जिस तरह इस्लाम मे नमाज़ पढ़ने के लिए वज़ू, ग़ुस्ल या तयम्मुम जैसी ज़ाहिरी तहारत ज़रूरी है। इसी तरह नमाज़ की क़बूलियत के लिए दिल की तहारत की भी ज़रूरत है। क़ुरआन ने बार बार दिल की पाकीज़गी की तरफ़ इशारा किया है। कभी इस तरह कहा कि फ़क़त क़लबे सलीम अल्लाह के नज़दीक अहमियत रखता है।
इसी लिए इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि “क़लबे सलीम उस क़ल्ब को कहते हैं जिसमे शक और शिर्क ना पाया जाता हो।”
हदीस मे मिलता है “कि अल्लाह तुम्हारे जिस्मों पर नही बल्कि तुम्हारी रूह पर नज़र रखता है।”
क़ुरआन की तरह नमाज़ मे भी ज़ाहिर और बातिन दोनो पहलु पाये जाते हैं। नमाज़ की हालत मे हम जो अमल अंजाम देते हैं अगर वह सही हो तो यह नमाज़ का ज़ाहिरी पहलु है। और यहीँ से इंसान की बातिनी परवाज़(उड़ान) शुरू होती है।
वह नमाज़ जो मारफ़त व मुहब्बत की बुनियाद पर क़ाइम हो।
वह नमाज़ जो खुलूस के साथ क़ाइम की जाये।
वह नमाज़ जो खुज़ुअ व खुशुअ के साथ पढ़ी जाये।
वह नमाज़ जिसमे रिया (दिखावा) ग़रूर व तकब्बुर शामिल न हो।
वह नमाज़ जो ज़िन्दगी को बनाये और हरकत पैदा करे।
वह नमाज़ जिसमे दिल हवाओ हवस और दूसरी तमाम बुराईयों से पाक हो।
वह नमाज़ जिसका अक्स मेरे दिमाग़ मे बना है। जिसको मैंने लिखा और ब्यान किया है। लेकिन अपनी पूरी उम्र मे ऐसी एक रकत नमाज़ पढ़ने की सलाहिय्यत पैदा न कर सका।(मुसन्निफ़)