बचपन में बारहा देखा है कि अगर फ़क़ीर दरवाज़े पर आजाता तो खाने का सवाल करना न भूलता और घर वाले भी फ़राख़ दिली से फ़क़ीर के लिए खाना भेज देते, वह बेचारा इतना भूका होता कि दिया हुआ खाना खड़े खड़े ही चट कर जाता, उधर तो उसकी भूक और दूसरी जानिब यह बेबसी कि एक हाथ पर खाने की पलेट रख कर दूसरे हाथ से रोटी तोड़ कर लुक़मा बनाना और उसको मुँह तक लेजाना दुश्वार मरहला होता था, यह सब बातें हमारे लिए हैरत का सबब बन जातीं जिस में रहम भी पाया जाता, उस बेचारे की यह हालत देखी ना जाती।
लेकिन क्या मालूम था कि इन फ़क़ीरों के पेट भरने का यह अंदाज़ कभी शरीफ़ और मुहज़्ज़ब समाज का स्टेटस और मेयार बन जाएगा और फिर बड़े बड़े मालदार और साहिबे हैसियत लोग न ख़ुद फक़ीरों वाले अंदाज़ में खाना खाना पसंद करेंगे बल्कि दूसरों को भी इस काम के लिए मजबूर करेंगे, वक़्त वक़्त की बात होती है, फ़ैशन और स्टेटस के नाम पर सारी क़द्रें बदल चुकी हैं, न तहज़ीब बाक़ी बची है और न तमददुन, तहज़ीब व तमददुन की बात करने वालों को पिछड़ा हुआ समझा जाता है, लोगों ने ख़ुद ही जुनूँ का नाम खि़रद रख लिया है, अकसर समाज इस तूफ़ान में पूरी तरह अपना नामो निशान खो चुके हैं, लेकिन हिन्दुस्तानी समाज इस सेलाब से अपने आप को बचाने के लिए हाथ पाँव मार रहा है मगर मग़रबी तूफ़ान बढ़ता ही जा रहा है, हमारी सोच कितनी बदल चुकी है, चाहे हम कितने ही परेशान होजाऐं मगर मग़रबी कलचर की तक़लीद ज़रुर करेंगे? अब खड़े होकर खाना खाने ही को ले लीजिए, हमारा हिन्दुस्तानी कलचर इस बात की इजाज़त नहीं देता कि खड़े होकर खाना खाया जाए क्योंकि यहाँ खाने में ऐसी चीज़ें नहीं होतीं जिन्हें एक हाथ पर पलेट रख कर खड़े होकर खाया जा सके, अब जिन लोगो ने यूरोप के समाज में खड़ा डिनर देखा तो उन्होंने इसमें झांकने की ज़हमत भी न की और उसकी तक़लीद शूरु करदी, यूरोपीयन डिनर में खाने की ऐसी चीज़ें होती हैं जिन्हें वह लोग खडे होकर भी खा सकते हैं और यह मुश्किलात पेश नहीं आऐंगी जो हिन्दुस्तानी कलचर में आती हैं, यहाँ सबसे बड़ा मसला खड़े होकर खाने वाले के साथ एक हाथ से बग़ैर सहारे के लुक़मा बनाने का होता है जबकि यूरोप में ऐसी कोई ज़रुरत नहीं पड़ती वह तो ब्रेड को छुरी से काट कर परोस देते हैं और खाने वाले काँटो से खा लेते हैं लेकिन हिन्दुस्तानी कलचर में खड़े होकर एक हाथ से रोटी का लुक़मा बनाना और उसे मुंह तक ले जाना निहायत ही मुश्किल काम है।
