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शिया समुदाय की उत्पत्ति व इतिहास (2)

शिया समुदाय की उत्पत्ति व इतिहास (2)

रसूले अकरम (स.) के देहांत के बाद जब आपकी ख़िलाफ़त और उत्तराधिकार का मुद्दा सामने आया तो जो महोदय रसूले इस्लाम (स.) के युग में आपके प्रति सबसे अधिक निष्ठावान थे और आपके शिया समझे जाते थे उन्होंने इमामत के बारे में मौजूद नुसूस और हज़रत अली (अ.) के व्यक्तित्व की महानता के आधार पर आपकी बिला फ़स्ल ख़िलाफ़त और इमामत का समर्थन किया और यह लोग दूसरों के शासन व ख़िलाफ़त को अवैध समझते थे, .......

अंतिम तथ्य इतिहास की स्वीकृत और निश्चित वास्तविकताओं में से है अतः उसके लिए किसी इतिहासिक प्रमाणपत्र और किताब के हवाले की आवश्यकता नहीं है। चौथे तथ्य के प्रमाण इससे पहले वर्णन किए जा चुके हैं, आरम्भिक तीनों तथ्यों के कुछ प्रमाण का उल्लेख पहले भी हो चुका है परन्तु अधिक स्पष्टीकरण के लिए कुछ और प्रमाण प्रस्तुत किए जा रहे हैं। 1. पैग़म्बरे इस्लाम और हज़रत अली (अ.) की इमामत हज़रत अली (अ.) की इमामत के तर्क क़ुरआन व सुन्नत आदि में बहुत अधिक हैं, इस स्थान पर उन्हें विस्तार के साथ प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है, आगामी पृष्ठों में उचित स्थान पर हम इस संदर्भ में चर्चा करेंगे। इस स्थान पर हम विभिन्न तर्कों के बीच से केवल एक प्रमाण हदीस यौमुद्दार के स्पष्टीकरण पर ही संतोष कर रहे हैं जो पहला प्रमाण भी है। हदीसों के विशेषज्ञों, इतिहासकारों और भाष्यकारों के अनुसार जब रसूले इस्लाम पर आयत و انذر عشيرتك الاقربين अवतरित हुई तो आपने अपने सम्बंधियों को जनाबे अबू तालिब (अ.) के घर में जमा किया जिनकी संख्या प्रायः चालीस थी, जब वह लोग खाना खा चुके तो पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने उन लोगों तक अपना संदेश पहुंचाया और फ़रमाया: ऐ अब्दुल मुत्तलिब की संतानों! ईश्वर की सौगंध अरब वासियों के मध्य मैं ऐसे किसी जवान को नहीं पहचानता हूँ जो अपनी क़ौम के लिए इससे उत्तम चीज़ लाया हो जो कुछ मैं तुम्हारे लिए लाया हूँ। मैं तुम्हारे लिए ऐसी चीज़ लाया हूँ जिसमें तुम्हारे संसार व परलोक दोनों की भलाई है, ईश्वर ने मुझे यह आदेश दिया है कि तुम्हें एकेश्वरवाद का निमंत्रण दूँ, तुम लोगों में से जो व्यक्ति भी इस बारे में मेरी सहायता करेगा वह मेरा भाई, स्थानापन्न और उत्तराधिकारी होगा। पैग़म्बरे इस्लाम की वार्ता समाप्त हो गई, सब लोग ख़ामोश रहे, अचानक हज़रत अली (अ.) उठे और फ़रमाया: ऐ अल्लाह के रसूल इस बारे में आपकी सहायता मैं करूँगा। पैग़म्बरे इस्लाम ने हज़रत अली (अ.) के काँधे पर हाथ रख कर फ़रमायाः यह तुम्हारे मध्य मेरा भाई, स्थानापन्न और उत्तराधिकारी है, इसकी बात सुनो और इसका अनुसरण करो। यह सुन कर वह लोग खड़े हो गए और मज़ाक़ उड़ाते