क़ामूसुल लोग़त नामी पुस्कत में आया है कि ज़ैनब शब्द की अस्ल “ज़ैन अब” बताई गई है है। यानी अपने पिता का सम्मान और ज़ीनत, सारे इतिहासकारों ने लिखा है कि ज़िब्रईल यह नाम ईश्वर की तरफ़ से आपके लिये लाए थे और इसका चुनाव आपके लिये किया था, और कितना सुंदर चुनाव था!
क्या आपने आज तक सोंचा है कि अगर अपने पिता की सम्मान और ज़ीनत, दोषरहित यह हस्ती और अपनी माँ हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) का आईना, अपने भाई की मज़बूत साथी न होती इस्लामी तारीख़ और इतिहास का क्या होता? इस्लाम कहां होता? इस्लाम के रास्ता कितना बदल चुका होता?!
अगर ज़ैनब न होतीं?
अगर ज़ैनब (स) न होती तो इमामत का सिलसिला चौथे इमाम की इमामत के आरम्भ के बाद ही इस संसार को सबसे तुच्छ, अत्याचारी व्यक्ति के हाथों टूट गया होता।
अब्बास महमूद ओक़ाद, कर्बला के बारे में लिखते हैं
“और उस समय जब ज़ैनब अली इब्नुल हुसैन (अ) की क़त्ल किये जाने का अदेश सुन कर स्वंय को निडर होकर और वैभव के साथ अपने भतीजे और मासूम इमाम के पास पहुँचाया, उनको कलेजे से लगाया और विरोधी आवाज़ के साथ चिल्लाईं, और इस प्रकार इब्ने ज़ियाद और उसके साथियों को आश्चर्यचकित और भयभीत कर दिया कि वह न चाहते हुए भी अपने गंदे इरादे से पलट गये। निसंदेह अगर ज़ैनब का बलिदान न होता तो क़रीब था कि हुसैन (अ) की नस्ल का अकेला वारिस भी केवल नाम के तौर पर इबने ज़ियाद मलऊन की नजिस ज़बान पर रह जाता”।
लेबनान के विचारक मोहम्मद जवाद मुग़निया लिखते हैं
“अली (अ) ने पैग़म्बर (स) के ज्ञान को जिसे सीधे ईश्वरीय दूत से प्राप्त किया था, अपनी संतान के हवाले किया और यह ज्ञान उनकी आल और संतान के माध्यम से हम तक पहुंचा है”।
यह वास्विक्ता बनी उमय्या से भी छिपी नहीं थी, इसीलिये वह अली (अ) की औलाद को समाप्त कर देना चाहते थे और चाहते थे कि उनकी नस्ल से कोई भी जीवित न रह जाए ताकि इमाम अली (अ) की सारी निशानियां इस संसार से मिटाई जा सकें, और हमारी इस बात पर शिम्र बिन ज़िल जौशन का यह कथन तर्क के तौर है कि उसने कहाः “कमांडर उबैदुल्ला का आदेश यह है कि हुसैन की सारी संतानों की हत्या कर दी जाए”।
शिम्र ने यह बात उस समय कही जब उसने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) को क़त्ल करने के लिये तलवार उठा रखी थी, उसी समय इमाम सज्जाद की फूफी हज़रत ज़ैनब उनके बीच आ गईं और कहाः “यह मारा नहीं जाएगा मगर यह कि मैं भी क़त्ल कर दी जाऊँ”।
शिम्र की इस बात और उसके कर्मों से यह समझा जा सकता है कि क्यों उसने हुसैन (अ) के छः महीने के बच्चे को शहीद कर दिया, बनी उमय्या ने स्वर्ग के सरदारों इमाम हसन (अ) और हुसैन (अ) की हत्या की और हुसैन (अ) की औलाद को शहीद कर दिया इन सबमें केवल इमाम सज्जाद (अ) ही बचे थे जो उनके हाथों शहीद होने से बच सके।
और अगर इमाम सज्जाद (अ) शहीद होने से बचे और सिलसिलए इमामत बाक़ी रहा तो इसका सारा सेहरा हज़रत ज़ैनब (स) के सर ही जाता है क्योंकि यह ज़ैनब (स) ही थीं जिन्होंने कर्बला और कूफ़े में शिम्र और इबने ज़ियाद की तलवार से आपको बचाया, उस समय कि जब हज़रत ज़ैनब (स) ने इमाम सज्जाद (अ) के दामन को थाम लिया और कहाः
“ईश्वर की सौगंध मैं उनसे जुदा नहीं होऊँगी, अगर उनको मारोगे तो मुझे भी उनके साथ मार दो”।
ज़ैनब इस्लाम की रक्षक
निःसंहेद ज़ैबन (स) का वजूद इस्लाम, नबी (स) और अली (अ) के ज्ञान का ज़ामिन था, और यह आपका ही अस्तित्व था जिसने इमामत और विलायत की कड़ी को घटनाओं, बुरी नज़रों और समाप्त होने से बचा रखा था, कभी सोंचा है कि जब इमाम सज्जाद (अ) बीमार होकर अपने बिस्तर पर पड़े थे तो लोग ईश्वर के हलाल और हराम को किस प्रकार पहचानते, और अपनी धार्मिक समस्याओं को किस प्रकार हल करते?