न जाने क्यों हम लोगों में अहसासे कमतरी इतना शदीद पाया जाता है कि हम यूरोप की हर अंधी तक़लीद को भी अपने लिए मेयारी समझ बैठते हैं और उसके मुजि़र असरात पर ग़ौरो फि़क्र तक नहीं करते, यूरोप की हर बात अच्छी नहीं हो सकती और न ही यूरोप का कलचर लायक़े तक़लीद है और ये किसने कह दिया कि यूरोप की अंधी तक़लीद करने के बाद ही इंसान मुहज़्ज़ब कहलाता है? इस वक़्त तो यूरोप के कलचर में बदअख़लाक़ीयाँ उरुज पर हैं और यूरोप के समझदार लोग किसी ऐसे समाज की तलाश में सरगरदां है जहां उन्हें ज़हनी सूकून मयस्सर होजाए और इंसानी क़दरें महफ़ूज़ रहें, दूसरी बात यह कि खड़े होकर खाना खाने में जितनी परेशानियाँ होती हैं वह हिन्दुस्तानी मेहमानदारी की खि़लाफ़वरज़ी है यहाँ पर तो मेज़बान मेहमान की ख़तिर तवाज़ो इस तरह करता है कि मेहमान को कोई ज़हमत नहीं होने देता और खड़े होकर खाना खिलाने के कलचर मे मेहमान से कोई यह भी पूछने वाला नहीं होता कि तुम्हें खाना मिला भी या नहीं, सेल्फ़ सर्विस के नाम पर ऐसी छीन झपट होती है कि अलअमानो अलहफ़ीज़ और सच पूछिए तो मैदाने हशर का मन्ज़र और नफ़सा नफ़सी का वह आलम होता है कि एक को दूसरे का मुतलक़ होश नहीं रहता, जबकि हिन्दुस्तानी मेहमाननवाज़ी से यह तरीक़ा मेल नहीं खाता और न ही इस्लामी मेहमाननवाज़ी का तरीक़ा इस बात की इजाज़त देता है कि मेहमानों के बीच खाना छोड़ कर उनका तमाषा देखा जाए और यह भी पलट कर न पूछा जाए कि मेहमान शिकमसेर हुआ या नहीं ?
सेल्फ़ सर्विस का यह मतलब तो नहीं होता, सेल्फ़ सर्विस मेहमान को इस बात का इख़तियार देती है कि वह जितना चाहे और जो चाहे अपने लिए लेले, न यह कि मेहमान को खाना हासिल करने में ही छक्के छूट जाऐं, सेल्फ़ सर्विस में कुछ तो इतना खाना निकाल लेते हैं कि उसे समेटना भी भारी हो जाता है और कुछ बेचारे धक्का मुक्की में ख़ाली पलेट लिए ही नज़र आते हैं और कुछ आधी पौनी ख़ुराक खाकर ही अपने घर की राह पकड़ लेते हैं और अगर किसी तरह हुसूले गि़ज़ा का यह महाज़ सर भी कर लिया जाए तो अब मसला यह बाक़ी रह जाता है कि खड़े होकर खाऐं किस तरह ? एक हाथ से रोटी से बोटी तोड़ने ही में हालत ख़राब होजाती है, यूरोप के कलचर की हिर्स तो कर ली लेकिन यह भी न सोचा कि एक हाथ से अपनी पलेट संभालने के बाद दूसरे हाथ से किस तरह लुक़मा बनाया जाएगा? और अगर खड़े होकर खाना खाने के बीच लुक़मा गुलूगीर हो जाए और पानी की ज़रुरत पेश आजाए तो एक हाथ से इस ज़रुरत को किस तरह पूरा किया जाएगा? पानी मग में मौजूद होते हुए भी एक हाथ से नहीं निकाला जा सकता वह भी खड़े होकर !
