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वहाबियत, वास्तविकता और इतिहास-7

वहाबियत, वास्तविकता और इतिहास-7

जैसा कि हमने पिछले कार्यक्रम में उल्लेख किया कि ईश्वर के बारे में वहाबियों का यह विश्वास कि ईश्वर भौतिक विशेषताओं का स्वामी है, क़ुराने मजीद और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पवित्र कथनों एवं सामान्यबोध के प्रतिकूल है, कहा जा सकता है कि यह धारणा केवल इब्ने तैमिया और उसके शिष्यों एवं अनुयाईयों की मानसिक उपज है। इब्ने तैमिया के इन्हीं पथभ्रष्ट विचारों के कारण सुन्नी विद्वानों ने उसका कड़ा विरोध किया और उसे जेल में डाल दिया गया। इब्ने तैमिया अपने पथभ्रष्ट विचारों पर अटल रहा यहां तक कि जेल में उसकी मौत हो गई और कदापि उसे सत्यता की प्राप्ति नहीं हुई। एकेश्वरवाद के बारे में वहाबियों के विश्वासों से संबंधित कार्यक्रम की एक अन्य कड़ी लेकर आपकी सेवा में उपस्थित हैं। इब्ने तैमिया ने मिन्हाज अलसुन्नाह एवं अल अक़ीदतुल हमुविय्या नामक पुस्तकों में एकेश्वरवाद से संबंधित अपने दृष्टिकोण का उल्लेख किया है। उसका मानना है कि ईश्वर की विशेषताओं में से एक दौड़ना है। उसका विश्वास है कि ईश्वर अपने सच्चे बंदों की ओर दौड़ता है ताकि उनके निकट आ जाये। इब्ने तैमिया अपनी दावे को सिद्ध करने हेतु पैग़म्बरे इस्लाम (स) की हदीस प्रस्तुत करता है किः ईश्वर कहता है कि यदि मेरा कोई बंदा एक बालिश्त मेरे निकट आयेगा तो मैं आधा मीटर उसके निकट जाऊंगा और यदि कोई आधा मीटर मेरी ओर बढ़ता है तो मैं एक मीटर से भी अधिक उसकी ओर बढ़ूंगा। और अगर कोई धीरे धीरे चलकर मेरे पास आयेगा तो मैं दौड़कर उसकी ओर जाऊंगा।

अपने बंदो की ओर ईश्वर के दौड़ने को इब्ने तैमिया ठीक शारीरिक रूप से दौड़ना समझता है, जबकि वह हदीस के वास्तविक अर्थ से अनभिज्ञ है। वास्तव में इस हदीस में ईश्वर के अपने बंदों से  हार्दिक एवं आध्यात्मिक रूप से निकट होने की ओर संकेत किया गया है और इस महत्वपूर्ण बिंदु का उल्लेख है कि जो बंदे ईश्वर से संपर्क करते हैं और उससे सहायता मांगते हैं ईश्वर उनकी प्रार्थना सुनता है और उनकी सहायता करता है। अतः जो भी कोई अधिक उपासना एवं प्रार्थना करेगा ईश्वर उस पर और भी अधिक कृपा करेगा।

 इब्ने तैमिया द्वारा इस मूल्यवान हदीस का यह अर्थ निकालने से पता चलता है कि वह और उसके अनुयाई वहाबी ईश्वर को मनुष्यों के समान समझते हैं, इस लिए कि दौड़ना शरीर से विशेष है और शरीर की विशेषताओं में से है। सऊदी अरब के मुफ़्तियों की सर्वोच्च परिषद भी ईश्वर के दौड़ने को सही मानती है। सऊदी अरब के एक वरिष्ठ मुफ़्ती एक प्रश्न के उत्तर में फ़तवा देते हुए कहते हैं ईश्वर के चेहरे, हाथ, आंखें, पिंडली और उंगलियों के बारे में क़ुरान और हदीस में वर्णन है और इस पर सुन्नियों का विश्वास है... तथा पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने ईश्वर के अनुरूप उसकी इन विशेषताओं को सिद्ध किया है। यद्यपि वहाबी सदैव अपनी ग़लत बातों को पैग़म्बरे इस्लाम की हदीसों और यहां तक कि क़ुरान की आयतों से जोड़ देते हैं, जब कि कहीं भी क़ुरान में और पैग़म्बरे इस्लाम की प्रामाणिक हदीसों में ईश्वर के दौड़ने की ओर संकेत नहीं किया गया है बल्कि इस्लामी ग्रंथों में ईश्वर को मानव विशेषताओं से मुक्त माना गया है।

