इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने अपनी ज़िंदगी में केवल 48 वसंत देखे लेकिन इस कम अवधि में वह बातिल व असत्य के ख़िलाफ़ लगातार संघर्ष करते रहे। इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने अपने बाप हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद क़ौम के मार्गदर्शन की इलाही ज़िम्मेदारी संभाली और बहुत ही कम समय तक हुकूमत की
इमाम हसन अ. की शहादत
इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने अपनी ज़िंदगी, इस्लामी इतिहास के संवेदनलशील
हिस्से में गुज़ारी है। इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने अपनी ज़िंदगी में केवल 48
वसंत देखे लेकिन इस कम अवधि में वह बातिल व असत्य के ख़िलाफ़ लगातार संघर्ष
करते रहे। इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने अपने बाप हज़रत अली अलैहिस्सलाम की
शहादत के बाद क़ौम के मार्गदर्शन की इलाही ज़िम्मेदारी संभाली और बहुत ही
कम समय तक हुकूमत की। इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने मुसलमानों की इच्छा और उनकी
ओर से आज्ञापालन के वचन के बाद हुकूमत संभाली थी। इस्लामी दुनिया का एक
बड़ा हिस्सा उनकी हुकूमत के अधीन था लेकिन इस दौरान मोआविया की ओर से
लगातार अवज्ञा व घिनौने अपराध किए गए जो उस समय सीरिया का शासक था। मोआविया
की ओर से अवज्ञा और घिनौने अपराधों के कारण जंग छिड़ने की नौबत आ गयी और
इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने भी जंग के लिए फ़ौज तय्यार की लेकिन इस्लामी समाज
की स्थिति ऐसी हो गयी थी कि इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने जंग करने में संकोच से
काम लिया और उसी समय मोआविया ने इमाम हसन अलैहिस्सलाम को सुलह का प्रस्ताव
दिया और इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने भविष्य को देखते हुए उस प्रस्ताव को
स्वीकार कर लिया।
सवाल यह उठता है कि इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने शांति को जंग पर वरीयता क्यों
दी? जबकि हुकूमत करना उनका अधिकार था और मोआविया मुसलमानों का शासक बनने के
योग्य नहीं था।
पहले इस प्वाइंट पर ध्यान देना ज़रूरी है कि इस्लाम में दुश्मनों से जंग का
विशेष महत्व है और इसे जेहाद की संज्ञा दी गयी है लेकिन इसके साथ ही यह
जंग केवल उस स्थिति में अनिवार्य होती है जब इसके सिवा कोई और चारा न हो।
इंसानियत के वैचारिक व सामाजिक अभाव को समाप्त करना, अत्याचार व भेदभाव से
संघर्ष, सामाजिक न्याय की स्थापना, और ज़िंदगी के सभी चरणों में अल्लाह को
दृष्टिगत रखना इस्लाम के मुख्य उद्देश्य हैं। ऐसे उच्च मूल्य व पाक
उद्देश्य, शांतिपूर्ण माहौल में हासिल होते हैं। सभी इलाही पैग़म्बरों ने
अत्याचारियों के अत्याचार को समाप्त कर ऐसे माहौल बनाने की कोशिश की। इमाम
हसन अलैहिस्सलाम को भी जो नबूव्वत व इमामत के रक्षक थे, अपने नाना
पैग़म्बरे इस्लाम की कोशिशों की रक्षा तथा अपने बाप के न्याय स्थापना के
अभियान की रक्षा के लिए सबसे अधिक दर्द था। यही कारण है कि मोआविया के
सामने डट जाने और फ़ौज इकट्ठा करने के बावजूद वह समझ गए कि जंग से अपने
उद्देश्य तक नहीं पहुंच सकते, सुलह बेहतर है।
कुछ और भी कारक थे जिनके दृष्टिगत इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने सुलह को जंग पर
प्राथमिकता दी कि इनमें से एक इमाम हसन अलैहिस्सलाम की फ़ौज के सिपाहियों
की ग़द्दारी थी। इमाम हसन अलैहिस्सलाम की फ़ौज के सेनाधिकारियों के बीच
