इक्कीस रमज़ान की भोर का समय, न्याय की स्थाप्ना तथा अत्याचार को मिटाने के लिये अपने तन, मन, धन को दांव पर लगाने वाले मानव इतिहास के महापुरूष एवं सूरमा हज़रत अली(अ) की शहादत का समय है। वही अली जिनके गुणों को ब्यान करने के लिये सभी समुद्रों को स्याही और सभी वृक्षों को लेखनी बना दिया जाये तब भी समस्त गुणों का वर्णन संभव नहीं होगा। जी हां, अज्ञानता, अन्याय और अत्याचार के अंधेरों ने असीम ज्ञान, अनन्त न्याय तथा अथाह प्रेम के साक्षात प्रकाश को बुझा दिया।
हज़रत अली(अ) की प्रवृत्ति, व्यवहार और विचार धारा से आपको अवगत कराने के लिये हम आपको उनकी उस काल की एक घटना सुनाते हैं जब इस्लामी जगत का प्रशासन उनके हाथ में था।
कूफ़ा नगर रात के अंधेरे में डूबा हुआ था, गर्मी बहुत थी और सन्नाटा छाया हुआ था। अली(अ) अपने भाई अक़ील के साथ प्रशासन केन्द्र, दारूल इमारह की छत पर बैठे हुये बातें कर रहे थे। हज़रत अक़ील अपने मन में कोई आशा लेकर आये थे, वह अपनी आवश्यकता मुसलमानों के शासक और अपने भाई, हज़रत अली को बताना चाहते थे ताकि जितनी जल्दी हो सके उनकी समस्या का समाधान हो जाये।अतः हज़रत अक़ील ने बड़ी बेचैनी से अपनी बात आरम्भ की, हे भाई, मैं ऋणी हूं और ऋण चुकाने की क्षमता भी मेरे पास नहीं है, तुम आदेश दो कि मेरा ऋण तुरन्त चुका दिया जाय और जितना भी होसके मेरी सहायता करो, मैं बहुत परेशान हूं,
अली(अ) ने पूछाः कितना ऋण है तुम्हारा।
अक़ील ने उत्तर दियाः एक लाख दिरहम।
हज़रत अली ने कहाः मुझे खेद है कि इतनी राशि मेरे पास नहीं है कि तुम्हारा ऋण चुका सकूं, थोड़ धैर्य रखो, वेतन बांटने के अवसर पर मैं अपने वेतन से निकाल कर तुमको दूंगा और भाई का कर्तव्य निभा दूंगा।
अक़ील जो बहुत दुखी हो गये थे कहने लगेः वेतन बांटने के समय तक रूकूं। सरकारी कोष और देश का ख़ज़ाना तुम्हारे हाथ में है, तुम जितना चाहो उसमें से निकाल सकते हो। मुझे वेतन के समय तक के लिये क्यों रोक रहे हो।
हज़रत अली ने भाई की ओर देखा और बोलेः मुझे तुम्हारे प्रस्ताव पर अचरज हो रहा है, मैं और तुम दूसरे लोगों की भांति ही तो हैं, ठीक है मैं तुहारा भाई हूं, मुझे तुम्हारी सहायता करनी चाहिये, परन्तु अपने धन से न कि बैतुलमाल व सरकारी कोष से। बात चीत चल रही थी और अक़ील विभन्न शब्दों में अपनी बात पर बल दे रहे थे कि इसी बीच हज़रत अली(अ) ने हज़रत अक़ील से कहाः यदि अब भी अपनी बात पर अड़े हुये हो और मेरी बात नहीं मान रहे हो तो मैं तुमको एक प्रस्ताव देता हों, यदि स्वीकार कर लो तो तुम्हारा पूरा ऋण भी अदा हो जायेगा और उस से अधिक तुम्हारे पास बचा भी रहेगा।
अक़ील ने बड़े आश्चर्य से पूछाः मुझे क्या करना होगा।
इमाम ने कहाः इसी दारूल इमारह में सिक्कों से भरे संदूक़ रखे हुये हैं, तुम यहां से नीचे उतरो और जाकर संदूक़ों का ताला तोड़ कर जितना जी चाहे पैसा निकाल लो।
अक़ील ने पूछाः संदूक़ किसके हैं।
हज़रत अली ने कहाःदुकानदारों के हैं, वे अपनी नग़दी वहां डालते हैं।
अक़ील ने कहाः अजीब बात कर रहे हो, मुझे प्रस्ताव दे रहे हो कि लोगों के संदूक़ से उन बेचारों की मेहनत की कमाई , जो उन्होने ईश्वर के भरोसे पर यहां रखी है उठा ले जाऊं। मैं यहां चोरी करने तो नहीं आया हूं।
हज़रत अली ने कहाः तो फिर मुझे क्यों प्रस्ताव दे रहे हो कि जन-कोष से तुम्हारे लिये पैसा निकालूं, यह धन किसका है, यह उन ही लोगों का तो है जो उसे यहां रख कर चैन से सो रहे हैं। तुम्हारे विचार में क्या चोरी केवल यह है कि किसी पर आक्रमण करके उसका माल बलपूर्वक छीन लिया जाये। चोरी की सबसे घृणित प्रकार यही है जिसका तुम मुझे प्रस्ताव दे रहे थे।
हज़रत अली(अ) के व्यक्तित्व कुछ दूसरे आयामों से आपको अवगत कराने के लिये हम उनके दवारा अपने सुपुत्र इमाम हसन(अ) को लिखे पत्र के कुछ अंशों को आपके लिये प्रसारित करते आ रहे हैं, आज भी उसका एक भाग सुनियेः
हज़रत अली(अ) लिखते हैः जो बहुत बोलता है वह व्यर्थ बातें बहुत करता है। जो अपनी बुद्धि का प्रयोग करता है वह वास्तविकता को देखता है वह उचित मार्ग का चयन करता है। भलाई करने वालों के निकट रहो ताकि उनमें सम्मिलित हो जाओ तथा बुरे कर्म वालों से दूरी रखो ताकि उन से अलग रहो।
