आत्मा की ताज़गी और अनन्य ईश्वर के क़रीब होने का मौसम है।
हज की महा धर्मसभा में हाजी सफ़ेद चकोर के समान काबे की परिक्रमा करते हैं और ईश्वरीय आदेश के पालन का वचन देने वाले अपनी श्रद्धा व स्नेह का प्रदर्शन करते हैं। काबे की परिक्रमा हज के सबसे आकर्षक संस्कारों में है। हज के दिनों में दुनिया के विभिन्न देशों व भागों से उत्सुक लोग काबे की ओर रवाना होते हैं ताकि स्वयं पर भौतिकता के चढ़े रंग को हटांए और पूरी तन्मयता से अनन्य ईश्वर की अथाह कृपा में डूब जाएं।
हज के अविस्मरणीय संस्कारों में से एक अरफ़ात के मैदान में ठहर कर ईश्वर की उपासना करना भी है। ज़िलहिज्ज महीने की 9 तारीख़ को हाजियों को सुर्योदय से सूर्यास्त तक अरफ़ात के मैदान में ठहरना होता है। अरफ़ात पवित्र नगर मक्का से 20 किलोमीटर दूर जबलुर्रहमा नामक पहाड़ के आंचल में एक मरूस्थलीय क्षेत्र है। ऐसा विशाल मैदान जहां इन्सान सांसारिक व भौतक चीज़ों को भूल जाता है। अरफ़ात शब्द की उत्पत्ति मारेफ़त शब्द से है जिसका अर्थ होता है ईश्वर की पहचान और अरफ़ा का दिन मनुष्य के लिए परिपूर्णतः के चरण तय करने की पृष्ठिभूमि तय्यार करने का सर्वश्रेष्ठ अवसर है। इन्सान पापों से प्रायश्चित और प्रार्थना द्वारा पापों और बुरे विचारों से पाक हो जाता है और कृपालु ईश्वर की ओर पलायन करता है।
पूरे इतिहास में ऐसे महान लोग गुज़रे हैं जिन्होंने अरफ़ात के मैदान में अनन्य ईश्वर की प्रार्थना की और अपने पापों की स्वीकारोक्ति की है। इतिहास में है कि हज़रत आदम अलैहिस्सलाम और हज़रत हव्वा ने पृथ्वी पर उतरने के बाद अरफ़ात के मैदान में एक दूसरे को पहचाना और अपनी ग़लती को स्वीकार किया। जी हां अरफ़े का दिन पापों की स्वीकारोक्ति, उनसे प्रायश्चित और ईश्वर की कृपा की आशा करने का दिन है।
अरफ़े के दिन का एक महत्वपूर्ण कर्म अनन्य ईश्वर की प्रार्थना है। प्रार्थना, सृष्टि के स्रोत और ईश्वर की सदैव बाक़ी रहने वाली शक्ति से संपर्क का माध्यम है इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि प्रार्थना विशेष दिन और विशेष स्थान पर ही होती है किन्तु इसके साथ ही कुछ ऐसे समय और स्थान हैं जो प्रार्थना द्वारा ईश्वर से संपर्क बनाने का विशेष अवसर प्रदान करते हैं क्योंकि उन विशेष अवसरों व स्थानों पर ईश्वर अपनी विशेष कृपा की वर्षा करता है। इस संदर्भ में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम कहते हैः निःसंदेह! तुम्हारी आयु के दिनों में ईश्वर की ओर से तुम्हें उपहार मिलते हैं तो सावधान रहो और स्वयं को उसका पात्र बनाओ।
9 ज़िल्हिज्ज को जो अरफ़े का दिन है, प्रार्थना का दिन कह सकते हैं। विशेष रूप से उन लोगों के लिए जिन्हें हज करने और अरफ़ात के मरूस्थलीय मैदान में उपस्थित होने का सुअवसर मिला है।