मतभेद हो चुका था और उनमें का एक गुट सांसारिक मोहमाया में खो जाने के कारण
इमाम हसन अलैहिस्सलाम का साथ नहीं देना चाहता था। लोगों और विशेष तौर पर
विशिष्ट लोगों के मन में सांसारिक मोहमाया इतना घर कर गई था कि मोआविया ने
शुरु के कुछ दिनों में ही उनमें से अधिकांश के ईमान को ख़रीद लिया था। जैसा
कि कंदा क़बीले के सरदार ने अपना ईमान 5 लाख दिरहम में बेचा और वह अपने
साथियों के साथ मोआविया से जा मिला। इस संदर्भ में इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने
कहाः मैं अनेक बार कह चुका हूं कि तुममे वफ़ादारी नहीं है और तुम दुनिया
के ग़ुलाम हो।
जिस समय जारिया बिन क़द्दामा इमाम हसन अलैहिस्सलाम के पास गए और दुश्मन की
ओर बढ़ने के लिए कहा तो इमाम ने कहाः अगर सबके सब तुम्हारी तरह होते तो
उन्हें भेजता लेकिन इनके आधे क्या एक बटा दस भी ऐसा ईमान नहीं रखते। इमाम
हसन अलैहिस्सलाम को बारंबार ऐसी कड़वी वास्तविकता का सामना करना पड़ा। जैसा
कि जंग शुरु होने के समय जब पैग़म्बरे इस्लाम के साथी हुज्र बिन अदी लोगों
को मस्जिद में इकट्ठा कर रहे थे और उन्हें जंग के लिए प्रेरित कर रहे थे
तो सबके सब इस तरह चुप बैठे रहे कि हुज्र बिन अदी ने कहाः "तुम्हारा मौन
कितना बुरा है। क्या तुम अपने इमाम और पैग़म्बरे इस्लाम के बुलावे पर नहीं
जाओगे।"
इस तरह के व्यवहार के कारण इमाम हसन अलैहिस्सलाम जंग से पीछे हट गए और जो
लोग सुलह का विरोध कर रहे थे उनसे कहाः " अल्लाह की क़सम, मैंने साथियों के
न होने के कारण सत्ता को मोआविया के हवाले किया।"
इमाम हसन अलैहिस्सलाम इस बात को अच्छी तरह समझ चुके थे कि उद्देश्य की
प्राप्ति फ़ौजी तरीक़े से संभव नहीं है। चूंकि इमाम का उद्देश्य शुद्ध
इस्लाम की रक्षा और बिदअत यानि उसमें किसी नयी चीज़ को शामिल होने से रोकना
था, इसलिए उनके सामने मोआविया से सुलह करने के सिवा कोई और चारा नहीं था
और वह सत्ता से हट गए ताकि इस्लामी दुनिया और गंभीर ख़तरे से बच जाए। इमाम
हसन अलैहिस्सलाम ने अपने इस क़दम से यह दर्शा दिया कि वह हुकूमत के लालची
नहीं हैं वह उसे केवल उद्देश्य तक पहुंचने के लिए हासिल करना चाहते थे और
वह उद्देश्य लोगों का मार्ग दर्शन और न्याय स्थापित करना था।
पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं को ज़िंदा और दीन की रक्षा करना इमामों का
मुख्य उद्देश्य था। हुकूमत का गठन, बातिल व असत्य के ख़िलाफ़ उठ खड़े होना,
सुलह और मौन इन सबके पीछे इमाम का उद्देश्य इस्लाम की रक्षा तथा पैग़म्बरे
इस्लाम की सीरत को ज़िंदा करना था। जब हाताल और परिस्थिति ऐसी हुई कि
असत्य के ख़िलाफ़ उठ खड़ा होना ज़रूरी हो गया तो वह उठ खड़े हुए और फिर मौत
से टक्कर ली। अगर परिस्थिति ऐसी थी कि सुलह से इस्लाम की रक्षा हो सकती थी
तो वह सुलह करते थे। इमाम हसन अलैहिस्सलाम के ज़माने में इस्लामी समाज की
स्थिति इतनी संवेदनशील हो गई थी कि मोआविया से जंग करने के नतीजे में शुद्ध
इस्लाम मिट जाने का ख़तरा था। मोआविया ऐसी जंग करने से तनिक भी पीछे न
हटता लेकिन इमाम हसन अलैहिस्सलाम इस्लाम और इस्लामी दुनिया के भविष्य की ओर
से उदासीन नहीं रह सकते थे।
इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने मोआविया के साथ सुलह में पूरी कोशिश की कि शांति
के मार्ग से अपने उच्च उद्देश्य की रक्षा करें। मोआविया भी सत्ता पाने के
बदले में सभी विशिष्टता देने के लिए तय्यार था। यहां तक कि उसने सादे
काग़ज़ को सिर्फ़ अपने दस्तख़त के साथ इमाम हसन अलैहिस्सलाम के पास भिजवाया
