छह मुहर्रम को हमने कर्बला के जिस शहीद की याद मनाने के लिए विशेष किया है वह क़ासिम इब्ने हसन हैं। कर्बला में इमाम हसन अलैहिस्सलाम के कई बेटे शहीद हुए हैं। हज़रत क़ासिम भी उन्हीं में से एक हैं। हज़रत क़ासिम और उनकी माता का परिचय प्राप्त करने हेतु हमे इमाम हसन अलैहिस्सलाम और उनके काल से परिचित होना पड़ेगा।
इमाम हसन अलैहिस्सलाम, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के बड़े भाई थे। विभिन्न चारित्रिक विशेषताओं में दोनों भाई समान थे। दोनों का लक्ष्य/ ईश्वरीय आदेशों, शिक्षाओं और सिद्धांतों की रक्षा के साथ ही साथ समाज का पथप्रदर्शन करना था परन्तु अपने-अपने काल की परिस्थितियों के अनुसार दोनों की पद्धति अलग थी। इमाम हसन अलैहिस्सलाम के जीवनकाल में इमाम हुसैन भी भाई के साथ उसी पद्धति पर कार्यबद्ध रहे। इतिहास साक्षी है कि बनी उमय्या क़बीले का उत्तराधिकारी अबू सुफ़ियान, हज़रत मुहम्मद की पैग़म्बरी की घोषणा के बाद से ही उनका विरोधी बन गया था, क्योंकि उनकी पैग़म्बरी की घोषणा अनन्य ईश्वर की पूजा की घोषणा थी अर्थात ईश्वर के प्रत्येक बंदे को संबोधित करके कहा गया था कि किसी भी अन्य वस्तु या व्यक्ति को अपना मालिक न समझो और ईश्वर के अतिरिक्त किसी का भय अपने मन में न लाओ। यह बात अनेकों पूंजीवादियों एवं अत्याचारियों के हृदय में तीर बनकर चुभ गई और वे पैग़म्बरे इस्लाम के विरोध पर डट गए। परन्तु कुछ समय पश्चात इस्लाम के तीव्र गति के फैलाव को देखकर अबू सुफ़ियान और उसी जैसे बहुत से लोगों ने अपनी भलाई इसी में देखी कि वे बाह्य रूप से इस्लाम स्वीकार कर लें और मुसलमान बन कर इस्लाम की जड़ें काटते रहें। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे वआलेही वसल्लम के स्वर्गवास के दिन से राजनीति में एसा फेर-बदल किया गया कि शासन और समाज के संचालन का वास्तविक ज्ञान रखने वाले के हाथ में सत्ता की बागडोर जा ही नहीं सकी। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने विभिन्न अवसरों पर यह बात कही है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने मुझे अपने ज्ञान इस प्रकार प्रदान किये हैं जैसे पक्षी अपने बच्चे की चोंच में चोंच डालकर उसे चारा देता है और उसमें कोई बाहरी मिलावट नहीं होने पाती।
उसी समय की परिस्थितियां इस बात का कारण बनीं कि अबूसुफ़ियान के पुत्र मुआविया को सीरिया का शासन दे दिया गया और उसकी किसी भी गतिविधि और एश्वर्यपूर्ण जीवन पर रोक लगाने का कोई प्रयास नहीं किया गया। समय आगे बढ़ा। पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के २५ वर्षों के पश्चात वह समय आया जब जनता ने हज़रत अली से ख़िलाफ़त का पद संभालने का अनुरोध किया। हज़रत अली अलैहिस्सलाम इसके लिए तैयार नहीं थे। उनका कहना था कि समाज का एक वर्ग इन २५ वर्षों में इस्लाम से इतना अधिक विचलित हो चुका था कि उसे अब इस्लामी क़ानून स्वीकारीय नहीं होंगे और इस्लामी शासक का कर्तव्य है कि वह न्याय की स्थापना करे अतः मैं किसी भी वर्ग विशेष को छूट देकर जनता पर अन्याय नहीं करूंगा और मेरा यह सिद्धांत बहुत से लोगों के लिए असहनीय होगा। परन्तु उस समय जनता ने उन्हें शासनभार संभालने पर विवश करने के लिए उनके आज्ञा पालन का वचन दे दिया परन्तु कुछ ही समय के भीतर वहीं स्थिति सामने आने लगी जिसकी संभावना हज़रत अली ने व्यक्त की थी। जिसके हित पर भी आंच आई वह एक गुट बनाकर हज़रत अली के विरोध में खड़ा हो गया। मुआविया भी उन्हीं में से एक व्यक्ति था जो विरोध में सबसे आगे था क्योंकि महाराजा बनकर एश्वर्यपूर्ण जीवन बिताने वाले के लिए इस्लामी शासन का निम्न स्तरीय जीवन व्यतीत करना असंभव था। बहरहाल हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने न्याय के कारण शहीद कर दिये गए। उसके बाद इमाम हसन का समय आया। वे भी अपने पिता के समान इस्लामी सिद्धांतों पर डटे रहे। मुआविया की ओर से उनका विरोध भी जारी रहा। धन और बल दोनों का प्रयोग करके लोगों को इमाम हसन का पक्ष लेने से रोका जाता रहा। यहां तक कि स्थिति एसी हो गई कि एश्वर्यपूर्ण जीवन में डूबा