चौथे इमाम की मसलेहत भरी ख़ामोशी के ज़माने में वास्तविक इस्लाम की तरफ़ समाज के मार्गदर्शन का दायित्व किसके सर पर था? क्या वह ज़ैनब के अतिरिक्त कोई और था?
शेख़ सदूक़ लिखते हैः “हज़रत ज़ैनब (स) इमाम हुसैन (अ) की विशेष प्रतिनिधि थीं और लोग हलाल एवं हराम को जानने के लिये आपकी तरफ़ आया करते थे, आपसे प्रश्न किया करते थे यहां तक कि इमाम सज्जाद स्वस्थ हो गये”।
अल्लामा मामक़ानी अपनी पुस्तक तनक़ीहुल मक़ाल में लिखते हैं: “ज़ैनब (स) इमाम की भाति मासूम थी और कोई भी इस बात का विरोध नहीं कर सकता है और अगर ऐसा न होता तो इमाम हुसैन (अ) इमाम सज्जाद (अ) की बीमारी के ज़माने में इमामत की ज़िम्मेदारियों और दायित्वों का कुछ भार उन पर नहीं डालते, और अपनी वसीयतों और नसीहतों में से कुछ वसीयतें उनसे न करे और इमाम सज्जाद (अ) अहकाम और वह चीज़ें जो इमामत और विलाय का दायित्व हैं को बयान करने में अपना विशेष प्रतिनिधि और जानशीन न बनाते”।
सोंचों अगर ज़ैनब (स) न होती तो कर्बला की घटना का अंत क्या होता? यह घटना कैसे एक आन्दोलन और क्रांति में बदल गई? क्या कर्बला में आशूरा के आधे दिन के बाद से ज़ैबन (स) के अतिरिक्त किसी दूसरे की आवाज़ सुनाई देती है क्या उसके बाद ज़ैनब (स) के अतिरिक्त कोई दूसरा बोलता हुआ दिखाई देता है?!
फ़ारसी का शेर है
कर्बला दर कर्बला मी मान्द अगर ज़ैनब न बूद
कर्बला कर्बला में ही समाप्त हो जाती यह ज़ैनब (स) का ही जिगर था जिसने कर्बला को जीवित रखा।
यज़ीद के ज़माने में मदीना का गवर्नर उमरो बिन सअद अलअशराक़, अहले हरम के मदीना लौटने के बाद यज़ीद को इस प्रकार लिखता हैः
“जान लो कि ज़ैनब का वजूद मदीने के लोगों के दिमाग़ में क्रांति पैदा कर रहा है, वह बेहतीन वक्ता, ज्ञानी और अक़्लमंद महिला है और उन्होंने ठान ली है कि अपने साथियों के साथ ख़ूने हुसैन का बदला लेंगी”।
एहतेजाज तबरसी में इस प्रकार लिखा हैः “जब ज़ैनब बिन्ते अली (अ) ने लोगों की तरफ़ इशारा किया कि चुप हो जाएं तो उसी इशारे के साथ ही सांसें सीने में थम गईं और ऊँटों के गले की घंटियां ख़ामोश हो गई। उसके बाद आपने बोलना आरम्भ किया... लोग आपकी दुखों से भारी बातों को सुनकर आश्चर्य चकित और दंग रह गये और वह ग़म और अफ़सोस से अपने हाथों को दांतों से काट रहे थे”।
और यह दृश्य इतना स्पष्ट था कि उस ज़माने के अत्याचारियों ने भी स्वीकार किया है। और उमरो बिन सअद अलअशराक़ को यज़ीद को यह लिखना पड़ाः
जान लो कि ज़ैनब का वजूद मदीने के लोगों के दिमाग़ में क्रांति पैदा कर रहा है, वह बेहतीन वक्ता, ज्ञानी और अक़्लमंद महिला है और उन्होंने ठान ली है कि अपने साथियों के साथ ख़ूने हुसैन का बदला लेंगी।
परिणाम स्परूप जब उन्होंने बढ़ते हुए ख़तरे और हुसैन (अ) की क्रांतिकारी सोंच के प्रचार को बढ़ते देखा तो हज़रत ज़ैनब (स) को मदीने से शहर बदर (देश निकाला) करने का फ़ैसला किया।
कमाल अलसैय्यद अपनी पुस्तक “ज़नी बे नामे ज़ैनब” में लिखते हैं: “ज़ैनब (स) नाम की महिला जिसके दिल में अली का दिल धड़कता था और जिसकी आँखों में हुसैन (अ) का जलाल था, यज़ीद के महल में प्रवेश करती है दृढ़ क़दमों के साथ सारी मुसीबतों को बर्दाश्त करने के बाद भी यज़ीद और इबने ज़ियाद को उनके तख़्तों से गिरा देती है.... यज़ीद हज़रत ज़ैनब (स) की ख़ूनी तर्कों के सामने मक्खी की भाति छोटा और तुच्छ हो गया था, और शायद यह पहली बात था कि जब यज़ीद को एहसास हुआ कि हुसैन जिंदा है, अभी भी कर्बाल में लड़ रहे हैं और दमिश्क़ के द्वार तक पहुंचने वाले हैं।