दयालू परमात्मा ने क़ुराने मजीद को एक ऐसी पुस्तक के रूप में भेजा है कि जो स्वयं उसकी ओर हमारा मार्गदर्शन करे ताकि विभिन्न विचारों एवं दृष्टिकोणों और जीवन के भंवर एवं भूल भुलय्यों में रास्ता न भटक जायें। हम यहां आपका ध्यान क़ुरान मजीद की आयतों की ओर आकर्षित करना चाहते हैं ताकि ईश्वर से भय रखने वालों की ओर ईश्वर के दौड़ने से पैग़म्बरे इस्लाम (स) का वास्तविक तात्पर्य समझ में आ जाये। क़ुरान के अन्कबूत सूरे की 69वीं आयत में ईश्वर कहता है किः और वे कि जो हमारे मार्ग में श्रद्धा से प्रयास करेंगे निश्चिंत ही हम उन्हें अपने मार्ग की ओर मार्गदर्शित करेंगे, और ईश्वर भलाई करने वालों के साथ है। ईश्वर अपनी राह में प्रयास करने वालों को इस प्रकार प्रतिफल प्रदान करता है और उन पर अपनी विशेष कृपा करता है और वास्तव में पैग़म्बरे इस्लाम (स) की हदीस में ईश्वर का अपने नेक बंदो की ओर दौड़ने से यही तात्पर्य है। क़ुरान में इस प्रकार की आयतें कि ईश्वर अपने बंदों को सही रास्ता दिखाता है अधिक हैं किन्तु न यह कि दौड़कर या किसी मानव गतिविधि द्वारा, इस लिए कि उसे इस प्रकार की गतिविधियों की आवश्यकता नहीं है।

इब्ने तैमिया का विश्वास है कि ईश्वर को देखा जा सकता है। इस संदर्भ में उसका कहना है कि हर वह वस्तु जिसका अस्तित्व जितना संपूर्ण होता है उतनी ही देखने के लिए उपयुक्त होती है, और चूंकि ईश्वर समस्त जीवों में सबसे संपूर्ण है इस लिए सबसे अधिक नज़र आने के लिए उपयुक्त भी है परिणामस्वरूप ईश्वर दिखाई दिया जाना चाहिए। (मिन्हाज अल सुन्नाह,1-217)

ईश्वर को देखने के विषय में वहाबियों ने सभी सीमाएं लांघ कर ऐसा दृष्टिकोण अपनाया है कि हर बुद्धिमान व्यक्ति आश्चर्यचकित रह जाता है। इब्ने तैमिया का मानना है कि प्रलय के दिन ईश्वर भेस बदलकर लोगों के सामने आयेगा और अपना परिचय देगा और कहेगा कि मैं तुम्हारा ईश्वर हूं। परन्तु लोग उत्तर में कहेंगे हम तुझे नहीं पहचानते और तेरे मुक़बले में अपने ईश्वर की शरण चाहते हैं। यदि हमारा ईश्वर आ जाये तो हम उसे पहचान लेंगे। फिर ईश्वर अपने असली रूप में उनके सामने आता है और अपना परिचय देता है। तो वे लोग कहते हैं कि हां, तू हमारा ईश्वर है उसके बाद यह लोग ईश्वर के साथ स्वर्ग की ओर चले जाते हैं। (मजमू अल फ़तावा, 6-492)

क्या वहाबियों ने अपनी इन बातों से ईश्वर पर ऐसे कामों का आरोप नहीं लगाया है कि जिन्हें अंजाम देने से एक बुद्धिमान व्यक्ति भी बचता है? वास्तव में उन्होंने ईश्वर को मज़ाक़ बना लिया है। दूसरा प्रश्न यह कि क्या लोगों ने दुनिया में पहले कभी ईश्वर को देखा है कि जो प्रलय के दिन उसे उसके असली रूप में पहचान जायेंगे? क्या आपमें से किसी ने ईश्वर को देखा है या किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हो कि जिसने ईश्वर को देखा हो?

संभवतः क़ुरान की जिस आयत में स्पष्ट रूप से ईश्वर के दिखाई पड़ने को असंभव बताया गया है वह सूरए अनाम की एक सौ छटी आयत है जिसमें ईश्वर कहता हैः आंखें उसे नहीं देखतीं किन्तु वह समस्त आंखों को देखता है और वह समस्त अनुकंपाओं का दाता एवं हर चीज़ का जानने वाला है।

दूसरी आयत कि जिसमें भौतिक रूप से ईश्वर के दिखाई पड़ने की संभावना से इंकार किया गया है सूरए आराफ़ की 143वीं आयत है जिसमें ईश्वर कहता है कि जब मूसा निर्धारित स्थान पर आये और उनके पालनहार ने उनसे बात की तो उन्होंने कहा, हे पालनहार, तू मुझे अपना दर्शन करा ताकि मैं तुझे देख सकूं, (ईश्वर ने) कहा, तुम मुझे कदापि नहीं देख सकते।

इन दो आयतों से पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि इब्ने तैमिया की धारणा के विपरीत ईश्वर को कभी नहीं देखा जा सकता।

इब्ने तैमिया और दूसरे वहाबियों ने ईश्वर के संबंध में और भी ऐसी बातें कहीं हैं जिन पर एक उचटती हुई दृष्टि डालते हैं। उनका कहना है कि ईश्वर मच्छर पर बैठकर सवारी करता है, ईश्वर एक ऐसा युवा है कि जिसके घुंगराले बाल हैं, ईश्वर की आंखे आ जाती हैं और फ़रिश्ते उसकी देखभाल के लिए जाते हैं, ईश्वर पैग़म्बर से हाथ मिलाता है, ईश्वर के जूते सोने के हैं, ईश्वर की कमर, बाज़ू, और उंगलियां हैं, उसे आश्चर्य होता है और वह हंसता है इत्यादि...

