वैसे तो इस ज़माने में फ़क़त इस्लाम ही अल्लाह का आईन हैं, लेकिन हम इस बात के मोतक़िद हैं कि आसमानी अदयान की पैरवी करने वाले अफ़राद के साथ मेल जोल के साथ रहा जाये चाहे वह किसी इस्लामी मुल्क में रहते हों या ग़ैरे इस्लामी मुल्क में, लेकिन अगर उन में से कोई इस्लाम या मुलसलमानों के मुक़ाबिले में आ जाये तो “ला यनहा कुमु अल्लाहु अनि अल्लज़ीना लम युक़ातिलू कुम फ़ी अद्दीनि व लम युख़रिजु कुम मिन दियारि कुम अन तबर्रु हुम व तुक़सितू इलैहिम इन्ना अल्लाहा युहिब्बुल मुक़सितीना ”[1] यानी अल्लाह ने तुम को उन के साथ नेकी और अदालत की रिआयत करने से मना नही किया है,जो दीन की वजह से तुम से न लड़ें और तुम को तुम्हारे वतन व घर से बाहर न निकालें, क्योँ कि अल्लाह अदालत की रिआयत करने वालों को दोस्त रखता है।
हमारा अक़ीदह है कि इस्लाम की हक़ीक़त व तालीमात को मनतक़ी बहसों के ज़रिये तमाम दुनिया के लोगों के सामने बयान किया जा सकता है। और हमारा अक़ीदह है कि इस्लाम में इतनी ज़्यादा जज़्ज़ाबियत पाई जाती हैं कि अगर इस्लाम को सही तरह से लोगों के सामने बयान किया जाये तो इँसानों की एक बड़ी तादाद को अपनी तरफ़ मुतवज्जेह कर सकता है, खास तौर पर इस ज़माने में जबकि बहुत से लोग इस्लाम के पैग़ाम को सुन ने के लिए आमादा है।
इसी बिना पर हमारा अक़ीदह यह है कि इस्लाम को लोगों पर ज़बर दस्ती न थोपा जाये “ला इकरह फ़ी अद्दीन क़द तबय्यना अर्रुश्दु मिन अलग़ई।” यानी दीन को क़बूल करने में कोई जबर दस्ती नही है क्योँ कि अच्छा और बुरा रास्ता आशकार हो चुका है।
हमारा अक़ीदह है कि मुस्लमानों का इस्लाम के क़वानीन पर अमल करना इस्लाम की पहचान का एक ज़रिया बन सकता है लिहाज़ा ज़ोर ज़बरदस्ती की कोई ज़रूरत ही नही है।
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