शासक, इस्लामी ख़लीफ़ा बन बैठा परन्तु अब ही उसे अपनी ख़िलाफ़त को वैध सिद्ध करने हेतु पैग़म्बरे इस्लाम के नाती के समर्थन की आवश्यकता थी अतः उसने इमाम हसन के सामने संधि का प्रस्ताव रखा। इमाम हसन ने संधि के समस्त अनुच्छेद स्वयं तैयार किये और दोनो पक्षों ने हस्ताक्षर कर दिये। अब मुआविया इस बात से प्रसन्न था कि इमाम हसन उसके शासन का विरोध नहीं करेंगे जबकि संधि, जिसका इस्लाम में अत्याधिक महत्व है, उसकी दृष्टि में कोई महत्व नहीं रखती थी। दूसरी ओर इमाम हसन इस बात से संतुष्ट थे कि उक्त संधि मुआविया के क्रियाकलापों पर तो प्रतिबंध नहीं लगा सकी परन्तु आगामी पीढ़ियां जब-जब इस्लामी इतिहास पढ़ेंगी तो उन्हें पता चल जाएगा कि मुआविया इस्लामी शासक नहीं था।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम, न केवल इमाम हसन अलैहिस्सलाम के जीवनकाल में बल्कि उनकी शहादत के पश्चात तथा मुआविया के जीवन भर उस संधि पर कटिबद्ध रहे परन्तु जब यज़ीद ने खुल्लम-खुल्ला अपना विरोध प्रकट कर दिया तो फिर इमाम हुसैन उसके विरोध के लिए तलवार उठाने पर विवश हुए। संधि के संबन्ध में जिस प्रकार इमाम हुसैन ने इमाम हसन को पूर्ण समर्थन दिया था उसी प्रकार इमाम हसन के सपूतों ने तन,मन,धन से अपने चाचा का साथ दिया। आशूर के दिन इमाम हसन की वफ़ादार पत्नी उम्मे फ़र्वा अपने बच्चों को रणक्षेत्र में भेजने का आग्रह कर रही थीं जबकि इमाम हुसैन बार-बार इन्कार कर रहे थे। शहीदों के घायल शव जब भी ख़ैमे में लाए जाते, उम्मे फ़र्वा बेचैन हो उठती थीं। अचानक ही उम्मे फ़र्वा को कुछ याद आया। उन्होंने चन्द्रमा समान अपने १३ वर्षीय सुपुत्र क़ासिम को बुलाया और उनसे कहा कि अपने चाचा इमाम हुसैन के पास जाओ और उनसे मेरी ओर से कहो कि वह तावीज़ जो उनके भाई ने संसार से जाते समय क़ासिम की बांह पर बांधा था उसे खोलें। इसे उनके भाई ने किसी कठिन समय के लिए बांधा था और उम्मे फ़र्वा का कहना था कि अब इससे अधिक कठिन समय कौन सा होगा? क़ासिम माता के आदेश पर चाया के पास गए और उनका संदेश पहुंचाया। इमाम हुसैन जानते थे कि उनके घायल हृदय पर एक और घाव लगने वाला है। उन्होंने भतीजे की बांह से तावीज़ खोला जिसमें इमाम हसन का एक पत्र रखा हुआ था। इस पत्र में इमाम हसन ने लिखा था कि अपने भाई की यह भेंट स्वीकार कर लो। अब हुसैन क्या करते? भाई की यह मुहब्बत देखकर वे बेचैन हो गए और अपने भतीजे को गले से लगाकर रोने लगे। इतिहास में आया है कि इमाम हुसैन ने हज़रत क़ासिम का उत्साह देखकर उनसे प्रश्न किया था कि मेरे लाल तुम मृत्यु को कैसा पाते हो? इसपर १३ वर्षीय क़ासिम ने उत्तर दिया था कि मधु से अधिक मीठा।
चाचा से रणक्षेत्र में जाने की अनुमति पाकर क़ासिम बड़ी प्रसन्नता से मां के पास गए। यह समाचार सुनकर फ़ुफियों, बहनों, माता और परिवार के सभी चाहने वालों ने क़ासिम को घेर लिया। अब इमाम हसन की निशानी युद्ध के मैदान में जा रही थी। एक बार माता आगे बढ़ी। क़ासिम को ढेर सारा प्यार किया और कहा कि बेटा शत्रु ने तेरे वीर पिता की दूरदर्शिता को छिपाने के लिए उनपर कायरता का आरोप लगाया था। मेरे लाल आज एसा युद्ध करना कि दुनिया कह उठे कि वीरता और साहस जब इस बालक में इतना है तो इमाम हसन में कितना रहा होगा?
क़ासिम को घोड़े पर बिठाया गया। शत्रु के सिपाहियों का कहना है कि वह एसा सुन्दर बच्चा था कि उसपर आंखें नहीं टिकती थीं। क़ासिम ने युद्ध आरंभ किया। रणक्षेत्र में उन्होंने एसा साहस दिखाया जिसे देखकर शत्रु दंग रह गया। तभी यज़ीद के सेनापति उमरे साद ने क़ासिम पर पीछे से वार करने को कहा। कायरता के प्रतीकों ने पीछे से वार किया और उम्मे फ़र्वा का चांद, अत्याचारी घटनाओं में घिर गया। भूमि पर गिरते ही बच्चे ने चाचा को पुकारा। चाचा हुसैन मेरी सहायता कीजिए। हुसैन के धैर्य का बांध टूट गया। वे भतीजे की पुकार पर दौड़े। शत्रु की सेना हुसैन को आता देखकर भागने लगी और निर्दयी सेना ने क़ासिम के फ़ूल से बदन को कुचल डाला। इतिहास साक्षी है कि हुसैन जब क़ासिम के पास पहुंचे तो उनका लाल, शरीर के टुकड़ों में बंट चुका था।
source : irib