यलदा ईरान का एक प्राचीन त्योहार है, जो हर साल 21 दिसम्बर को मनाया जाता है।
पिछले हज़ारों साल से पतझड़ का मौसम ख़त्म होने और सर्दियों का मौसम शुरू होने या साल की सबसे लम्बी रात के अवसर पर यह त्योहार मनाया जाता है। इस अवसर पर ईरान में लोग अपने परिवार के साथ मिल जुलकर बैठते हैं और सुबह तक जागते रहते हैं। यलदा सुरयानी शब्द है, जिसका अर्थ है, जन्म लेना। प्राचीन काल में ईरान में यह धारणा थी कि इस रात में सूर्य दोबारा जन्म लेता है, इसलिए रात ढलने और सूर्य उदय होने के बाद वह अधिक शक्ति के साथ चमकेगा और दिन बड़ा होना शुरू हो जायेगा।
खगोल शास्त्र की दृष्टि से पृथ्वी पतझड़ के मौसम में अपने वार्षिक चक्कर के अंतिम चरण में दक्षिण पूरब के अंतिम बिंदू पर पहुंच जाती है, जिससे दिन छोटे और रातें लम्बी होने लगती हैं। लेकिन सर्दियों का मौसम शुरू होते ही सूर्य फिर से उत्तर पूरब की ओर से चमकने लगता है, जिसके कारण उजाला बढ़ जाता है और रातें छोटी होने लगती हैं। प्राचीन ईरान में लोग खगोल शास्त्र में दक्ष थे और उनका कैलेंडर भी सटीक होता था, इसलिए वे पतझड़ की अंतिम रात को आने वाले दूसरे दिन में पुनः सूर्य उदय का कारण समझते थे, इसलिए इस रात में जश्न मनाते थे।
प्राचीन काल में कृर्षि लोगों के जीवन का आधार हुआ करती थी। साल भर वे मौसमों के बदलने और प्राकृतिक विरोधाभास का अनुभव किया करते थे। अनुभव के आधार पर उन्होंने अपनी गतिविधियों को मौसमों के बदलने और दिन और रात के छोटे व बड़े होने के मुताबिक़ ढाल लिया था। वे देखते थे कि कभी दिन काफ़ी बड़े हो जाते हैं, जिसके परिणाम स्वरूप वे सूरज की रोशनी से अधिक लाभ उठा सकते हैं। इससे लोगों में यह धारणा उत्पन्न हुई कि प्रकाश, रौशनी और सूर्य का चमकना शुभ है और यह भलाई का प्रतीक है। इसीलिए वे पतझड़ की अंतिम रात में एक साथ इकट्ठे होकर तरबूज़, अनार और ड्राई फ़्रूट्स खाते थे और इन फलों को भी भलाई का प्रतीक समझते थे।
आजकल भी लोग यलदा से पहले अपने घरों की साफ़ सफ़ाई करते हैं और इस त्योहार के लिए ड्राई फ़्रूट्स जैसी ज़रूरी चीज़ें ख़रीदते हैं। शहर भर में चहल पहल और रौनक़ होती है। शबे यलदा के लिए लोग तरबूज़, लौकी और सूरज मुखी के बीज और इसी तरह बादाम, पिस्ता और हेज़लनट ख़रीदते हैं। फलों में अनार और तरबूज़ ख़रीदते हैं। आम धारणा यह है कि इन फलों के खाने से सर्दियों के मौसम में लोग स्वस्थ और बीमारियों एवं अवसाद से दूर रहेंगे। ईरान के विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु के अनुसार शबे यलदा में विशेष पकवान पकाए जाते हैं। इन खानों में सबसे महत्वपूर्ण, सब्ज़ी पुलो और मछली है। यह समस्त चीज़ों का स्वाद परिवार के बुज़ुर्गों की उपस्थिति में दोगुना हो जाता है। वास्तव में यलदा का त्योहार, परिजनों के एक साथ इकट्ठे होने और ख़ुशी मनाने का एक बहाना है। ईरानी परिवार यह जश्न अपने मां-बाप और दादा-दादी या नाना-नानी के साथ मनाते हैं।