अरफ़ात की वादी इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की इस दिन की विशेष दुआ की याद अपने दामन में समेटे हुए है। अरफ़े के दिन इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने बेटों, परिजनों और साथियों के एक समूह के साथ ऐसी स्थिति में अपने ख़ैमे से बाहर आए कि उनके चेहरे से विनम्रता व शिष्टता का भाव प्रकट था। उसके बाद इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जबलुर्रहमा नामक पहाड़ के बाएं छोर पर खड़े हो गए और काबे की ओर मुंह करके अपने हाथों को इस प्रकार चेहरे तक उठाया जैसे कोई निर्धन खाना मांगने के लिए हाथ उठाता है और फिर अरफ़े के दिन की विशेष दुआ पढ़ना शुरु की। इस दुआ में एक स्थान पर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ऐसी स्थिति में कि उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे, ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहते हैः हे ईश्वर ऐसा कर कि मैं तुझसे इस प्रकार डरूं कि मानो तुझे देख रहा हूं और सदाचारिता से मेरा कल्याण कर, अपनी अवज्ञा के कारण मुझे बर्बाद मत कर अपने फ़ैसले में मेरे लिए भलाई रख और मुझे सौभाग्य का पात्र बना ताकि उन चीज़ों को जल्दबाज़ी में न चाहूं जिन्हें तूने बाद के समय के लिए रख छोड़ा और उन चीज़ों के लिए देरी न करूं जिस चीज़ में तूने जल्दी की।
दुआए अरफ़ा एक प्रशैक्षिक शैली है और इसमें इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विचारधारा और उनकी वैचारिक गहराई अपने चरम पर दिखाई देती है। इस मूल्यवान दुआ में जगह जगह पर नैतिकता के उच्च अर्थ निहित हैं। कभी इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ईश्वरीय अनुकंपाओं का उल्लेख करते हैं, कभी ईश्वर से आत्मसम्मान की दुआ मांगते हैं और कभी कर्म में निष्ठा की प्रार्थना करते हैं। शायद यह कहना ग़लत न होगा कि दुआए अरफ़ा का सबसे आकर्षक भाग वह है जब इमाम हुसैन हिस्सलाम ईश्वर से क्षमा मांगते हैं और ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि उसकी बंदगी में हुयी कमी को क्षमा कर दे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जैसी महान हस्ती कि जिसने अपने छह महीने के बेटे को कर्बला में ईश्वर के लिए न्योछावर कर दिया, बिना किसी घमन्ड के ईश्वर से प्रार्थना में क्षमा मांगते हैं। दुआ के ये बोल मुसलमानों के लिए नैतिकता का सबसे बड़ा पाठ हैं। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम दुआए अरफ़ा में एक स्थान पर कहते हैः हे प्रभु! मैं अपनी कमियों व ग़लतियों को मानता हूं तू उन्हें क्षमा कर दे। हे वह जिसे बंदों के पाप कोई नुक़सान नहीं पहुंचा सकते जो अपने बंदों की उपासना से आवश्यकतामुक्त है। मुझे क्षमा कर दे मेरी ग़लतियों को नज़रअंदाज़ कर दे। हे दया करने वालों में सबसे अधिक दया करने वाले।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जैसे महान आत्मज्ञानी घमन्ड के धोखे से स्वतंत्र हैं। वे ईश्वर का आज्ञापालन करने में अत्यधिक प्रयास करने के बावजूद स्वयं को कमियों से मुक्त नहीं मानते। यह उच्च मनोबल व्यक्ति को सदैव प्रयास के लिए प्रेरित करता है और उसे दिन प्रतिदिन परिपूर्णतः की चोटियों से निकट करता है। इस आधार पर ईश्वर के निकट अपनी कमियों व ग़लतियों की स्वीकारोक्ति उसे आत्मोत्थान के मार्ग पर प्रयासरत रखती है। दूसरी ओर स्वयं को संपूर्ण समझना मनुष्य को पतन की ओर ले जाता है और न केवल यह कि उसे बहुत से गुणों की प्राप्ति से रोक देता है बल्कि दिन प्रतिदिन वह अधिक से अधिक ग़लती करता है।