इस्लामी तहज़ीब के मुताबिक़ दसतरख़्वान पर पानी भी रखा जाता है ताकि अगर लुक़मा गले में फंस जाए तो पानी के सहारे इतार लिया जाए, लेकिन हम इसी यूरोप की अंधी तक़लीद मे ख़ुश हैं, इस पसती और मुसीबत को हाई स्टेंर्डड समझ रहे हैं, काश! हमारा शऊर इतना बेदार हो जाता कि जानवरों और इंसान के फ़कऱ् को समझ लेते! तमाम मुहज़्ज़ब समाज बैठ कर खाना खाने को पसंद करते हैं, यह तरीक़ा जानवरों को है कि वह खड़े खड़े ही पेट भर लेते हैं, इस्लाम ने खड़े होकर खाना खाने की सख़्ती से मना किया है और इस काम को मकरुह क़रार दिया है और हुज़ूर (स0) और आप के अहलेबैत की सुन्नत भी यही है कि आप दसतरख़्वान पर दोज़ानू बैठ कर इतमिनान से खाना तनावुल फ़रमाते थे, लेकिन हुज़ूर और अहलेबैत के रास्ते पर चलने वाला मुसलमान किस तरह खाना खाता है देख कर भी अफ़सोस होता है, क्या रसूले इस्लाम और अहलेबैत की सुन्नत व सीरत को यह कहकर नज़र अंदाज़ किया जा सकता है कि हाई स्टेंर्डड इसकी इजाज़त नहीं देता ? क्या मुसलमान इस बात पर राज़ी होगा कि वह नाक़ाबिले तक़लीद पस्त कलचर को हुज़ूरे अकरम (स0) की सुन्नत और अहलेबैत की सीरत से तबदील करले ?
जबकि क़ुरआने मजीद ने नबी ए अकरम स0 की सुन्नत को उसवए हसना से ताबीर फ़रमाया है, इतमिनान से बैठ कर खाना खाओ और जो ज़र्रे दसतरख़्वान पर गिर जाऐं उन्हें उठाकर एहतराम से खाओ इससे रिज़्क़ में बरकत होती है लेकिन खड़े होकर खाना खाने में तो तिज़्क़े ख़ुदा पैरों के नीचे रहता है और उसकी बेहुरमती देखकर भी रुह काँप जाती है, हुज़ूर (स0) ने हुक्म दिया है कि एक साथ बैठ कर खाना खाओ, लेकिन मुसलमान अपने अपने हाथ पर पलेट लिए इस तरह अलग अलग एक दूसरे से पीछा किए खड़े होकर खाना खाते हैं जिससे जंगल का समा मालूम होता है, दरहक़ीक़त मुसलमान हुज़ूरे पाक (स0) की सुन्नत और अहलेबैत (अ0) की सीरत को सिर्फ़ इतना ही इख़तियार करता है जितना उसका दिल चाहता है, बाक़ी छोड़ देता है जबकि हुज़ूरे अकरम (स0) की सुन्नत में बेषुमार मेडिकल फ़ायदे हैं, यानी अगर आप (स0) की सुन्नत पर अमल कर लिया जाए तो दुनिया भी आबाद और आख़रत भी शाद ! मुहक़्क़ेक़ीन इस नतीजे पर पंहुचे हैं कि खड़े होकर खाना खाने से पेट मे इज़ाफ़ी हवा चली जाती है जिससे गैस और बदहज़मी की शिकायत पैदा हो जाती है और पेट अफरने लगता है, मुहक़्क़ेकीन ने यह भी दरयाफ़त किया है कि खड़े होकर खाना खाने और जूता पहन्ने से बदन में सौदा बढ़ जाता है और ख़ून गाढ़ा होने लगता है।
माहिरे गि़ज़ा डा0 बिलन कियूर कहता है कि कम खाओ और बैठ कर खाओ, खड़े होकर खाना खाने से दिल और तिल्ली के अमराज़ पैदा हो जाते है, नीज़ खड़े होकर खाना खाने से नफ़सियाती अमराज़ भी पैदा हो जाते है, खड़े होकर खाना खाने से इंसान को एक ऐसा मरज़ होजाता है जिस में अपनो की पहचान ख़त्म हो जाती है, इतने सारे नुक़सानात के बावजूद हमें खड़े होकर खाना खाने और खिलाने से परहेज़ करना चाहिए ताकि हमारी सेहत और तहज़ीबो तमुददुन दाव पर न लग जाए।