इस प्रकार के अंधविश्वासों का हम पहले ही उत्तर दे चुके हैं कि ईश्वर की मानव सहित किसी भी चीज़ से तुलना नहीं की जा सकती और उसका शरीर नहीं है। पुनः क़ुरान की सहायता लेते हैं। सरए अन्कबूत की 68वीं आयत में ईश्वर उन लोगों को नास्तिक कहता है जो उस पर झूटे और अनेकेश्वरवादी आरोप लगाते हैं। वह कहता है कि उससे बड़ा अत्याचारी कौन है कि जो ईश्वर पर झूटा आरोप लगाये या उस पर सत्यता के उजागर हो जाने के बाद उसे झुटला दे? क्या नास्तिकों का स्थान नर्क में नहीं है?

नहजुल बलाग़ा में हज़रत अली (अ) का दार्शनिक कथन है कि ... क़ुरान में एकेश्वरवाद के बारे में आया है कोई भी वस्तु उसके समान नहीं है, अतः किसी भी चीज़ को ईश्वर के समरूप समझना मिथ्या एवं भ्रम है, और जिस किसी ने भी ईश्वर को किसी चीज़ के समान समझा उसने लक्ष्य को गुम कर दिया, यदि इस प्रकार ईश्वर का गुणगान किया कि जिसका परिणाम समरूपता हो तो वास्तव में उसने प्राणी का वर्णन किया न कि स्वयं उसकाष इस लिए कि वह किसी भी चीज़ के समान नहीं है, इस लिए जिस किसी ने ईश्वर को किसी चीज़ के सदृश्य जाना तो उसने ईश्वर की अनुभूति प्राप्ति के मार्ग को छोड़ दिया और लक्ष्य को गुम कर दिया, और जो कोई ईश्वर की ओर इशारा करे या उसे अपने मन में सोचे तो वास्तव में उसने उसे नहीं पहचाना।

सुन्नियों के प्रसिद्ध विद्वान ग़ज़ाली का कहना है कि यदि कोई यह सोचे कि ईश्वर का शरीर है कि जो अनेक अंगो से मिलकर बना है तो वह बुत परस्त है, इस लिए कि हर शरीर प्राणी और सृजित है और हर काल के धार्मिक गुरूओं एवं विद्वानों की आम राय में प्राणी की उपासना नास्तिकता एवं बुत परस्ती है। (अल जामुल अवाम अन इल्मिल कलाम,209) अहले सुन्नत के एक दूसरे वरिष्ठ धर्म गुरू क़ुरतबी कि जिनका 671 हिजरी क़मरी में निधन हुआ उन लोगों के बारे में कि जो ईश्वर के शरीर पर विश्वास रखते हैं कहते हैं कि सही बात यह कि जो यह मानते हैं कि ईश्वर का शरीर है वे नास्तिक हैं। इस लिए कि उन लोगों में और बुत परस्तों में कोई अंतर नहीं है।

अनेक मुसलमान विद्वानों एवं इतिहासकारों का मानना है कि इब्ने तैमिया सहित कुछ मुसलमान ईश्वर के शरीर होने के संबंध में यहूदियों से प्रभावित हैं। शहरिस्तानी अपनी पुस्तक मिलल व नहल में लिखते हैं कि बहुत से यहूदी कि जो इस्लाम की ओर आकृषित हुए उन्होंने ईश्वर के शरीर से संबंधित अनेक हदीस गढ़ीं और उन्हें इस्लामी रंग दे दिया, ईश्वर के शरीर से संबंधित समस्त हदीसों का स्रोत तोरा है। प्रसिद्ध इतिहासकार इब्ने ख़लदून का भी कहना है कि इस्लाम के प्रारंभिक काल के मुसलमान पढ़े लिखे नहीं थे तथा ब्रह्माण्ड की सृष्टि और जीवन के दर्शन के बारे में यहूदी एवं ईसाइ धर्मगुरूओं से प्रश्न करते थे। इब्ने ख़लदून का मानना है कि हदीस की कुछ प्रमाणित पुस्तकों में भी ऐसी हदीसों की संख्या कम नहीं है कि जिन्हें यहूदियों ने गढ़ा है या उनकी सहायता से गढ़ा गया है।

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