शाबान का पवित्र महीना वह महीना है जो इस्लामी इतिहास की महान हस्तियों के जन्म दिनों से सुशोभित है। आज ही के दिन अर्थात शाबान महीने की पांच तारीख को पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम का जन्म हुआ था। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम जैसे महान व्यक्तियों के जीवन का अध्य्यन, जिनसे बहुत से लोग असीम प्रेम व श्रृद्धा रखते हैं, मनुष्यों को संसार की सुन्दरता से जोड़ देता है और आत्मा को तरुणाई प्रदान करता है।
इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम के जन्म दिवस के शुभ अवसर पर हम आप सबकी सेवा में हार्दिक बधाई प्रस्तुत करते हैं और आज के कार्यक्रम में उनके जीवन के कुछ आयामों पर प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे।
इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम का जन्म ३८ हिजरी क़मरी में शाबान महीने की ५ तारीख को पवित्र नगर मदीना में हुआ था। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम भी, जिनकी एक प्रसिद्ध उपाधि सज्जाद है, पैग़म्बरे इस्लाम और उनके दूसरे पवित्र परिजनों की भांति लोगों के मार्गदर्शन में किसी प्रकार के संकोच से काम नहीं लिया और उन्होंने अपने महान पिता हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महा आंदोलन को जारी रखा। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम आशूर के दिन बीमार होने के कारण इमाम हुसैन के समर्थन में रणक्षेत्र नहीं जा सके और जीवित रहे फिर अपने पिता की शहादत के बाद लोगों के मार्गदर्शन की ज़िम्मेदारी उन्होंने संभालीं। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने जीवन भर अमवी शासकों के दुष्प्रचारों से संघर्ष करने के साथ साथ लोगों को ईश्वरीय धर्म इस्लाम की विशुद्ध शिक्षाओं से अवगत कराने और लोगों की भ्रांतियों को दूर करने का अनथक प्रयास किया।
इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने जीवन भर, चाहे वह कर्बला में अपने पिता की शहादत के पहले हो या उसके बाद, अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष किया और समझबूझ एवं तर्कपूर्ण शैली से अपने पिता के महाआंदोलन के उद्देश्यों को लोगों के मस्तिष्क में जीवित रखा। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम पैग़म्बरे इस्लाम का अनुसरण करके आत्मिक एवं नैतिक सुन्दता के प्रतिमूर्ति थे और उसे कभी अपने कार्य से और कभी अपनी दुआओं द्वारा लोगों के मध्य प्रचलित करते थे। अब हम इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के जीवन की एक घटना बयान करते हैं।
एक व्यक्ति था। जीवन की कठिनाइयों से वह महान ईश्वर की कृपा से निराश हो गया था इस प्रकार से कि वह सदैव कहता था" मैं इतना रोता हूं इतनी दुआ करता हूं इतनी प्रार्थना करता हूं किन्तु फिर भी मेरी आवाज़ घर की छत से ऊपर नहीं जाती है आसमान और ईश्वर तक पहुंचना तो बहुत दूर की बात है। उसका एक मित्र उसे सदैव ढारस बधाता और कहता था" भाई ग़लती न कर, ईश्वर हमारे और तुम्हारे निकट है। हम उसे देखने और आभास करने की क्षमता नहीं रखते। ईश्वर क़ुरआन में कहता है" मैं मनुष्यों की गर्दन की नस से भी अधिक उनके निकट हूं" परंतु निराश व्यक्ति को मित्र की नसीहतों का कोई लाभ नहीं हुआ वह प्रतिदिन अधिक निराश होता चला गया। यहां तक कि उसने अपने मित्र के सुझाव पर इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के पास जाने का निर्णय किया
ताकि उनसे मार्गदर्शन ले। जब वे दोनों इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के पास पहुंचे तो उन्होंने इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम से पूछा" हे महान इमाम हम आपकी सेवा में आये हैं ताकि यह जानें कि हमारी दुआ के स्वीकार न होने का कारण क्या है? निराश व्यक्ति ने आगे कहा हां विशेषकर मैं जितना भी दुआ करता हूं वह ऊपर नहीं जाती है क्या ईश्वर ने नहीं कहा है कि मुझसे दुआ करो मैं तुम्हारी दुआ स्वीकार करूंगा? तो फिर मैं जितना भी दुआ करता हूं स्वीकार क्यों नहीं होती है? मैं डरता हूं कि मेरी आस्था व ईमान ख़राब न हो जाये और मैं अधर्मी इस दुनिया से चला जाऊं"
हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने दोनों व्यक्तियों पर गहरी दृष्टि डाली और दुआ स्वीकार न होने की बाधाओं व रुकावटों को बयान किया और पूछा" क्या तुम अपनी नमाज़ सही समय पर पढ़ते हो और उसमें विलंब नहीं करते हो? क्या निर्धनों को दान- दक्षिणा देकर स्वयं को ईश्वर से निकट करते हो? क्या तुम अपने मित्रों के साथ सच्चे हो और उनके बारे में गलत विचार नहीं रखते हो? क्या तुम्हारी बातचीत में गाली- गलौज नहीं है? क्या तुम झूठी गवाही नहीं देते हो? ज़कात देते हो? क्या तुम अपने ऋण का भुगतान करते हो? दरिद्रों की बात को निर्दयता के साथ रद्द तो नहीं कर देते हो? और अनाथों की सहायता करते हो?
हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम इसी तरह कहते जा रहे थे यहां तक कि निराश व्यक्ति लज्जित हो गया और उसने कहा हे अली बिन हुसैन आपने जिन बातों का नाम लिया मैं उनमें से किसी एक को नहीं करता" इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम मुस्कराये और बोले तो फिर ईश्वर से क्या अपेक्षा रखते हो? इसके अतिरिक्त कि इन कार्यों के कारण तुम्हें परलोक में समस्याओं का सामना करना पड़ेगा, इन कार्यों के दुनिया में भी प्रभाव हैं जिसमें से एक दुआ का स्वीकार न होना है। ईश्वर की बात सुनो ताकि ईश्वर भी तुम्हारी बात सुने।
अब हम इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के काल की एक अन्य घटना सुना रहे हैं। एक बूढ़ा व्यक्ति मस्जिद के एक कोने में बैठा हुआ था वह सोच में डूबा हुआ था। वह यह सोच रहा था कि इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की ज्ञान की जो सभाएं होती हैं वह कितनी विभूतिपूर्ण होती हैं। जो भी इन सभाओं में भाग लेता है वह बहुत कुछ सीखता है और वह अपनी आयु के अनुसार ज्ञान में वृद्धि करता है। उसी समय इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की आवाज़ से वह व्यक्ति चौंक गया। इमाम ने कहा" क्या जानना चाहते हो कि किस चीज़ से तुम्हारे पाप तुमसे दूर होते हैं और तुम्हारा स्वास्थ्य व सुरक्षा पूरी होती है और तुम ईश्वर से एसी स्थिति में भेंट करना चाहते हो कि वह तुमसे प्रसन्न हो?
बूढ़े व्यक्ति ने, जो लाठी के सहारे खड़ा हो रहा था, लड़खड़ाती आवाज़ में कहा हे अली बिन हुसैन आप धैर्य करें ताकि मैं आपके निकट आ जाऊं। आप जो बातें कह रहे हैं वह भी मेरे लिए लाभदायक हैं मैं बूढ़ा हो चुका हूं और कुछ दिनों से अधिक इस दुनिया में मेहमान नहीं हूं" वह बूढ़ा व्यक्ति यह कहते हुए इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के निकट आया। उसने दोबारा अपनी लाठी का सहारा लिया और मस्जिद में बिछी चटाई पर बैठ कर कहा" अब आप कहिये मैं पूरे ध्यान से सुन रहा हूं। इस पर इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने कहा" जो भी स्वयं को इन चार विशेषताओं से सुसज्जित करे उसका इस्लाम परिपूर्ण हो जायेगा
ईश्वर उससे प्रसन्न हो जायेगा। पहली चीज़ यह है कि वह लोगों के साथ अपने वादे व वचन को पूरा करे। दूसरी चीज़ यह है कि उसकी ज़बान सच्ची हो यानी वह सदैव सच बोले। तीसरी चीज़ यह है कि वह प्रत्येक दशा में ईश्वर को दर्शक समझे और बुरा कार्य न करे और चौथी चीज़ यह है कि वह अपने बीवी- बच्चों और घर वालों के साथ अच्छा व्यवहार करे"
हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के वक्तव्य सदैव तरुणायी व प्रफुल्लता प्रदान करने वाले हैं। बूढ़े व्यक्ति ने, जो इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की बातों को बड़ी श्रृद्धा के साथ सुन रहा था, इमाम से विदा ली और चला गया। वह रास्ते में यह सोच रहा था कि उसके जीवन का जो समय बचा है उसमें किस प्रकार इमाम की अनुशंसाओं का पालन करके अपनी धार्मिक त्रुटियों को दूर करे।
