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Friday 27th of December 2024
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क़ुरआन हमसे नाराज़ है, कहीं यह हक़ीक़त तो नहीं?

अगर हम मुश्किलों और कठिनाईयों में फंसे हैं, अगर हम परेशान हैं, अगर हम पिछड़े हुए हैं, अगर हम कमज़ोर हैं, अगर हम अपने जीवन में ख़ुश नहीं हैं, अगर हमारा जीवन अजीरन बना हुआ है तो उसकी केवल एक वजह है, वह है क़ुरआन से दूरी, क़ुरआन से दूरी और क़ुरआन से दूरी।
 क़ुरआन हमसे नाराज़ है, कहीं यह हक़ीक़त तो नहीं?

 अगर हम मुश्किलों और कठिनाईयों में फंसे हैं, अगर हम परेशान हैं, अगर हम पिछड़े हुए हैं, अगर हम कमज़ोर हैं, अगर हम अपने जीवन में ख़ुश नहीं हैं, अगर हमारा जीवन अजीरन बना हुआ है तो उसकी केवल एक वजह है, वह है क़ुरआन से दूरी, क़ुरआन से दूरी और क़ुरआन से दूरी।


alt وَقَالَ الرَّسُولُ یَا رَبِّ إِنَّ قَوْمِی اتَّخَذُوا هَذَا الْقُرْآنَ مَهْجُورًا
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम ने कहा- पालने वाले! मेरी क़ौम नें इस क़ुरआन को अकेला छोड़ दिया है और इससे दूर हो गये हैं। (सूरए फ़ुरक़ान/ 30) इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं- हम नमाज़ में इस लिये क़ुरआन पढ़ते हैं ताकि क़ुरआन से हम दूर न हो जाएं (क़ुरआन महजूर न हो जाए और क़ुरआन अकेला न रह जाए) हदीसों में मिलता है कि रोज़ाना क़ुरआन की 50 आयतें पढ़ा करो और यह मत सोचा करो कि पूरे सूरे को आख़िर तक पढ़ना है बल्कि धीरे धीरे धीरज के साथ क़ुरआन पढ़ो और उसकी तिलावत से अपने दिल को साफ़ करो और जब भी अन्धेरी रात की तरह फ़ितने आकर तुम्हे घेर लें तो क़ुरआन का सहारा लो और उसकी पनाह में आ जाओ।
क़ुरआन से दूर होने और उसका हक़ अदा न करने के बारे में कुछ बड़े उल्मा का ऐतराफ़
1. मुल्ला सदरा जो एक बड़े इस्लामी फ़्लास्फ़र थे, सूरए वाक़ेआ की अपनी तफ़सीर में कहते हैं- मैंने बहुत से हकीमों की किताबों को पढ़ा, इतना पढ़ा कि मैं सोचने लगा कि अब मैं कुछ बन गया हूँ, लेकिन जब मुझे ज़रा होश आया तो मैंने अपने को वास्तविक और असली ज्ञान से बहुत ख़ाली देखा। अपनी उम्र के अंत में मैं इस सोच में पड़ गया कि अब मुझे क़ुरआन की आयतों और मोहम्मद (स.) और आले मोहम्मद (स.) की हदीसों में सोच विचार करना चाहिये। मुझे इस बात का विश्वास हो गया था कि अब तक जो कुछ मैंने किया है सब बेकार था इस लिये कि मैं अब तक उजाले में खड़े होने के बजाए साए में खड़ा था। यह सोच कर मेरी जान में आग लग गयी फिर अल्लाह की कृपा (रहमत) ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे क़ुरआन के रहस्यों से परिचित कराया। फिर उसके बाद मैं क़ुरआन की तफ़सीर और उसमें सोच विचार करना शुरू किया....(सूरए वाक़ेआ की तफ़सीर का मुक़द्देमा)
2. अल्लामा फ़ैज़ काशानी (र.ह.) कहते हैं- मैंने बहुत सी किताबें लिखीं, बहुत तहक़ीक़ (अनुसंधान) की लेकिन कहीं भी मुझे अपने दर्दों की दवा नहीं मिली और अपनी प्यास बुझाने के लिये कहीं पानी नहीं मिला मैं अपने लिये डरने लगा और अल्लाह की तरफ़ भागा यहां तक कि अल्लाह ने क़ुरआन औऱ हदीस में सोच विचार करने के साथ मुझे सही रास्ते पर लगाया। (किताब: इन्साफ़) 3. आयतुल्लाह ख़ुमैनी (र.ह) इस बात पर अफ़सोस जताते हुए कि उन्होंने अपनी सारी उम्र क़ुरआन के रास्ते में नहीं गुज़ारी, मदरसों और यूनिवर्सिटियों को आदेश देते हैं कि चाहे जिस फ़ील्ड के भी हों क़ुरआन को पूरी तरह से अपना असली हदफ़ बना कर रखें इसलिये कि कहीं ऐसा न हो कि उम्र के अंत में जा कर उन्हें अपनी जवानी के दिनों पर पछतावा हो। (सहीफ़ए नूर जिल्द 20, पेज 20) हमनें जिन उल्मा की बातें यहाँ लिखीं हैं, यह इस्लाम के बड़े और दिग्गज लोग थे जिन्होंने अपने पूरे जीवन को इस्लाम और क़ुरआन के रास्ते में बताया लेकिन फिर भी उन लोगों को यह एहसास है कि उन्होंने क़ुरआन के लिये कुछ नहीं किया अब सोचने की बात तो यह है कि हम कहाँ खड़े हैं और क़ुरआन के लिये हमनें अभी तक क्या किया है और क्या कर रहें हैं? आयत में महजूर का शब्द आया है जो हिज्र से बना है इसका मतलब है अपने काम, बदन, ज़बान और दिल से किसी चीज़ से अलग होना। एक आदमी और इस आसमानी किताब के बीच एक ऐसा गहरा सम्बंध होना चाहिये जो हमेशा रहे। महजूर होने का शब्द वहाँ इस्तेमाल होता है जहाँ दो चीज़ों में आपस में कोई सम्बंध नहीं रह जाता। