अल्लामा अरबी लिखते हैं कि ज़मानए नियाबत में बाद हुसैन बिन रौह अबुल क़ासिम, क़ौलाया हज के इरादे से बग़दाद गये और वह मक्के मोअज़्जमा पहुँच कर हज करने का फ़ैसला किये हुए थे। लेकिन वह बग़दाद पहुँच कर सख़्त अलील हो गये इसी दौरान में आपने सुना कि क़रामता ने हजरे असवद को निकाल लिया है और वह उसे कूछ दुरुस्त करके अय्यामे हज में फिर नसब करेंगें। किताबों में चूँकि पढ़ चुके थे कि हजरे असवद सिर्फ़ इमामे ज़माना ही नस्ब कर सकता है। जैसा कि पहले हज़रत मुहम्मद (स0) ने नस्ब किया था। फिर ज़माना-ए-हज में इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ0) ने नस्ब किया था। इसी बिना पर उन्होंने अपने एक करम फ़रमा “इब्ने हश्शाम” के ज़रिये से एक ख़त इरसाल किया और उसे कह दिया की जो हजरे असवद नस्ब करे उसे यह ख़त दे देना। नस्बे हजर की लोग सई कर रहे थे लेकिन वह अपनी जगह पर क़रार नही लेता था कि इतने में एक ख़ूब सूरत नौजवान एक तरफ़ से सामने आया और उसने उसे नस्ब कर दिया और वह अपनी जगह पर मुसतक़र हो गया। जब वह वहां से रवाना हुआ तो इब्ने हश्शाम उनके पीछे हो लिये। रास्ते में उन्होंने पलट कर कहा ऐ इब्ने हश्शाम, तू जाफ़र बिन मुहम्मद का ख़त मुझे दे दे। देख उस में उसने मुझे से सवाल किया है कि वह कब तक ज़िन्दा रहेगा। यह कह कर वह नज़रों से ग़ाएब हो गये।
इब्ने हश्शाम ने सारा वाक़ेया बग़दाद पहुँच कर क़ौलिया से बयान कर दिया। ग़र्ज़ कि वह तीस साल के बाद वफ़ात पा गये। (कशफ़ुल ग़ुम्मा, सफ़ा 133)
इसी क़िस्म के कई वाक़ेयात किताबे मज़कूर में मौजूद हैं। अल्लामा इब्दुर रहमान मुल्ला जामी रक़म तराज़ हैं कि इस्माईल बिन हसन हर कुली जो नवाही-ए- हिल्ला में मुक़ीम था उसकी रान पर एक ज़ख़्म नमूदार हो गया था। जो हर ज़माना-ए-बहार में उबल आता था। जिस के इलाज से तमाम दुनिया के हकीम आजिज़ और क़ासिर हो गये थे। वह एक दिन अपने बेटे शमसुद्दीन को हमराह ले कर रज़ी उद्दीन अली बिन ताऊस की ख़िदमत में गया। उन्होंने पहले तो बडी सई की लेकिन कोई कार न हुआ। हर तबीब यह कहता था कि यह फ़ोडा “रगे एकहल” पर है, आगर इसे नशतर दिया जाए तो जान का ख़तरा है इस लिए इसका इलाज न मुमकिन है। इस्माईल का बयान है “चून अज़ अतिब्बा मायूस शुदम अज़ीमते मशहद शरीफ़े सरमन राए करदम” जब मैं तमाम एतबार से मायूस हो गया तो सामरा के सरदाब के क़रीब गया, और वहाँ पर हज़रत साहिबे अम्र को मुतावज्जेह किया एक शब दरिया-ए-दजला से ग़ुस्ल कर के वापस आ रहा था कि चार सवार नज़र आये, उनमें से एक ने मेरे ज़ख़्म के क़रीब हाथ फ़ेरा और वह बिल्कुल अच्छा हो गया मैं अभी अपनी सेहत पर ताज्जुब ही कर रहा था कि इनमें से एक सवार ने जो सफ़ैद रीश (सफ़ैद बाल) था कहा कि ताज्जुब क्या है। तुझे शिफ़ा देने वाले इमाम महदी (अ0) हैं। यह सुन कर मैंने उनके क़दमों को बोसा दिया और वह लोग नज़रों से ग़ायब हो गये।
(शवाहेदुन नुबुव्वत, सफ़ा 214 व कशफ़ुल ग़ुम्मा, सफ़ा 132)