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Friday 29th of November 2024
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मरातिबे कमाले ईमान

नाफ़े ने इब्ने उमर से नक़्ल किया है कि हज़रत रसूले अकरम (स.) ने फ़रमाया कि अल्लाह पर बन्दें का ईमान उस वक़्त तक कामिल नही होता जब तक उस में पाँच सिफ़ात पैदा न हो जाये- अल्लाह पर तवक्कुल, तमाम कामों को अल्लाह पर छोड़ना, अल्लाह के अम्र को तस्लीम करना, अल्लाह के फ़ैसलों पर राज़ी रहना, अल्लाह की तरफ़ से होने वाली आज़माइश पर सब्र करना, और समझलो कि जो दोस्ती व दुश्मनी, अता व मनाअ,(ख़ुदा के लिऐ दे और ख़ुदा के लिऐ ले) अल्लाह की वजह से करे उसने अपने ईमान को कामिल कर लिया है।[1]


हदीस की शरह-


इस हदीस में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) कमाले ईमान के मरातिब को बयान फ़रमा रहे हैं और इल्मे अख़लाक़ के कुछ उलमा ने भी सैरो सलूक के मरहले में तक़रीबन यही बातें बयान की हैं।


1- “अत्तवक्कुलु अला अल्लाह”पहला मरहला तवक्कुल है। हक़ीक़त में मोमिन यह कहता है कि चूँकि उसके इल्म, क़ुदरत और रहमानियत का मुझे इल्म है और मैं उस पर ईमान रखता हूँ, इस लिए अपने कामों में उसको वकील बनाता हूँ।


2- “व अत्तफ़वीज़ु अला अल्लाह ” दूसरा मरहला तफ़वीज़ है। तफ़वीज़ यानी सपुर्द करना या सौंपना। पहले मरहले में मोमिन अपने चलने के लिए अल्लाह की राह को चुनता है। मगर इस दूसरे मरहले में मोमिन हक़ीक़तन अल्लाह से कहता है कि अल्लाह ! तू ख़ुद बेहतर जानता है मैंनें तमाम चीज़े तेरे सपिर्द कर दी हैं।


तवक्कुल और तफ़वीज़ में फ़र्क़


तवक्कुल की मंज़िल में इंसान अपने तमाम फ़ायदों को अहमियत देता है इस लिए अपने नफ़ेअ की तमाम हदों को देखता है। लेकिन तफ़वीज़ की मंज़िल में वह यह तो जानता है कि फ़ायदा है, मगर फ़ायदे की हदों के बारे में नही जानता इस लिए सब कुछ अल्लाह के सपुर्द कर देता है क्योंकि इस मरहले में उसे अल्लाह पर मुकम्मल ऐतेमाद हासिल हो जाता है।


3- “व अत्तसलीमु लि अम्रि अल्लाह” यह मरहला दूसरे मरहले से बलन्द है। क्योंकि इस मरहले में इंसान फ़ायदे को अहमियत नही देता, तवक्कुल के मरहले में ख़वाहिश (चाहत) मौजूद थी, लेकिन तस्लीम के मरहले में ख़वाहिश नही पायी जाती।


सवाल- अगर इस मरहले में ख़वाहिश नही पायी जाती तो फ़िर दुआ क्यों की जाती है ?


जवाब- तस्लीम का मतलब यह नही है कि हम अल्लाह से दरख़वास्त न करें , बल्कि तस्लीम का मतलब यह है कि अगर हम अल्लाह से कोई चीज़ चाहें और वह न मिले तो, तस्लीम हो जायें।


4- “व अर्रिज़ा बि क़ज़ाइ अल्लाह” रिज़ा का मरहला तीसरे मरहले से भी बलन्द है। तस्लीम के मरहले में इंसान के लिए फ़ायदे हैं मगर इंसान उनसे आँखें बन्द कर लेता है।लेकिन रिज़ा का मरहला वह है जिसमें इंसान के नफ़्स में भी अपनी ख़वाहिशात के लिए ज़िद नही पायी जाती है, और रिज़ा व तस्लीम के बीच यही फ़र्क़ पाया जाता है।


अल्लाह की तरफ़ सैर और उससे क़रीब होने के यह चार मरहले हैं जिनको अलफ़ाज़ में बयान करना आसान है लेकिन इन सब के बीच बहुत लम्बे-लम्बे रास्ते हैं। कभी कभी इन मरहलों को “ फ़ना फ़ी अल्लाह” का नाम भी दिया जाता है। फ़ना के दो माअना है जिनमें से एक माक़ूल है और वह फ़ना रिज़ायत के मरहले तक पहुँचना है। और इस मरहले में इंसान अपनी तमाम ख़वाहिशात को अल्लाह की ज़ात के मुक़ाबिल में भूल जाता है, और फ़ना फ़ी अल्लाह के यही सही माअना हैं जो शरीयत और अक़्ल के मुताबिक़ है।


अलबत्ता यह मरहले दुआ और अल्लाह से हाजत तलब करने की नफ़ी नही करते हैं। क्यों कि अगर कोई कमाले ईमान के आख़री मरहले यानी रिज़ा के मरहले तक भी पहुँच जाये, तो भी दुआ का मोहताज है।


इन तमाम मक़ामात को सब्र के ज़रिये हासिल किया जा सकता है। सब्र तमाम नेकियों की जड़ है। अमारुल मोमिनीन (अ.) की वसीयत में पाँचवी फ़रमाइश सब्र के बारे में है जो दूसरी चारो फ़रमाइशों के जारी होने का ज़ामिन है। काफ़ी है कि इंसान इन कमालात तक पहुँचने के लिए कुछ दिनों में अपने आप को तैयार करे, लेकिन इससे अहम मसअला यह है कि इस रास्ते पर बाक़ी रहे। जिन लोगों ने इल्म, अमल, तक़वा और दूसरे तमाम मरतबों को हासिल किया हैं उनके बारे कहा गया है कि वह सब्र के नतीजे में इस मंज़िल तक पहुँचे हैं।


हदीस के आखिर में जो जुम्ला है वह पहले जुम्लों का मफ़हूम है यानी दोस्ती, दुश्मनी, किसी को कुछ देना या किसी को मना करना सब कुछ अल्लाह के लिए हो, क्योंकि यह सब कमाले ईमान की निशानियाँ है।



[1] बिहार जिल्द 74/177

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