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम से अपनी क़ौम की शिकायत करते हुए कहते हैं कि ऐ अल्लाह! मेरी क़ौम ने इस क़ुरआन से अपना नाता तोड़ लिया है, क़ुरआन कुछ कहता है और यह कुछ करते हैं, क़ुरआन कहीं ले कर जाना चाहता है और यह कहीं और जाना चाहते हैं, क़ुरआन किसी चीज़ को अच्छा कहता है और यह कोई और चीज़ अच्छी जानते हैं। क़ुरआन कुछ बातों से मना करता है और यह पूरे शौक़ से उनको करते हैं। क़ुरआन ईमान वालों की जो निशानियाँ बताता है वह इनके अन्दर नहीं दिखाई देतीं लेकिन फिर भी अपने को मोमिन कह कर ख़ुश होते हैं। बात इस्लाम की करते हैं और आदतें सब वह हैं जो इस्लाम के दुश्मनों में होती हैं कहते हैं क़ुरआन हमारी मज़हबी किताब है लेकिन कभी इससे कुछ पाने के लिये इसको नहीं पढ़ते। क़ुरआन को हमसे क्या शिकायत है और क्यों? क़ुरआन को इन हज़ारों बल्कि लाखों लोगों से शिकायत है जो क़ुरआन को केवल ज़बान तक लाते हैं और अपने दिल में उसे नहीं उतारते, एक क़ुरआन को बहुत ही अच्छी आवाज़ में पढ़ता है, ऐसा लगता है जैसे क़ुरआन पढ़ने से अपनी आवाज़ की सुन्दरता और अपने गले की कला को दिखाना चाहता है। एक है जो क़ुरआन को अपने बाज़ू पर बाँधता है जिससे उसे कोई नुक़सान न पहुँचे और हर मुश्किल से दूर रहे। कोई आता है जो क़ुरआन को अपने गले में लटकाता है कि इस इच्छा में कि उसकी ज़िन्दगी में कोई कठिनायी न हो। जब कभी कोई मर जाता है तो फ़ौरन क़ुरआन के कुछ सूरों को पढ़ के लोगों को बताया जाता है कि आओ कोई मर गया है..... यहाँ तक कि अब तो ऐसा हो गया है कि अगर मोहल्ले में कहीं से क़ुरआन की आवाज़ भी आ जाती है तो लोग पूछते हैं कि अरे भाई कोई मर गया है क्या? जब कोई किसी सफ़र पर जाना चाहता है तो कोई उसके घर का बड़ा, क़ुरआन ले कर आगे बढ़ता है और उसके नीचे से उस जाने वाले को निकालता है। क़ुरआन केवल अल्लाह से सवाब लेने के लिये पढ़ा जाता है या फिर किसी मर जाने वाले की क़ब्र तक सवाब भेजने के लिये उसे उठाया जाता है। किसी को होड़ होती है रमज़ान के महीने में क़ुरआन पढ़ने की शुरू से आख़िर तक सारा क़ुरआन कई बार पढ़ डालता है और ख़ुश हो कर बैठ जाता है, जबकि एक शब्द भी उसका नहीं समझता और ना ही उसको पता होता है कि उसने क्या पढ़ा है, अगर कभी किसी ने नया घर, नयी गाड़ी ख़रीदी तो उसको शुभ बनाने के लिये क़ुरआन ले जा कर उसमें रख देते हैं, ताकि घर या गाड़ी की अशुभता उससे दूर हो जाए। कोई अपने घर, मस्जिद या किसी धार्मिक जगह को क़ुरआन की अलग अलग तरीक़े से लिखी गयी आयतों द्वारा सजाता है और उस पर गर्व महसूस करता है। शादियों में जहाँ सैकड़ों और हज़ारों तरह की बुराईयां हो रही होती हैं, नाच गाने की आवाज़ से पूरा मैरेज हाल गूँज रहा होता है वहीं स्टेज पर जा कर क़ुरआन सजा देते हैं ताकि धर्म से भी अपना नाता न टूटे। निकाह से पहले क़ुरआन की कुछ आयतें पढ़ दी जातीं हैं या फिर जहेज़ में सबसे ऊपर क़ुरआन सजाते हैं या बारात के वापस जाते समय दूल्हा और दुल्हन को उसके नीचे से निकाल देते हैं ताकि कोई दुर्घटना न घटे। हमारे यहाँ कुल मिला कर जो क़ुरआन का इस्तेमाल है वह यही है और बस। जबकि क़रआन ज़िन्दगी की किताब है, क़ुरआन ज़िन्दगी के गुण सिखाने के लिये है, क़ुरआन भटकते हुओं को रास्ते पर लाने के लिये है, क़ुरआन में हमारे सारे दर्दों की दवा है, क़ुरआन हमारी सारी मुश्किलों का समाधान है। अगर हम मुश्किलों और कठिनाईयों में फंसे हैं, अगर हम परेशान हैं, अगर हम पिछड़े हुए हैं, अगर हम कमज़ोर हैं, अगर हम अपने जीवन में ख़ुश नहीं हैं, अगर हमारा जीवन अजीरन बना हुआ है तो उसकी केवल एक वजह है, वह है क़ुरआन से दूरी, क़ुरआन से दूरी और क़ुरआन से दूरी।


source : wilayat.in
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