लेखक: आयतुल्लाह हुसैन अनसारियान
किताब का नाम: तोबा आग़ोशे रहमत
कुछ लोग कल्पना करते है कि शुक्र का अर्थ है कि परमेश्वर की सारी नेमतो का उपयोग करने के पशचात कहे: मेरे परमेश्वर शुक्रिया अथवा घोषणा करे भगवान का शुक्र (अलहमदो लिल्लाह), या यह नूरानी वाक्य (अलहमदो लिल्लाहे रब्बिल आलामीन) अपनी ज़बान से कहे। यधापि इन महान आध्यात्मिक और भौतिक (अज़ीम माद्दी और मानवी) नेमतो के विरूद्ध अरबी या फ़ारसी भाषा मे एक वाक्य कहने से शुक्र के वास्तविक अर्थ का एहसास हो जाये उचित नही है।
शुक्र नेमत और उपकारी के अनुरूप एवम सामंजस्यपूर्ण होना चाहिए, यह अर्थ शब्दो और कार्यो की एक श्रृंखला (सिलसिला) के आलावा कुछ नही दर्शाता।
परमेश्वर की कृपा और एहसान(नेमत) के मुकाबले मे इलाही शुक्र अथवा अलहमदो लिल्लाह जैसे वाक्य कहने वाले व्यक्ति को शाकिर कह सकते है।
शरीर और अंगो के उपहार जैसे कर्ण, नेत्र, जीभ, हाथ, पेट, वासना (शहवत), क़दम, ह्रदय, नस, पटठा, हड्डी, तंत्रिका, और खाध एवम पेय पदार्थ और शरीर ढकने की वस्तुए, और प्राकृतिक सुन्दर दृश्य जैसे पर्वत, रेगिस्तान, वन (जंगल), नदीयां, झरने और समुद्र, फल एवम सबज़िया और अनेक प्रकार के अनाज आदि और लाखो अन्य नैमते (आशीर्वाद) के मुक़बिल कि जो मानव के जीवित रहने के उपकरण एवम साधन है, क्या परमेश्वर तेरा शुक्र (अलहमदो लिल्लाह) कहने से मसलए शुक्र हल हो जायेगा ? इसलाम और आस्था, मार्ग दर्शन और विलायत, ज्ञान और हिकमत, स्वास्थय और सुरक्षा, शोधन और सफई, संतोष और आज्ञाकारिता, प्रेम एवम पूजा परमेश्वर तेरा धन्यवाद (शुक्र) कहने से मानव भगवान का शुक्रिया अदा करने वाला हो सकता है? !