हुए जनाबे अबू तालिब (अ.) से कहने लगे: यह तुमको आदेश दे रहे हैं कि अपने बेटे का अनुसरण करो। कुछ लोगों ने इस हदीस के प्रमाणीकरण पर आपत्ति जताते हुए कहा है किः उल्लिखित रिवायत अब्दुल ग़फ़्फ़ार बिन क़स्साम (अबू मरयम) के द्वारा वर्णन हुई है और अहले सुन्नत के विद्धानों की दृष्टि में यह व्यक्ति विश्वसनीय नहीं हैं बल्कि उसकी हदीसों को अस्वीकृत समझा जाता है। यह एक निराधार आपत्ति है क्यूँकि यह हदीस विभिन्न स्रोंतों से वर्णन हुई है और केवल अब्दुल ग़फ़्फ़ार बिन क़स्साम (अबू मरयम) द्वारा ही बयान नहीं हुई है जैसा कि शेख़ सलीम बशरी मिस्री ने उल्लिखित आपत्ति और इस बारे में इमाम शरफ़ुद्दीन का उत्तर वर्णन करने के बाद कहा है कि यह हदीस विभिन्न स्रोंतों से वर्णन हुई है। वह कहते हैं कि इस हदीस के सिलसिले में मैंने और मैंने मुसनद अहमद भाग 1 पृष्ठ 111 को देखा और उसके उल्लेखकर्ताओं के बारे में अनुसंधान किया तो ज्ञात हुआ कि वह सभी विश्वसनीय हैं फिर इस हदीस के दूसरे स्रोतों के बारे में अनुसंधान किया तो यही परिणाम निकला कि यह हदीस विभिन्न स्रोतों से बयान हुई है जिनमें हर एक दूसरे की पुष्टि करता है और अनंततः मैंने इस हदीस के सही होने पर विश्वास कर लिया। हदीसे यौमुद्दार पर दूसरी आपत्ति यह की गई है कि इस हदीस को बुख़ारी, मुस्लिम और अहले सुन्नत की सही किताबों (सेहाहे सित्ता) के दूसरे लेख़कों ने भी वर्णन नहीं किया है। इसका उत्तर यह है कि अगर कोई हदीस विभिन्न विश्वासपात्र स्रोतों से वर्णन हुई हो और उसे सेहाह के लेखकों ने वर्णन न किया हो तो उसे हदीस के अमान्य होने का प्रमाण नहीं माना जा सकता है बल्कि इससे तो वास्तविकता के जिज्ञासु पाठकों के मनों में यह प्रश्न उठता है कि सेहाह के लेखकों ने इतनी विश्वासपात्र हदीस को क्यों वर्णन नहीं किया। अतः इमाम शरफ़ुद्दीन ने कहा है कि सेहाह के लेखकों ने केवल इस आधार पर इस हदीस से विमुखता का प्रदर्शन किया है कि यह हदीस ख़िलाफ़त व इमामत से सम्बंधित उनके विश्वास व मत के अनुसार नहीं थी अतः उन्होंने इसको वर्णन नहीं किया ताकि कहीं उसके द्वारा शियों के हाथों में उनके असत्य होने का प्रमाण न पहुँच जाए परन्तु जिन महोदयों ने इस सिलसिले में पक्षपात से काम नहीं लिया है उन लोगों ने उसे अपनी किताबों में लिखा है। जी हाँ अत्याधिक धार्मिक पक्षपात हज़रत अली (अ.) की इमामत व ख़िलाफ़त से सम्बंधित वास्तविकता को छुपाने का एक मौलिक कारण है, यह पक्षपात केवल इमामत से सम्बंधित अहादीस को वर्णन न करने में ही दिखाई नहीं देता बल्कि यह पक्षपात रिवायतों को वर्णन करने की शैली में भी उत्तम रूप से झलकता है। जैसा कि कुछ महोदयों ने वर्णित हदीस में केवल अख़ी शब्द अर्थात मेरा भाई वर्णन किया है और जानशीनी व ख़लीफ़ती अर्थात मेरा उत्तराधिकारी, जेसे शब्दों के उल्लेख से बचे हैं। इब्ने