एक व्यक्ति था उसने इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम को बुरा भला कहा परंतु इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम चुपचाप खड़े सुनते रहे। व्यक्ति को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे। वह यह सोच रहा था कि उसकी बातें सुनकर इमाम क्रोधित हो जायेंगे परंतु उसने जितना भी बुरा भला कहा देखा कि इमाम मौन धारण किये हुए हैं। वह बड़े क्रोध में इमाम को बुरा भला कहते हुए अपने घर की ओर चला गया। जब वह दूर चला गया तो इमाम की सेवा में उपस्थित लोगों ने इमाम से कहा उस व्यक्ति के मुंह में जो कुछ आया उसने आपको कहा और आप चुप रहे? काश आप यहीं पर उसके दुस्साहस का उत्तर देते या हम सबको उसे सबक सिखाने की अनुमति देते। इस पर इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने कहा उसने जो कुछ कहा क्या आप लोगों ने सुना? हम चाहते हैं कि आप सब लोग हमारे साथ उसके घर चलें और हमारे उत्तर सुनें" यह कहकर इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम अपने स्थान से उठे। वहां उपस्थित लोग भी इमाम के पीछे चल पड़े। रास्ते में लोग एक दूसरे से पूछ रहे थे कि इमाम उस व्यक्ति को किस प्रकार का उत्तर देंगे? क्या इमाम उस व्यक्ति को दंडित करेंगे? परंतु जब उन लोगों ने सुना कि इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम पवित्र क़ुरआन की उस आयत को पढ़ रहे और बार बार दोहरा रहे हैं जिसमें ईश्वर कहता है" जो लोग खुशहाली और कठिनाइ में ईश्वर के मार्ग में खर्च करते हैं और क्रोध को पी जाते हैं और लोगों की ग़लतियों की अनदेखी कर देते हैं और ईश्वर अच्छे कार्य करने वालों को पसंद करता है" तो लोग समझ गये कि इमाम का उत्तर किस प्रकार का है और वे सब ग़लत सोच रहे हैं। थोड़ी देर के बाद इमाम और उनके साथ दूसरे लोग उस व्यक्ति के घर पहुंच गये। इमाम एक कोने में खड़े हो गये और लोगों से कहा कि उस व्यक्ति से कह दें कि अली बिन हुसैन आये हैं"
उस व्यक्ति ने दरवाजा खोला और दरवाज़े के पास खड़े होकर उसने कहा क्या हुआ है? इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने बड़ी स्नेहभरी दृष्टि और आराम से कहा" मैं आया हूं ताकि तुमने ने जो बाते कहीं है उसके बारे में तुमसे बात करूं। मेरे भाई यदि तूने सही कहा है तो ईश्वर मुझे क्षमा करे और यदि तूने झूठ कहा है कि तो ईश्वर तुझे माफ करे"
उस व्यक्ति ने जब इमाम के इस प्रकार के प्रेमपूर्ण व्यवहार को देखा तो वह बहुत लज्जित हुआ। उसने जो कुछ इमाम के मुंह से सुना उस पर उसे विश्वास नहीं आ रहा था। इमाम ने उसे भाई कहकर पुकारा था और उसके बाद उसने जो कुछ बुरा भला कहा था उसके लिए इमाम ने उसके लिए ईश्वर से क्षमा मांगी। वह शर्म से डूबा जा रहा था वह अपने जीवित होने पर लज्जा का आभास कर रहा था। वह इस बात की आकांक्षा कर रहा था कि काश धरती फट जाती है और वह उसमें समा जाता किन्तु इमाम की बातें और उनका व्यवहार उस व्यक्ति पर अपना प्रभाव डाल चुके थे इस प्रकार से कि उसके अंदर से प्रेम और मानवता के चिन्ह दिखाई देने लगे और उसकी खोई हुई एवं बेसुध आत्मा जाग गयी। लज्जा से उसने अपना सिर झुका लिया और एक कदम आगे बढ़कर इमाम के माथे को चुम लिया। उसने रोते हुए कहा हे महान इमाम मैंने जो कुछ आपके बारे में कहा आप उससे पवित्र हैं और मैं उन सबका पात्र हूं आप मुझे क्षमा करें" उसके बाद वह व्यक्ति इमाम का प्रेमी व श्रृद्धालु बन गया और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के प्रेमियों में परिवर्तित हो गया। प्रिय पाठकों हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के जन्म दिवस के शुभ अवसर पर आप सबकी सेवा में एक बार फिर बधाई प्रस्तुत करते हैं।
source : tvshia.com