चुप रहने का एक लाभ व्यर्थ एवं हानिकारक बातों से बचे रहना है। अनेक बार देखने में आता है कि अधिक बोलने वाले लोग बेकार की बातें बहुत करते हैं, क्योंकि समझ- बूझ कर की जाने वाली बातों के लिये सोच विचार तथा अध्य्यन की आवश्यकता होती है, जबकि अधिक बोलने वालों के पास इन कामों का समय नहीं होता। हजरत अली(अ) ग़ोरा-रिल-हकम नामक पुस्तक में अधिक बोलने के अनेक बुरे परिणामों के बारे में बताते हुये कहते हैः “जो अधिक बोलता है वह अधिक ग़लतियां करेगा।”
यही विषय उसको अपमानित कर देता है, उन लोगों के विपरीत जो कम बोलते हैं और सोच समझ कर बोलते हैं, यह कम बोलना उनके सम्मान का कारण बनता है।
इमाम(अ) अपने पत्र में चिंतन मनन के महत्व की ओर संकेत करते हुये कहते हैं “जो व्यक्ति चिन्तन शक्ति का प्रयोग करता है वह वास्तविकता को देखता है और सही मार्ग का चयन करता है”। लोक-परलोक के कार्यों में चिन्तन का महत्व सभी को ज्ञात है और सभी सफल लोग इस मार्ग पर चले हैं। पवित्र क़ुरआन तथा पैग़म्बरे इस्लाम व उनके परिजनों दवारा भी चिन्तन पर बहुत बल दिया गया है। हज़रत अली(अ) अपनी बात को जारी रखते हुये मित्रों और साथ उठने बैठने वालों के प्रभाव के विषय में कहते हैः भलाई करने वालों के निकट रहो ताकि उनमें सम्मिलित हो जाओ तथा बुरे कर्म वालों से दूरी रखो ताकि उनसे अलग रहो।
बुरे लोगों के साथ रहना मनुष्य को दुर्भाग्यशाली बना देता है तथा भले लोगों के साथ उठना-बैठना मनुष्य के कल्याण का कारण बनता है। पवित्र क़ुरआन में इस विषय की ओर स्पष्ट रूप से संकेत किया गया है कि अत्याचारी लोग प्रलय के दिन पछतायेंगे कि काश पथभ्रष्टों के साथ मित्रता न करते।
मित्रों और साथियों की भूमिका का इतना महत्व होता है कि मनुष्य के व्यक्तत्व की पहिचान के लिये उसके मित्रों को देखा जाता है। एक स्थान पर हज़रत अली इस बारे में कहते हेः “यदि किसी के बारे में तुम को संदेह हो तथा उसके धर्म की पहचान न करपारहे हो तो उसके मित्रों को देखो यदि ईश्वरीय धर्म पर हों तो वह भी ईश्वरीय धर्म पर होगा और यदि ईश्वरीय धर्म पर न हों तो उसका भी धर्म से कुछ लेना देना नहीं है।”
पैगम्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम ज़ैनुल आबेदीन(अ) ईश्वर से इस प्रकार प्रार्थना करते हैः हे ईश्वर मुझे मार्गदर्शन के लिये बोलने की शक्ति दे तथा ईश्वरीय भय प्रदान कर।
ईश्वर ने जो महान विशेषतायें मनुष्य को प्रदान की हैं उनमें से एक बोलने की शक्ति है। बोलने व लिखने की अनुकंपायें मनुष्य की परिपूर्णता तथा महानता के दो कारक हैं। इन ही दो कारकों की सहायता से प्राचीन ज्ञान एवं व्यवहारिक अनुभव आज की पीढ़ी तक पहुंचे हैं और अगली पीढ़ियों तक जायेंगे।
इस्लाम में झूठ, आरोप लगाना, पीठ पीछे बुराई करना, किसी के रहस्यों को खोलना, अपशब्द कहना, अपमानित करना आदि को बड़े पापों में गिना जाता है। इन मौखिक पापों के अतिरिक्त ज़बान से संबंधित कुछ दूसरी बातें भी हैं जो अत्यंत निन्दनीय हैं। उदाहरण स्वरूप बहुत अधिक बोलना भी ज़बान की एक समस्या है जो निंदनीय है।
इमाम सज्जाद(अ) दुआ क् दूसरे भाग में कहते हैः हे ईश्वर, मुझे ईश्वरीय भय प्रदान कर तथा बुराइयों से दूरी मेरी आत्मा में डाल दे।
हमारे रचयिता ने सभी मनुष्यों की प्रवृत्ति में अच्छाई व बुराई तथा पवित्रता एवं अपवित्रता को पहचानने की शक्ति डाल दी है ताकि वे भलाइयों का चयन करके अपने कल्याण व सौभाग्य का मार्ग प्रशस्त करसकें। यह ऐसी विशेषता है जो सभी मनुष्यों को ईश्वर की ओर से प्रदान की गयी है, इसे मनोविज्ञान में अन्तर्मन कहा जाता है, यही अन्तर्मन नैतिक गुणों व अवगुणों का निरीक्षण करता है। इमाम ज़ैनुल आबेदीन(अ) का उद्देश्य अपनी दुआ में व्यापक ईश्वरीय भय तथा समस्त भौतिक व आध्यात्मिक कार्य हैं इस प्रकार से कि मनुष्य के समस्त विचार एवं कर्म ईश्वर की इच्छानुसार हों।
source : hindi.irib.ir