शबे यलदा की एक रस्म कुर्सी लागाना है। कुर्सी लकड़ी का एक क्यूबिकल ढांचा होता है जिस पर एक बड़ा लिहाफ़ डाला जाता है, जिसे गर्म करने के लिए आग के अंगारों से भरी एक अंगीठी उसमें रखी जाती है। शबे यलदा में घर को गर्म करने के लिए इसी कुर्सी का इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन आधुनिक ज़माने में अब इसका इस्तेमाल कम ही किया जाता है। हा गांवों में अब भी इस त्योहार के अवसर पर कुर्सी लगाई जाती है। परिवार के सदस्य इस कुर्सी के चारो ओर बैठ जाते हैं और इसके ऊपर रखी चीज़ों को खाते हैं, इसी तरह सुबह तक बातचीत और कहानियों का दौर चलता है।
ईरानी संस्कृति में कहानियों और दास्तानों का काफ़ी महत्व है। सर्दियों की रातों में कहानी सुनाने और सुनने की पुरानी रस्म थी, जिससे लम्बी रातें भी छोटी लगने लगती थीं। पिछली कुछ शताब्दियों से ईरान में कहानी कहने के अलावा हाफ़िज़ के काव्य संग्रह से फ़ाल भी निकालने की रस्म भी चल निकली है। हाफ़िज़ 14 शताब्दी के महान कवि हैं। उन्होंने लोगों से ख़ुशहाल जीवन बिताने की सिफ़ारिश की है।
इस त्योहार की एक दूसरी रस्म दुल्हन के परिवार की ओर से दूल्हा के परिवार के लिए विभिन्न प्रकार के उपहार भेजना है। इसी तरह से दूल्हा का परिवार भी उसी सीनी में उपहार रखकर वापस लौटाता है। प्राचीन ईरान की भौगोलिक सीमाएं वर्तमान ईरान से कहीं अधिक फैली हुई थीं। इसमें अफ़ग़ानिस्तान, आज़रबाइजान, ताजिकिस्तान और यहां तक कि तुर्कमेनिस्तान भी शामिल थे। यही कारण है कि हज़ारों वर्ष बीतने के बावजूद अनेक त्योहार इन देशों में अभी भी संयुक्त रूप से मनाए जाते हैं।
अफ़ग़ानिस्तान ईरान का पड़ोसी देश है और यहां भी फ़ार्सी बोली जाती है। अफ़ग़ानिस्तान में भी ईरान की भांति शबे यलदा का त्योहार मनाया जाता है। अफ़ग़ानी लोग इस अवसर पर तरबूज़ और अनार खाते हैं और फ़िरोदौसी समेत अन्य कवियों के शेर पढ़ते हैं, क़रान की तिलावत करते हैं और ख़ुदा का शुक्र अदा करते हैं। अफ़ग़ानिस्तान के हेरात शहर में इस त्योहार की रौनक़ और चलह पहल सबसे अधिक होती है।
युद्ध और हिंसा से थक जाने वाली अफ़ग़ान जनता, यलदा को अंधेरे पर उजाले की जीत के प्रतीक के रूप में देखती है और अपने देश में शांति की स्थापना की दुआ करती है। यही कारण है कि युद्ध के बाद अफ़ग़ानिस्तान में यलदा का त्योहार ज़्यादा जोश से मनाया जा रहा है। आज़रबाइजान में भी यह जश्न बहुत हर्षोल्लास से मनाया जाता है। आज़री लोग नई दुल्हनों के इस अवसर पर उपहार देते हैं, जिसे ख़्वांचा कहा जाता है। ख़्वांचा एक छोटा दस्तरख़्वान होता है। दूल्हा के परिजन ख़्वांचे को मिटाईयों, फलों और कपड़ों से भरते हैं और दुल्हन को भेंट करते हैं। लोग आशिक बजाते हैं, आशिक एक प्रकार का संगीत उपकरण होता है। इसके साथ वे लोक गीत भी गाते हैं।
ताजिकिस्तान में विशेष रूप से बदख़शान इलाक़े में यलदा का त्योहार बहुत ही हर्षोल्लास से मनाया जाता है। गांवों में लोग इस जश्न को मनाने के लिए एक दूसरे के घरों में जाते हैं और रात सामूहिक रूप से गुज़ारते हैं। लोग रंग बिरंगे और पारम्परिक कपड़े पहनते हैं। अनार और तरबूज़ खाते हैं। इस रात से विशेष भोजन गंदुम बिरयान पकाते हैं। वे हाफ़िज़ के शेर पढ़ते हैं और बीमारों के स्वास्थ्य के लिए दुआ करते हैं। युवाओं के सफल जीवन की दुआ करते हैं।