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Tuesday 15th of October 2024
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सलाह व मशवरा


कामों में दूसरों से मशवरा करो।
समाजी तरक़्क़ी का एक पहलू मशवरा करना है। मशवरा यानी मिलकर फ़िक्र करना। इसमें कोई शक नही है कि जो लोग मशवरा करते हैं, उनमें अक़्ल व फ़िक्र ज़्यादा पाई जाती है। जो लोग राय मशवरा नही करते, वह अपनी फ़िक्र पर तकिया करते हैं। यह रवैया इस बात की हिकायत करता है कि उनकी फ़िक्र नाक़िस है। इसकी खुली हुई दलील यह है कि चार लोगों की फ़िक्र से जो बात हासिल होती है, वह एक इंसान की फ़िक्र के मुक़ाबले बेहतर और कामिल होती है। क्योंकि हर इंसान किसी भी मसले पर अपनी ख़ास रविश से ग़ौर व फ़िक्र करता है। लिहाज़ा जो इंसान दूसरों से मशवरा करता है हक़ीक़त में वह दूसरों की फ़िक्र को अपनी फ़िक्र में मिला लेता है। या दूसरे अलफ़ाज़ में इस तरह कहा जा सकता है कि उस मसले पर मुख़तलिफ़ पहलुओं से ग़ौर होता है और इस तरह उसके पोशीदा पहलुओं पर भी मुकम्मल तरह से बहस हो जाती है।

अक़्ले सलीम इस बात पर दलालत करती है कि जिस बात पर कुछ अहले नज़र मिलकर ग़ौर करते हैं, वह एक इंसान की फ़िक्र के मुक़ाबले, ग़लतियों से ज़्यादा महफ़ूज़ होती है। क्योंकि इस्लाम अक़्ल पर मबनी दीन है, इस लिए इसने  इंसानों को राय मशवरे की तरफ़ तवज्जो दिलाई है।

अल्लाह ने पैग़म्बरे इस्लाम (स.) को, जो कि अक़्ले कुल थे, मशवरा करने का हुक्म देते हुए फ़रमाया :  و اشاورهم قي الامر यानी किसी बात को तय करने के लिए (मुसलमानों से) मशवरा करो।

क़ुराने करीम की कुछ दूसरी आयतों में मशवरा करने को िस्लाम व मुसलमानों की ख़ुसूसियत माना गया है।

जैसे कि इरशाद होता है :  و امرهم شوري بينهم

यानी मुसलमानो को इस तरह तरबियत हुई है कि वह सब कामों में एक दूसरे से मशवरा करते हैं।

लिहाज़ा मुसलमानों को सलाह मशवरे और सही फ़िक्र हासिल करते वक़्त हसबे ज़ैल नुकात की रिआयत करनी चाहिए।

1.          इस राब्ते की वजह से मुसलमानों के आपसी ताल्लुक़ात बढ़ने चाहिए। यानी मुसलमानों तमाम रिश्तों को छोड़ते हुए भी सलाह मशवरे की बुनियाद पर एक दूसरे से राब्ता रखने और अपने ताल्लुक़ात बढ़ाने पर मजबूर हैं।

2.          नफ़्सियाती तौर पर भी जब इंसान किसी से मशवरा करता है तो उसे एक बड़ा मक़ाम देता है। यानी मशवरा करने वाला अपने मशवरे के अमल के ज़रिये जिस इंसान से मशवरा लेता है, उसे एहतेराम देता है और अपने लिए मोरिदे एतेमाद व इत्मिनान मानता है।

ज़ाहिर है कि इस तरह के रवैये से आपसी ताल्लुक़ात में मज़बूती और शीरनी पैदा होती है।

3.          मशवरा करने से, इंसान का ख़ुद महवरी का जज़बा जो फ़ितरी तौर से हर इंसान में पाया जाता है, कमज़ोर होता है। इस तरह इंसान ख़ुद महवरी के दायरे से निकल कर समाज से जुड़ जाता है और उसमें गिरौही जज़बा पैदा होता है।

4.          इस्लाम ने इंसान को तन्हाई से बाहर निकाल कर, उसकी समाजी ज़िन्दगी को मज़बूत बनाया है।

इस्लाम ने ग़ौर व फ़िक्र के मैदान में भी इजतमाई फ़िक्र को फ़रदी फ़िक्र पर तरजीह दी है और इंसान को जमूदे फ़िक्री से बाहर निकाला है।       

क्योंकि मशवरा करना, हक़ीक़त में कुछ फ़िक्रों को आपस में मिलाकर उनसे सही व बेहतरीन नतीजा निकालना है।

इस्लाम में मशवरे का मक़ाम

इस्लाम ने जिस तरह इबादत को इनफ़ेरादियत से निकाल कर ुसे इजतमाई क़ालिब ढाला है, उसी तरह मुसलमानों को मिलकर ग़ौर व फ़िक्र करने की भी दावत दी है।

ज़ाहिर है कि एक मुसलमान को उसी इंसान से मशवरा करना चाहिए जिसमें  वह सलाहियत पाई जाती हो, हर मामले में हर इंसान से मशवरा करना सही है।

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया है कि

استشر العاقل من الرجال الورع فانه لا يامر الا بخير و اياك والخلاف فان خلاف الورع العقل مفسدة فى الدين و الدنيا

यानी अक़्लमंद व परहेज़गार इंसान से मशवरा करो क्योंकि ऐसा इंसान नेकी के अलावा किसी दूसरी चीज़ की सलाह नही देता और नेक व अक़्लमंद इंसान के मशवरे के ख़िलाफ़ काम न करना वरना तुम्हारा दीन व दुनिया बर्बाद हो जायेगी।

 अहम बात यह है कि हम अपनी औलाद से कैसा बरताव करे कि वह सलाह मशवरे के आदि बन सकें।

इसमें कोई शक नही है कि घर के माहौल में शौहर व बीवी के दरमियान ऐसे मौक़े आते हैं जिनमें आपसी सलाह व मशवरे की ज़रूरत पेश आती है। माँ बाप को चाहिए कि ऐसे मौक़ो पर अपनी औलाद को भी मशवरों में शरीक करें और उनसे राय लें और इस तरह उनकी फ़िक्र को मज़बूत बनाये ताकि उनमें ज़ोक़ व शौक़ पैदा हो और वह अपनी शख़्सियत का एहसास करें।

माँ बाप एक दूसरी तरह से भी अपनी औलाद में मशवरे को अमली जामा पहना सकते हैं और वह यह है कि जो काम बच्चों से मख़सूस होते हैं, बुज़ुर्ग उनको बच्चों के हवाले करें और वह आपसी सलाह मशवरे से जिस नतीजे पर पहुँचे उसे अमल में लायें। इससे यह फ़ायदा होगा कि बच्चे आपस में सलाह मशवरा करना सीख जायेंगे।

ज़ाहिर है कि जैसे जैसे बच्चों की उम्र व अक़्ल बढ़ती जाती है वैसे वैसे बुज़ुर्गों को उन्हें अपने सलाह मशवरों के जलसों में शरीक करने की ज़रूरत पड़ती है।

सबसे ज़रीफ़ नुक्ता यह है कि जब बच्चे महसूस करेंगे कि घर में तमाम काम सलाह मशवरे से होते है और इनफ़ेरादी राय व इस्तबदाद से काम नही लिया जाता है तो वह अमली तौर पर बुज़ुर्गों से सलाह मशवरे का सबक़ लेगें और ख़ुद अहले मशवरा बन जायेंगे।   

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