और लिखा कि जो कुछ आप इस काग़ज़ पर लिखेंगे सबका सब मैं मानने के लिए
तय्यार हूं। इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने भी मोआविया की इस तत्परता से लाभ
उठाते हुए भविष्य के दृष्टिगत महत्वपूर्ण व संवेदनशील विषयों को सुलह में
प्राथमिकता दी और मोआविया से सुलह पर प्रतिबद्ध रहने का वचन लिया।
जिन विषयों का इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने सुलह में शामिल किया और उन्हें अमली
बनाने के लिए बल दिया, उन पर चिंतन-मनन से, राजनैतिक संघर्ष में दुश्मन से
विशिष्टता लेने में इमाम हसन अलैहिस्सलाम की सूझबूझ को समझा जा सकता है।
सुलह में यह बात तय पायी कि इमाम हसन अलैहिस्सलाम हुकूमत को मोआविया के
हवाले इस शर्त पर करेंगे कि वह पाक क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम की सीरत के
अनुसार व्यवहार करेगा।
सुलह के अनुसार मोआविया अपने बाद ख़िलाफ़त को इमाम हसन अलैहिस्सलाम के
हवाले करेगा और अगर इमाम हसन अलैहिस्सलाम की ज़िंदगी में कोई दुर्घटना घटती
है तो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ख़िलाफ़त संभालेंगे और मोआविया को यह अधिकार
हासिल नहीं होगा कि वह अपने बाद अपने उत्तराधिकारी का चयन करे। दीन में
बाहर की चीज़ों को शामिल नहीं किया जायेगा, हज़रत अली अलैहिस्सलाम का अनादर
नहीं किया जाएगा और नमाज़ में उन्हें धिक्कारा नहीं जाएगा बल्कि हज़रत अली
अलैहिस्सलाम को सिर्फ़ अच्छे शब्दों से पुकारा जाएगा। इसी तरह मोआविया जमल
और सिफ़्फ़ीन जंग में हज़रत अली की तरफ़ से लड़ते हुए शहीद होने वालों के
परिजनों के बीच दस लाख दिरहम बांटे। इसी तरह इस सुलह में मोआविया से मांग
की गई कि वह हज़रत अली अलैहिस्सलाम के श्रद्धालुओं को चाहे वह जहां कहीं भी
हों, पीड़ित नहीं करेगा। इसी तरह मोआविया ऐसा कोई क़दम नहीं उठाएगा जिससे
इमाम हसन अलैहिस्सलाम, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और पैग़म्बरे इस्लाम के
अहलेबैत में से किसी की ज़िंदगी ख़तरे में पड़े। सुलह के समय मोआविया ने
वचन दिया कि वह सारे अनुच्छेद का पालन करेगा। उसने अल्लाह को इस काम के लिए
गवाह बनाया और सीरिया के सभी बड़े व छोटे लोगों ने भी गवाही दी।
इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने सुलह में जो अनुच्छेद लिखे हैं उनमें बहुत सी
विशिष्टताएं शामिल हैं। इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने इस सुलह द्वारा मोआविया के
अस्ली चेहरे को पेश किया और उसकी सामाजिक स्थिति को मज़बूत बनाने के लिए
जो झूठे प्रचार किए जा रहे थे, उन्हें नाकारा बना दिया।
सुलह पर हस्ताक्षर के बाद इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने मदीना में सांस्कृतिक
गतिविधियां शुरु कीं और वह लोगों के वैचारिक प्रशिक्षण में लग गए। उन्होंने
अपनी सूझबूझ से इस्लाम एवं पैग़म्बरे इस्लाम की शुद्ध शिक्षा की रक्षा की
ताकि उसमें किसी तरह का फेरबदल न होने पाए लेकिन मोआविया ने सुलह पर
दस्तख़त करने के बाद सत्ता पर पहुंचते ही किसी भी अनुच्छेद का पालन नहीं
किया यहां तक कि उसके षड्यंत्र से इमाम हसन अलैहिस्सलाम ज़हर से शहीद हो
गए। इस तरह बाद में घटने वाली घटनाएं कि जिसमें यज़ीद के अपने बाप मोआविया
के बाद सत्ता पर पहुंचने जैसी घटना भी शामिल है, सुलह के ख़िलाफ़ थीं और ये
घटनाएं इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के बलिदान का कारण बनीं।
source : www.abna.ir