बाज़ रिवायात के मुताबिक़ हारिस बिन नोमान फ़हरी ग़दीर की ख़बर सुन कर रसूले अकरम (स) की ख़िदमत में आया और अर्ज़ की: ऐ मुहम्मद, तुमने ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से हमें हुक्म दिया कि ख़ुदा की वहदानियत और तुम्हारी रिसालत की गवाही दें, तो हमने क़बूल किया, तुमने हमें पाँच वक़्त की नमाज़ का हुक्म दिया, हमने उसको भी क़बूल किया, तुमने रोज़ा, ज़कात और हज का हुक्म दिया, हमने मान लिया, लेकिन इस पर राज़ी नही हुए और अपने चचाज़ाद भाई को हाथ पकड़ कर बुलंद किया और उसको हम पर फ़ज़ीलत दी और कहा ............. क्या यह हुक्म अपनी तरफ़ से था या ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से? रसूले अकरम (स) ने फ़रमाया: क़सम उस ख़ुदा की जिसके अलावा कोई माबूद नही है, मैंने इस हुक्म को भी ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से पहुचाया है। उस मौक़े पर हारिस बिन नोमान मुँह मोड़ कर चल पड़ा और अपनी सवारी की तरफ़ यह कहता हुआ चला कि पालने वाले, अगर जो मुहम्मद कह रहे हैं हक़ है तो मुझ पर आसमान से पत्थर भेज दे या मुझे दर्दनाक अज़ाब में मुब्तला कर दे, चुनाँचे वह अभी अपनी सवारी तक नही पहुच पाया था कि ख़ुदा वंदे आलम ने आसमान से उस पर एक पत्थर नाज़िल फ़रमाया जो उसके सर पर आ कर लगा और उसकी पुश्त से बाहर निकल गया और वहीं वासिले जहन्नम हो गया, उस मौक़े पर यह आय ए शरीफ़ा नाज़िल हुई:
सूरए मआरिज आयत 1,2
एक माँगने वाले ने वाक़े होने वाले अज़ाब का सवाल किया।
इस हदीस को सअलबी ने अपनी तफ़सीर में मज़कूरा आयत के ज़ैल में और दीगर उलामा ने भी नक़्ल किया है।
अगर हदीसे ग़दीर सिर्फ़ हज़रत अली (अ) की मुहब्बत और आपकी नुसरत की ख़बर थी तो हारिस को ख़ुदा वंदे आलम से अज़ाब माँगने की क्या ज़रूरत थी? यह तो सिर्फ़ सर परस्ती की सूरत में मुमकिन है जिसको बाज़ लोग कबूल नही करना चाहते हैं।