हर वर्ष अरफ़ात के आध्यात्मिक मैदान में अरफ़ा नामक आत्मनिर्माण करने वाली दुआ बहुत से श्रद्धालु पढ़ते हुए दिखाई देते हैं।
इस दुआ में एक स्थान पर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ईश्वर की ओर से हमे दी गयी अनगिनत अनुकंपाओं का उल्लेख करते हैं। इस बात में संदेह नहीं कि ईश्वरीय अनुकंपाओं को याद करना ईश्वर के समक्ष बंदे के शिष्टाचार को दर्शाती है और इन अनुकंपाओं का सदुपयोग होता है और बंदे के दिल में ईश्वर के प्रति आस्था बढ़ जाती है। दुआए अरफ़ा में एक स्थान पर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ईश्वर की अनुकंपाओं का बहुत ही विनम्र अंदाज़ में उल्लेख करते हुए कहते हैः हे प्रभु! तू ही है कि जिसने अनुकंपाएं दीं, तू ही है कि जिसने भलाई की, तू ही है कि जिसने आजीविका दी, तू ही है कि जिसने मार्गदर्शन किया, तू ही है कि जिसने मुझे पापों से सुरक्षति रखा, हे वह जिसने मेरी बचपन में रक्षा की और बड़े होने पर मुझे आजीविका दी, वह पालनहार कि जब मैं बीमार हुआ और उससे दुआ मांगी तो मुझे स्वस्थ किया। उससे वस्त्र मांगा तो मुझे दिया। मैं भूखा तो उसने मेरा पेट भरा, प्यासा था तो प्यास बुझाई, मदद मांगी तो मेरी सहायता की। हे पालनहार यदि तेरी अनुकंपाओं व उपहारों को गिनना चाहूं भी तो कभी नहीं गिन पाउंगा।
दुआए अरफ़ा की दूसरी नैतिक शिक्षाओं में व्यक्तित्व को सदाचारिता से सुशोभित करना भी शामिल है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम इस वैभवशाली दुआ में ईश्वर से कहते हैः हे पालनहार! अपने डर और सदाचारिता से मेरा कल्याण कर। पवित्र क़ुरआन के हुजोरात नामक सूरे की 13वीं आयत में सबसे अच्छा व्यक्ति उसे कहा गया है जो ईश्वर से सबसे अधिक डरता हो और इस प्रकार ईश्वर से डरने का महत्व स्पष्ट किया गया है। यदि मनुष्य के स्वभाव में ईश्वर का डर न हो तो वह उसके आदेशों के पालन में लापरवाही करेगा और अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण नहीं रखेगा। स्पष्ट सी बात है कि ऐसा व्यक्ति पाप करेगा और ग़लत मार्ग पर चलेगा जिसके परिणाम में कल्याण से दूर हो जाएगा। दुआए अरफ़ा में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम इस महत्वपूर्ण बिन्दु की ओर संकेत करते हैं ताकि मुसलमानों को याद दिलाएं कि हर व्यक्ति की प्रतिष्ठा व सज्जनता ईश्वर से भय और सदाचारिता में है और जागरुक व्यक्ति अपनी प्रार्थनाओं में ईश्वर से उसका भय रखने की प्रार्थना करता है।
जैसे जैसे अरफ़ात में सूर्य डूबने लगता है हाजियों के मन में पापों की क्षमा की आशा बढ़ती जाती है। हम भी इस क्षण में अरफ़ात के मैदान के श्रद्धालुओं के साथ दुआए अरफ़ा के एक भाग को पढ़ते हैं ताकि ईश्वर की कृपा की मिठास को चखें। इस सुंदर दुआ में एक स्थान पर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम कहते हैः हे पालनहार! मेरे मन से दुख समाप्त कर दे, मेरी कमियों पर पर्दा डाल दे, मेरे पापों को क्षमा करदे, शैतान को मुझसे दूर करदे, कठिनाइयों से मुझे स्वतंत्र कर और लोक-परलोक में उच्च स्थान पर पहुंचा दे।