कसीर ने इस हदीस को जहाँ तफ़सीरे तबरी से लिया है वहाँ यह कहा है: पैग़म्बरे इस्लाम ने अबू तालिब (अ.) के घर में मौजूद लोगों से सम्बोधित होकर कहाः فأيّكم يوازرني على هذا الامر على أن يكون اخي و كذا و كذا जबकि तारीख़े तबरी में यूँ लिखा हैः فأيّكم يوازرني على هذا الامر على ان يكون اخي و وصييّ و خليفتي मुहम्मद हुसैन हैकल ने भी अपनी किताब हयाते मुहम्मद के पहले एडीशन में यह हदीस संपूर्ण रूप से लिखी है परन्तु बाद के एडीशनों में (व जानशीनी व ख़लीफ़ती मिन बअदी अर्थात मेरे बाद मेरा स्थानापन्न और उत्तराधिकारी होगा।) को मिटा दिया गया। हमारी उल्लिखित चर्चा का परिणाम यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने आरम्भ में ही एकेश्वरवाद और इस्लाम धर्म की ओर लोगों को निमंत्रण के साथ हज़रत अली (अ.) की ख़िलाफ़त व इमामत का उल्लेख भी कर दिया था, इस आधार पर शिया समुदाय की उत्पत्ति इस्लाम के आरम्भ के साथ जुड़ी हुई है। अमीरुल मोमिनीन (अ.) की इमामत के नुसूस (प्रमाण) बहुत अधिक हैं जिनका स्पष्टीकरण हम इमामत के अध्याय प्रस्तुत करेंगे। पैग़म्बरे इस्लाम और अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली से प्यार हमने शिया के पारिभाषिक अर्थ की व्याख्या के संदर्भ में बयान किया था कि शिया के एक अर्थ पैग़म्बरे इस्लाम के परिवार और विशेष रूप से हज़रत अली से मित्रता और उनसे प्यार करना भी हैं। अहलेबैत (अ.) के प्यार और उनकी मित्रता पर बल देने वाली आयतों व रिवायतों के अतिरिक्त पैग़म्बरे इस्लाम से अत्याधिक ऐसी हदीसें प्रसारित हुई हैं जिनमें हज़रत अली (अ.) के प्यार को अनिवार्य बताया गया है यहाँ तक कि आपके प्यार को ईमान का आधार और आपकी शत्रुता को कपटाचार का लक्षण बताया गया है। सिव्ती ने इस आयत (و لتعرفنّهم فى لحن القول तुम कपटाचारियों को उनकी वार्ता की शैली से पहचान लेते हो ) की व्याख्या के संदर्भ में इब्ने मुर्दवैह और इब्ने असाकिर के हवाले से अबू सईद ख़दरी से यह रिवायत की है कि उन्होंने कहा कि लहनुल क़ौल (لحن القول) से मुराद हज़रत अली (अ.) की शत्रुता है। दूसरी रिवायत में जिसे इब्ने मुर्दवैह ने अब्दुल्लाह बिन मसऊद से नक़्ल किया है यूँ वर्णन हुआ है ما كنّا نعرف المنافقين على عهد رسول اللّه صلى الله عليه و آله الا ببغضهم علي بن ابيطالب عليه السلام रसूले अकरम (स.) के युग में हम (मुनाफ़िक़ों) कपटाचारियों को केवल उनकी अली (अ.) से शत्रुता के आधार पर ही पहचानते थे। नेसाई ने अपनी किताब ख़साएसे अमीरुल मोमिनीन में (الفرق بين المؤمن و المنافق) मोमिन अर्थात आस्तिक और मुनाफ़िक़ अर्थात कपटाचारी के शीर्षक के अंतर्गत एक अलग अध्याय में रसूले इस्लाम से तीन हदीसें प्रस्तुत की हैं कि हज़रत ने फ़रमाया ह

 


source : www.abna.ir
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