों का पालन पोषण करें कि जहां वे बुद्धि और नैतिक संकल्प के आधार पर निर्णय ले सकें और कोई दूसरी चीज़ उनके निर्णयों को प्रभावित न करे यहां तक कि आदत।
इस संदर्भ में अगर हम वर्तमान पश्चिमी समाज पर नज़र डालें तो यह बात समझना इतना कठिन नहीं होगा कि क्यों पश्चिम में बड़ी आसानी से किसी भी धार्मिक आस्था को निशाना बनाया या उसका मज़ाक़ उड़ाया जा सकता है, और पश्चिमी समाज को अपनी निरपेक्ष स्वतंत्रता से इतना अधिक लगाव क्यों है।?
रूसो पारम्परिक पालन पोषण शैली पर व्यंग्य करते हुए कहता है कि इस माहौल में बच्चा एक दास के रूप में जन्म लेता है और दास के रूप में ही इस दुनिया से चला जाता है। बच्चे के पालन पोषण में सबसे महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि उसका एक तार्किक व्यक्ति के रूप में विकास किया जाए। किसी भी बच्चे के प्रशिक्षण में सबसे अहम भूमिका तर्क की होनी चाहिए। अगर बच्चे तर्क देना सीख लें तो फिर उन्हें शिक्षित करने की कोई आवश्यकता नहीं होगी।
अब प्रश्न यह उठता है कि पालन-पोषण या बच्चों को संस्कारित बनाने का सही समय किया है? अर्थात किस आयु से उनकी तालीमो तरबियत शुरू करें? इस संबंध में विशेषज्ञों के बीच मतभेद है।
इस संदर्भ में मौजूद महत्वपूर्ण दृष्टिकोणों को तीन भागों में बांटा जा सकता है।
पहला दृष्टिकोण वह आम धारणा है कि जो विश्व भर में शताब्दियों से पालन पोषण एवं शिक्षा-दीक्षा के लिए प्रचलित रही है। इस दृष्टिकोण के मुताबिक़, बच्चे के जन्म के बाद से उसके व्यस्क होने तक मां-बाप का कर्तव्य है कि वे अपनी संतान को पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्य एवं संस्कार सिखाएं। उनके लिए अच्छी शिक्षा का प्रबंध करें।
आम धारणा यह है कि शिशु के जन्म से उसके व्यस्क होने तक उसका पालन-पोषण मां-बाप की ज़िम्मेदारी है। कुछ अन्य लोगों का मानना है कि जब बच्चा समझदार हो जाए और अच्छाई व बुराई के बीच अंतर करने लगे तो उस समय उसके पालन-पोषण अर्थात उसे संस्कारित बनाने की प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए।
source : irib